Arya Jha

Drama

4.8  

Arya Jha

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पत्नी हो, पतन से रोकने वाली...

पत्नी हो, पतन से रोकने वाली...

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"जहाँ चाह-वहाँ राह" तो सबने सुना होगा। "जहाँ चाय वहीं मित्र" हम दोस्तों का नारा था। अपनी पुरानी सखियों के साथ चाय की चुस्कियों का आनंद ही कुछ और है। इन्हीं बेफिक्री भरे खयालों के साथ, मैंने निधि और सुधा को आमंत्रण दे डाला। नीलेश इन दिनों पिताजी को देखने पटना गए थे। मैंने सोचा, ये अच्छा मौका है, दोस्तों को बुलाने का। तय समय 12 बजे का था। हम साथ बैठ कर गप्पें मारने लगे। वक़्त का पता ही नहीं लगा कि कब दो बज गए।


निधि की बेटी छोटी थी, उसे स्कूल से वापस लाना था, हमने जल्दी-जल्दी लंच निपटाया। निधि बेटी के स्कूल के लिए निकल गयी पर सुधा के बच्चे बोर्डिंग में थे, लगातार ही फ़ोन आ रहे थे। मैंने पूछा, “कोई परेशानी है सुधा?”


“अरे नहीं यूँ ही एक क्लाइंट का फ़ोन था,” उसने जवाब दिया पर उसके चेहरे से साफ़ ज़ाहिर था कि कोई खास फ़ोन था। फिर मैंने सुधा से पूछा कि, “तेरी योगा क्लासेज़ कैसी चल रही है?” फिर फ़ोन की घंटी बजी। इस बार आवाज़ में मिठास ज्यादा थी। पूछने पर बताया कि नया क्लाइंट है, उसके गुलाबी चेहरे पर पसीने की बूँदें साफ़ ज़ाहिर हो रही थी कि वो झूठ बोल रही है। मैं चाय बनाने के लिए उठी और तब तक फिर से फ़ोन की घंटी बजी। यूँ तो सुधा झूठ नहीं बोलती और झूठ नहीं बोलने वाले आसानी से पकड़े जाते है। हमने चाय पीनी शुरू की और हमारी बेहद निजी बातचीत का क्रम भी चल पड़ा था। मैंने दीपक (उसके पति) के बारे में पूछा। उसका जवाब था, "मुझे पता नहीं।”


“ऐसा क्यों?”


”काम में व्यस्त रहते है हमेशा, हमारे साथ वक़्त गुज़ारे हुए दो साल हो गए।”


”क्या करती हो, ये ठीक नहीं।”


”अरे, मैं कौन सा राह तकती बैठी हूँ, मैं अपने योगा टीम में मस्त हूँ और वो अपनी नौकरी में, बच्चों के घर आने पर हम पारिवारिक माहौल बना लेते है और उनके हॉस्टल जाते ही वही मूक अलगाव।”


सहेली थी वो मेरी, मुझे समझते देर ना लगी कि पति के द्वारा मिले रिजेक्शन का बदला ले रही है। क्या हो रहा है - इतनी भावनात्मक गिरावट, इतना अहंकार, उसने बताया कि आजकल दोस्त बनाती-छोड़ती हूँ, दिल पर नहीं लेती। मैं एकटक उसे देखे जा रही थी। मेरी अपूर्व रूपमती सखी, शहर की सुप्रसिद्ध योगा इंस्ट्रक्टर अध्यात्म नहीं, बल्कि फ़्लर्ट पर चर्चा-परिचर्चा कर रही है। मैं हंसने लगी। जाने कहाँ से इतनी हिम्मत आ गयी थी! बोल पड़ी, “ये तुम नहीं हो, एक अति अभिमानी महिला है। बस अपनी अहम् की तुष्टि करती हुयी यह भूल गयी हो कि तुम्हारा असल वज़ूद क्या है? तुम किस कारण रची गयी? अपनी दो सुन्दर रचनाओं को क्या सन्देश दे पाओगी?”


वह खुश व आधुनिक दिखने की जितनी कोशिश कर रही थी, उतनी ही दुखी व अकेली नज़र आ रही थी। कुछ वर्षों पूर्व एक टीवी अवार्ड के प्रोग्राम में मैंने एक वरिष्ठ कलाकार को यह कहते सुना था कि मैं डेली सोप्स नहीं देखता। पति सेक्रेटरी के, दूधवाला पत्नी के, पत्नी वॉचमन के प्यार में पागल है, ये सब देख कर खुद की स्थिति पागलों वाली हो जानी है।


त्रिकोण नहीं, कई कोण है यहाँ। क्या सन्देश देना चाह रहे है, समझना मुश्किल है। सुधा के प्रति घंटे नए-नए पुरुष मित्रों के फ़ोन कॉल्स से मेरी भी मनोदशा कुछ ऐसी ही हो रही थी। उस पर बहुत गुस्सा आ रहा था, बस चिढ़कर इतना ही बोल सकी, “पत्नी हो तुम, पतन से रोकने वाली, पतिता मत बनों, क्या हुआ जो पति बेरुख हो गए? बात करो और परेशानियों को सुलझाओ।” इतनी खूबसूरत हो, इस खूबसूरती की तौहीन मत करो।”


फिर मुझे एहसास हुआ कि नर्म गालों से गर्म आंसू लुढ़क कर मेरी हथेली भिगो गये। मैंने भी उसे गले से लगा लिया। "रोने दो मुझे, आज मत रोको, मैं बहुत आगे निकल चुकी हूँ, अब वापस किस मुॅंह से लौटूं?” उसने पूछा!


“कुछ नहीं हुआ है, जब जागो तभी सवेरा, स्वयं को भावनात्मक टूटन से बचाना है, हम सारे कुछ ना कुछ के निमित्त, इस संसार में आये है। बस प्रदत्त समय व साधनों के साथ उसी उद्देश्य की पूर्ति कर जग छोड़ना है।” मेरी सूफी बातें उसकी समझ में आ रही थी। खूबसूरत मोम की गुड़िया देखते ही देखते पिघल कर, इंसानी वेश में आ गयी थी, मैं सखी को सही राह पर लाकर आत्मिक शांति पा गयी थी।


दोस्तों, हममें से कई लोग ऐसे है जिन्होंने इन हालातों को करीब से देखा है और महसूस किया है, अगर आपके कुछ अनुभव हो तो हमसे साझा करें। आपके विचारों की प्रतीक्षा में।


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