प्रेम की पुनरावृत्ति....
प्रेम की पुनरावृत्ति....
रूपा जी, उठिए सुबह हो गई , तैयार हो जाइए, जल्दी से बगल वाले बिस्तर से उठती हुई लक्ष्मी जी बोली।
उफ़ ये जोड़ों का दर्द, जल्दी से उठा भी तो नहीं जाता, बुढ़ापे में तो सभी बोझ समझने लगते है, इसलिए ला के पटक दिया वृद्धाश्रम में, अब बुढ़िया मरे या जीये किसे मतलब है, लक्ष्मी जी बड़बड़ाते हुए उठी।
क्यों, क्या बात है? रूपा जी ने पूछा।
अरे, आज रविवार है ना, आज के दिन इस वृद्धाश्रम के मालिक राजनाथ जी आते हैं और हम सब से हमारी समस्याएं पूछकर उनका निवारण करते हैं, लक्ष्मी जी बोली।
मुझे तो कुछ पता नहीं, मैं तो कल ही आई हूं, रूपा जी बोलीं।
मुझे पता है कि आप सारी रात रोती रही, अपना घर छूटता है ना तो बहुत कष्ट होता है, मैं भी बहुत रोई थी, लक्ष्मी जी बोली।
रूपा जी भारी मन से उठी, तैयार हुई, जैसे-तैसे नाश्ता किया, मन तो नहीं कर रहा था खाने का लेकिन जीना है तो खाना ही पड़ेगा।
सब तैयार होकर वृद्धाश्रम के पार्क में पहुंचे, राजनाथ जी आए, सबने अपनी समस्याएं बताई फिर रूपा की बारी आई, राजनाथ जी रूपा को देखकर, थोड़ा सशंकित हुए, रूपा भी उन्हें देखकर परेशान थी फिर अचानक बोल पड़ी, तुम राजू हो ना।
इतने में राजनाथ जी का phone बज पड़ा, phone पर बात करके, उन्होंने कहा कि अभी एक दोस्त की हालत बहुत गंभीर है, कल मैं जरूर आऊंगा और वो चले गए।
रात हो गई, सब खाना खाकर लेट गये, लक्ष्मी ने रूपा से बातें करना शुरू किया।
आपको पता है रूपा जी, राजनाथ जी बहुत अच्छे इंसान हैं, मैंने आम के अचार के लिए बोला था तो उन्होंने भिजवा दिया, बस सब की सेवा के लिए हमेशा तैयार रहते है, उनका एक अनाथालय भी है, अनाथ बच्चों की देखभाल भी खुद करते हैं और खुद के बच्चे ही नहीं है, विवाह ही नहीं किया उन्होंने, सब लोग कहते हैं कि वो जिससे प्रेम करते थे, वो उन्हें नहीं मिलीं, उसका विवाह किसी और से हो गया फिर राजनाथ जी ने विवाह ही नहीं किया।
ऐसे ही बातें करते-करते लक्ष्मी जी सो गई, लेकिन रूपा जी को अपना अतीत याद आने लगा।
कितने साल बीत गये, जिंदगी कहां से कहां ले जाती है, बहुत ही अच्छा बचपन बीता उसका, मां-बाप बहुत प्यार करते थे, एक छोटा भाई भी था उसका, सब ऐसे ही चल रहा था, लेकिन एक दिन, ऐसी अनहोनी हो गई, जिसकी किसी को भी आशा ना थी, उस समय वो चौदह साल की थी।
हुआ यूं कि भाई की बहुत तबीयत खराब थी, गांव के वैद्य ने जवाब दे दिया कि मेरे बस में ना है, बच्चे की हालत ठीक ना है, अभी थोड़ी बहुत दवा दे देता हूं, सुबह जाके, शहर के डाक्टर को दिखाओ, शहर गांव से पन्द्रह-सोलह किलोमीटर दूर रहा होगा,बस से जाना पड़ता था, मां-पिताजी सुबह निकल गये, भाई को लेकर, बोले शाम तक आ जाएंगे।
लेकिन जाते वक्त बस , सड़क से उतर गई और नीचे खाई में गिर पड़ी, मां-पिताजी और भाई नहीं बचे, सिर्फ दो-चार लोग बचें थे उस बस दुर्घटना में।
मेरी तो पूरी दुनिया ही उजड़ गई थीं, रिश्ते के नाम पर एक दूर की बुआ थी, खबर सुनते ही आई और वहां का घर, जायदाद और खेत बेचकर मुझे अपने साथ अपने गांव ले गई।
