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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

परिचय - राम गुप्ता

परिचय - राम गुप्ता

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परिचय - राम गुप्तावारासिवनी में नहीं, आपका जन्म अमरावती महाराष्ट्र में हुआ था। आपको अमरावती से एवं मराठी भाषा से बहुत प्रेम था। मुझे पता नहीं आप किस क्लास के विद्यार्थी थे, जब वारासिवनी आए थे। मैंने आपको उच्चत्तर माध्यमिक विद्यालय में आने पर जाना था। आप हमसे एक वर्ष जूनियर थे और अपने बैच के स्कूल टॉपर हुआ करते थे। 

वास्तव में आपकी मम्मी का मायका वारासिवनी था। इस कारण आपका परिवार यहाँ आकर बस गया था। यह शायद 20 जुलाई 1969 के बाद की बात थी जब पहले अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग ने अपोलो 11 की उड़ान में चन्द्रमा की भूमि पर उतरने में सफलता पाई थी। 

आपके पापा गहोई वैश्य समाज के थे। उन्हें व्यवसाय के हुनर अच्छे से पता थे। अभी उनको कम पहचाने जाने वाले नए शहर में अपनी व्यवसाय की सफलता की बुनियाद रखना था। अतः उन्होंने बस स्टैंड में जब अपना रेस्टारेंट आरंभ किया तो तब के अति चर्चित, प्रसिद्ध नाम पर इसे ‘अपोलो रेस्टारेंट’ का नाम दिया था। 

इस नाम तथा अपनी सूझबूझ एवं मेहनत से उन्होंने अपने रेस्टारेंट को शीघ्र ही वारासिवनी में प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय कर लिया था। 

मैं वर्ष 1977 में रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने गया था। एक वर्ष बाद आपके पापा वहीं आपका एडमिशन कराने आपको लेकर आए थे। आपके पापा का मेरे बाबू जी से अच्छा एवं घनिष्ठ परिचय था। एडमिशन कराने के बाद शायद वे एक ही दिन रुके थे। वे अपने रेस्टारेंट से अधिक समय दूर नहीं रह सकते थे। अतः उस दिन उन्होंने आपको मेरे कमरे में, और मेरे भरोसे पर छोड़ कर विदा ली थी। 

तब आप मुझ से कद में काफी छोटे शायद 5’5’’ के थे। आपकी आँखें नीली थीं। आप मासूम से वह विद्यार्थी थे जिसका एकमात्र लक्ष्य अध्ययन और इंजीनियरिंग करने का था। आप मुझे सीनियर की तरह सर नहीं, अपितु ‘भैया’ बोला करते थे। कुछ दिनों तक मेरे साथ कमरे में रहने के बाद, आपको हॉस्टल रूम मिल गया और आप उसमें रहने चले गए थे। 

बी ई द्वितीय वर्ष के बाद, मैंने जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में ट्रांसफर ले लिया और ऐसे मैं 1979 में जबलपुर आ गया था। आपको तथा मेरे एक और परम मित्र ‘रवि झा’ को जब पता चला कि ऐसा कॉलेज ट्रांसफर लिया जाना संभव है तब एक वर्ष बाद 1980 में रवि और आप भी जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने आ गए थे। 

तब मैं इंजीनियरिंग के नहीं अपितु पीएसएम कॉलेज के हॉस्टल में रह रहा था। वास्तव में तब मेरे बुआ के बेटे रजनीश जैन, मनोविज्ञान महाविद्यालय में अध्यापन कार्य करते थे। उनके प्रयास से ही मुझे इस छात्रावास में कमरा मिला था। 

जब आप जबलपुर आए तो इस बार आपके पापा साथ नहीं थे। आप पुनः एक बार रायपुर की तरह, यहाँ भी पहले कुछ दिनों मेरे साथ, मेरे कमरे में रहे थे।

