परिवर्तन का बोझ
परिवर्तन का बोझ
विजय करीब दस साल बाद आज अपने गांव आ रहा था।सारे रास्ते उसके साथ थी,अपने बचपन के वो खट्टी मीठी किस्से जो उसे जब तब अपने गांव याद दिला जाते थे।शहर की चकाचोंध में कही गुम हो जाने वाला उसका घर का हराभरा आँगन और गांव का वो पनघट आज फिर उसके मानस पटल पर साफ साफ उभर चुका था।अपनी यादों की उस सुनहरी यात्रा में।वो शहर से गांव कब पहुँच गया,उसे आभास ही न हुआ।पर वो जब अपने गांव पहुँचा तो उसे वहां का नजारा बिलकुल बदला हुआ लगा।कच्ची पगडंडियों की जगह सीमेंटेड सड़को ने ले ली थी।छोटे छोटे घरोंदों की जगह पक्के मकान थे।और उनमें रोशनी के लिये, उजालदान की जगह आकर्षक लाईट थी।वह अपने छोटे से इस गांव में विकास से आए इस परिवर्तन से खुश था।फिर उसे दिखा अपने गांव का वो वीरान पनघट जिससे कभी पूरा गांव पानी भरता था।जो अब पूरी तरह से सूख चुका था।ओर उसकी जर्जर दीवारे उसकी बदहाली की दास्तान सुना रही थी।घर के आँगन में खड़े सूखे ठूट जो कभी यहां हरियाली होने के गवाह थे।और पक्षियों के मधुर गुंजन की जगह था।गाड़ियों का वो कोलाहल जो उसके मन को खिन्न कर रहा था।सच अब उसका वो गांव, उसकी सुनहरी कल्पनाओ से बिल्कुल अलग था।फिर अनायास ही उसे अब अपने गांव का वो सुखद परिवर्तन बोझ लगने लगा।