उनके दो बेटे थे, एक गांव में रहते थे और एक शहर में रहकर पढ़ाई कर रहे थे और दोनों ही मुझसे बड़े थे, बुआ और फूफा दोनों ही अच्छे थे, बुआ के दोनों बेटे भी मुझे अपनी छोटी बहन की तरह मानते थे, उस समय, शायद पैंतिस साल पहले की बात है, तब गांव का जीवन आज की तरह सरल नहीं होता था, बहुत ज्यादा काम होते थे, बड़े-बड़े आंगन वाले कच्चे मिट्टी के खपरैल वाले घर होते थे, सड़कें और गलियां पक्की नहीं होती थीं, बहुत दूर से पानी भरने जाना पड़ता था, हम महिलाओं को तो घड़ी भर का चैन ना था, कुछ दिनों में ही बुआ का घर मुझे अपने घर जैसा लगने लगा, बुआ थोड़ी सख्त थी लेकिन दिल की बुरी नहीं थी और मुझे उनकी बात का बुरा मानना भी नहीं चाहिए था क्योंकि उनके सिवा मेरा कोई और था भी तो नहीं ।
बुआ के घर के बगल में एक और परिवार रहता था, उनके इकलौते बेटे का नाम राजू था, बहुत शैतान था वो, बुआ का बहुत प्रेम था राजू की मां से, दोनों बहुत अच्छी सहेलियां थी, कुछ भी दोनों के यहां बनता एक-दूसरे के घर जरूर जाता, इसी बीच मेरी भी राजू से अच्छी दोस्ती हो गई, वो भी मेरा हमउम्र ही होगा या शायद एक-आध साल बड़ा होगा।
हम दोनों साथ खेतों में जाते, नहर के किनारे मछलियां पकड़ते, पेड़ों से कभी आम, कभी बेर और कभी अमरूद तोड़ कर खाते लेकिन बुआ को ये सब पसंद नहीं था, वो मुझे किसी ना किसी काम में लगाये रहती, तब भी हम कहीं ना कहीं से साथ में खेल ही लेते , मुझे गुलमोहर के फूल बहुत पसंद थे, वो हमेशा मेरे लिए लाया करता था और ऐसे ही एक साल बीत गया, मैं पन्द्रह की पूरी हो गई, सोलहवीं में लग गई, शायद हमारे दिलों में दोस्ती ज्यादा कुछ और पनप गया था लेकिन हमने एक-दूसरे से अपनी भावनाएं कभी व्यक्त नहीं की और जब तक हम इसे समझ पाते कि ये प्रेम है, तब तक कुछ ऐसा घटित हुआ, जो हमने सोचा भी नहीं था।
फूफा जी के कोई मित्र आए, वो हमारे यहां एक-दो दिन रुके, उन्होंने मुझे देखा और अपने बड़े बेटे के लिए पसंद कर लिया तुरंत रिश्ते की बात पक्की हो गई, पहले शादियां जल्दी हो जाया करती थीं, एक महीने के अंदर शादी होनी थी लेकिन बुआ ने कहलवाया क्योंकि पहले महिलाएं , बाहर के पुरुषों से बात नहीं कर सकती थीं, कि शादी तो हम कर देंगे लेकिन विदाई दो साल बाद करेंगे लेकिन मेरे होने वाले ससुर जी नहीं माने , उन्होंने कहा कि मेरी पत्नी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता इसलिए तो हम बेटे की शादी जल्दी करना चाहते थे और एक महीने शादी की तैयारी में ही बीत गए।
और शादी के एक दिन पहले की रात जिस दिन मेरी मेहँदी थी, मेरे दोनों हाथों में मेहँदी लगी थी, राजू की मां और पिताजी हमारे घर पर ही थे, वो भी तैयारियों में व्यस्त थे, राजू अपनी मां को बुलाने आया, ये तो बहाना था शायद वो मुझसे मिलने आया था।
वो मेरे पास आया और बोला तू आखिरी बार मुझसे थोड़ी देर बातें करेंगी, मैंने बुआ की तरफ देखा और बुआ ने मुझे गले लगा कर कहा कि मुझे गलत मत समझना रुपा, मैं तेरी सगी मां नहीं हूं ना इसलिए इतना टोकती थी कि कोई ऊंच-नीच ना हो जाए और लोग ये ना कहे कि सगी बेटी नहीं थी तो ख्याल नहीं रखा, लेकिन भगवान साक्षी है कि मैंने तुझे सगी बेटी से भी ज्यादा चाहा है वो अलग बात है कि कभी कहा नहीं, कल तू पराये घर की हो जाएगी, मुझे छोड़ कर जाएगी तो मैं कैसे रहूंगी, तेरे बिना, और बुआ की आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे, मुझसे लिपट कर खूब रोई, मैं भी रोने लगी।
फिर बुआ बोली, राजू तुझे जो बात करनी है रूपा से कर ले, मैं पीछे का दरवाजा खोल देती हूं, तू इसे अपने घर ले जा, मैं बुलाने आ जाऊंगी, कोई पूछेगा रूपा के बारे में तो कह दूंगी कि थकी थी तो सो गई।