मैं इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग पढ़ता था। आपकी लगन पढ़ने में मुझसे अधिक थी जबलपुर आप “इलेक्ट्रॉनिक्स एवं टेली कम्युनिकेशन” में पढ़ने आए थे। वास्तव में म.प्र. के तत्कालीन (मात्र) 7 अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में जबलपुर ही एकमात्र कॉलेज था जहाँ इंजीनियरिंग की इस ब्राँच में कोर्स उपलब्ध एवं पढ़ाया जाता था। स्पष्ट है कि इसमें पढ़ने का अवसर, अध्ययन को अति समर्पित एवं कुशाग्र बुद्धि के छात्रों को मिलता था। 

बाद में जब मेरे बच्चे बड़ी क्लास में पढ़ने लगे तो अनेक बार मैं आपके पढ़ने की लगन और समर्पण के किस्से सुनाकर उन्हें इस प्रकार पढ़ने की प्रेरणा देता था। ऐसा क्यों था इसका उल्लेख मैं अब कर रहा हूँ।  

आप 1980 से 1982 (मेरी बी.ई पूर्ण होने) तक हमारे साथ पीएसएम छात्रावास में रहते थे। तब इस हॉस्टल में हमारा एक समूह था जिसमें आलोक जैन (मेरी बुआ का छोटे बेटे, जो मेरे क्लासमेट ही थे) रवि एवं रवि का छोटा भाई विमल झा (एग्रीकल्चर कॉलेज), आप और मेरा एक ग्रुप होता था। 

इन दो वर्षों के समय में आप हम सबसे घुलमिल कर रहते थे। हमारे समूह के बिना आपका कोई काम नहीं चलता था। इन सभी से कुछ अधिक, आपका प्रेम मेरे पर रहता था। कभी आपकी मन की अनुभूतियाँ आप अकेले में मुझसे शेयर करते थे। 

आपने बताया था कि तब की टीन ऐज में आपके हृदय में भी वारासिवनी की एक लड़की शायद नाम ‘नीलम’ था, के लिए प्रेम की कोपलें अंकुरित हुईं थीं। मैं अकेले में ही कभी उसके नाम की चर्चा करके आपको छेड़ा करता था। इससे आप लजाया भी करते और प्रसन्न भी होते थे मगर शब्दों में, मुझसे शिकायत करते हुए कहते - 

भैया मैंने अपने मन की आपको इसलिए नहीं बताई है। 

यह बात तो मजाक की थी। वास्तव में आपका मन पढ़ाई से कभी भटकता ही नहीं था। आप हम लोगों के बीच रहकर सब कुछ करते मगर पढ़ने में कोई ढ़िलाई या चूक नहीं करते थे। 

हो सकता है नीलम से आपकी प्रेम अनुभूति, वह प्रेरणा थी जो आपको ऐसा योग्य बनाने को प्रेरित करती थी कि आप जब नीलम से अपना प्रेम प्रकट करें तो वह अस्वीकार न करे। 

आप जबलपुर आकर आपकी बैच की टॉपर लड़की, लिपिका भट्टाचार्य के भी प्रशंसक हुए थे। 

आपके पापा की खुद रेस्टारेंट थी लेकिन किसी भी रेस्टारेंट में आप नाश्ता-चाय लाचारी में ही करते थे। आप कहते थे कि बाहर कुछ खाना, खाने योग्य नहीं होता है। 

आपमें सभी सद्-गुण थे, दुर्गुण कोई भी नहीं था। आप अपने पापा-मम्मी के लिए और स्वयं अपने लिए भी अपने उत्तरदायित्व समझते थे। मैंने आपमें विशेष गुण, इन दोनों वर्षों में यह देखा था कि शेष पूरे समय में हमारे साथ रहने वाले आप, एग्जाम के निकट आने पर, एक माह पूर्व से हम सभी से कट जाते थे। 

हम कॉलेज साथ जा रहे होते थे, मेस में साथ होते थे तथा वॉशरूम में भी आमने सामने पड़ जाते थे मगर आपकी आँखे उस समय में झुकीं रहतीं थीं। आप साथ रहकर भी हमसे बात करना तो दूर, दृष्टि मिलाने से भी बचा करते थे। हम कोई बात या मजाक भी करते तो आँखे झुकाए हुए ही आप मुस्कुरा ही दिया करते थे। तब आप बहुत भोले, मासूम और प्यारे लगते थे। 