रूपा! मेरी बच्ची मैं तेरी भावनाएं अच्छी तरह समझती हूं, मुझे गलत मत समझना और खाने के लिए एक पत्तल में पूरियां, कटोरी में सब्जी और कुछ मिठाइयां दे दी और बोली आज आखिरी बार साथ में खाना खा लेना , इतना कहकर जाने दिया।
हम राजू के घर पहुंचे, राजू ने कहा कि पहले तू खाना खा ले जल्दी से फिर ढेर सारी बातें करेंगे,राजू ने मुझे अपने हाथों से खाना खिलाया क्योंकि मेरे हाथों में मेहँदी लगी थीं, मैं उससे बार-बार कह रही थी कि तुम भी खा लो तो उसने कहा कि मैं बाद में खा लूंगा, वो मुझे बड़े प्यार से खिला रहा था जैसे मां अपने बच्चे को खिलाती है, उसने उस रात खाना नहीं खाया।
आंगन में रस्सी की बुनी हुई, दो चारपाई पड़ीं थी, एक पर मैं लेट गई और एक पर राजू, चांदनी रात थी, आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे और हम लोग आसमान की तरफ़ देख कर एक-दूसरे का चेहरा देखें बिना बातें कर रहे थे। कल तू मुझे छोड़ कर चली जाएगी, रूपा मुझे तेरी बहुत याद आएगी,
अच्छा छोड़, ये बता तू मुझे याद करेगी कि नहीं, राजू बोला याद आएगी, जब मैं कभी किसी गुलमोहर के पेड़ की छाया में बैठा करूंगी, जब मैं पेड़ों पर लदे आम देखूंगी तब मुझे तुम्हारी याद आएगी, जब मैं किसी नहर के पानी में अपनी परछाई देखूंगी, तब मुझे तुम्हारी याद आएगी, हर जगह, हर घड़ी मुझे तुम्हारी याद आएगी राजू, मुझे नहीं पता कि ये क्या हैं राजू, लेकिन मैं तुमसे दूर नहीं होना चाहती, मैंने कहा।
अपनी -अपनी चारपाई पर लेटे-लेटे आसमान की तरफ मुंह करके हम रोते रहे, ना उसने मुझे चुप कराया, ना मैंने उसे, बस रोते ही रहे ,ऐसे ही लगभग तीन बजे बुआ बुलाने आ गई और मैं उनके साथ चली गई।
बुआ ने मेरी शादी बहुत धूमधाम से करवाई, खूब दान-दहेज दिया, किसी चीज की कोई कमी नहीं रखी, लोगों ने कहा भी कि इतना तो कोई अपनी सगी बेटी को भी नहीं देता, तब बुआ बोली ये सब तो उसी का है, उसके मां बाप की जमीन जायदाद बेच के जो मिला था, उसी से उसके हाथ पीले कर दिए, मेरा तो कुछ भी ना लगा, अपनी जिम्मेदारी निभाई है।
फिर मेरी शादी के बाद राजू शहर चला गया पढ़ने, कभी ससुराल से बुआ के पास गई तो राजू नहीं मिला और अगर कभी मिला भी तो उसने बात नहीं की फिर ससुराल में मेरी ज्यादा जिम्मेदारियां बढ़ जाने से बुआ के घर कम जा पाना होता था फिर बुआ भी नहीं रही तो ये सिलसिला भी टूट गया।
और रूपा जी को यही सोचते-सोचते कब नींद आ गई, पता नहीं।
सुबह हुई, राजनाथ जी वृद्धाश्रम आए और उन्होंने लक्ष्मी जी को अपने office में बुलाया और रूपा के बारे में पूछा।
लक्ष्मी जी बोली, बेचारी ने बहुत दुःख झेले हैं, ससुराल में भी सारी जिम्मेदारियां निभाईं जैसे-तैसे सुख के दिन आए तो पति नहीं रहे और बेटा धोखे से रूपा जी के सारे जमीन जायदाद के कागजात पर अंगूठा लेकर सब कुछ बेचकर अपने परिवार के साथ विदेश भाग गया, और रूपा जी को वृद्धाश्रम छोड़ गया, बेचारी पढ़ी लिखी होती तो ऐसा क्यों होता।
राजनाथ जी बोले, लक्ष्मी जी आप मेरी बहुत अच्छी दोस्त हैं, आपको तो मेरे बारे में सब पता है, वो मिल गई जिसका मुझे सालों से इंतजार था, सबको पार्क में बुलाइए मैं सब बताता हूं, आपको सब पता चल जाएगा।
सब पार्क में पहुंचे और राजनाथ जी के हाथों में गुलमोहर के फूल थे, वो रूपा जी के पास गये, गुलमोहर के फूल दिए और बोले___
रुपा! " क्या तुम अपने इस राजू के साथ प्रेम की पुनरावृत्ति करोगी?"
रूपा की आंखों में आंसू थे और तालियों से सारा पार्क गूंज उठा, होने वाले दूल्हा-दुल्हन के लिए।