आप थोड़ी भी एनर्जी बातों में नहीं खर्च करते थे। आप बातों से ध्यान भटकाव की रिस्क नहीं लेते थे। आप अपनी पूरी ऊर्जा एवं एकाग्रता तब सिर्फ पढ़ाई में लगाना चाहते थे। 

तब मैं कहता - राम तुम्हारी इस अदा पर लिपिका और नीलम भी मर मिटें। 

तब आप दृष्टि झुकाए हुए ही मुस्कुराते और मेरी बाँह से अपनी बाँह टकराते हुए मुझे नोंच लिया करते थे। 

यह आपकी मूक, वह अभिव्यक्ति होती जिसमें आप मुझसे अनकहे यह कह देते थे - भैया यह समय उनकी बातें करने का नहीं है, अपितु अपने करियर की बुनियाद मजबूत करने का है।

आप यद्यपि मुझसे छोटे थे तब भी मेरी प्रेरणा थे। 

छुट्टियों में हम वारासिवनी आया करते थे। आपके घर में ग्रामोफोन एवं मेरे घर में “टू इन वन” था। मैं अपने घर का ‘टू इन वन’ लेकर आपके घर जाता था। आप ग्रामोफोन पर रिकॉर्ड प्ले करते थे, मैं अपने कैस्सेट में उन्हें रिकॉर्ड किया करता था। हम इन साथ के पलों का भरपूर मजे एवं आनंद उठाते थे। मुझे स्मरण है आपको यह गीत बहुत पसंद था -

“तारों में सजके अपने प्रियतम से देखो धरती चली मिलने” 

1982 में जबलपुर और कॉलेज का मेरा, आपसे साथ दोनों छूट गया था। मैं जॉब करने बाहर चला गया। आपने 1983 में अपनी डिग्री पूरी की थी और आप सी-डॉट कंपनी में जॉब करने दिल्ली चले गए थे। 

तब ना ये मोबाइल थे और ना ही ये ईमेल, फेसबुक-व्हाट्सएप आदि, हमारा मिलना बाद में सिर्फ एक बार वारासिवनी में ही हुआ था। जिसमें आपने अपनी कंपनी की प्रशंसा और उसमें अपनी हैसियत बताई थी। 

मैंने कहा था - राम मुझे पता था, तुम वारासिवनी के सबसे सफल पूतों में से एक होगे। 

यह हमारी अंतिम भेंट थी। बाद के वर्षों में मुझे पता चला था आप शायद इसी या अन्य प्रतिष्ठित कंपनी में, जॉब करने यूएस चले गए थे। कुछ वर्षों बाद आपके पापा की अवस्था शिथिलता की आई थी। आपका परिवार नागपुर शिफ्ट हो गया था। 

मैं अपने बच्चों को आपका उदाहरण देते हुए प्रायः स्मरण करता रहा था। मेरे खोजने पर, आप फेसबुक पर भी कहीं नहीं मिले हैं। 

यदि आप मिलते तो मैं आपसे पूछता - राम, आपने अपनी योग्यता इतनी उत्कृष्ट कर ली थी, आपको बाद में कभी लिपिका या नीलम याद भी आई या नहीं?

खैर अब छोड़िए मजाक की इन बातों को, मैं आपका स्मरण करते हुए अंत में यही बस लिख रहा हूँ कि -

“आप विद्यार्थी जीवन कैसा होना चाहिए, आप उसके जीवंत एवं आदर्श उदाहरण थे”।    

आप जब भी मुझे याद आ जाते हो, मैं एक बार आपके पसंद का यह गीत “तारों में सजके अपने प्रियतम से देखो धरती चली मिलने” सुन लिया करता हूँ। 

आज आप अमेरिका में रहते हुए, कभी हमारा साथ याद करने की फुरसत भी पाते हैं या नहीं! इस पर मुझे संदेह है। 

अब बस मेरी यही कामना होती है, आप वारासिवनी का नाम एवं अमेरिका में भारत के उत्कृष्ट प्रतिनिधि की पहचान बनाए रखें। 


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