Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

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परिचय - डी ए बेन्डे

परिचय - डी ए बेन्डे

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परिचय - डी ए बेन्डे शीर्षक से कुछ अलग, इसे परिचय कम एवं आपके साथ के मेरे संस्मरणों के माध्यम से, आपके गुणों को दर्शाने का एक प्रयास बताना अधिक उपयुक्त होगा। 

जो भी व्यक्ति सत्तर के दशक के बाद छिंदवाड़ा जिले की सौंसर या पांढुर्णा तहसीलों में रहा है, वह अवश्य ही आपके नाम एवं सद्-गुणों से परिचित रहा है। साथ ही 1970 से 2006 के बीच जिन्होंने भी मप्रविमं में सर्विस की है लगभग वह हर व्यक्ति भी आपको जानता रहा है। 

यह स्थापित तथ्य है कि अधिकतर दो प्रकार के व्यक्ति, समाज में अधिक चर्चित होते हैं - एक वे जो अत्यंत भले ज्ञानी, एवं सद्-पुरुष होते हैं, एवं दूसरे वे जो अतिस्वार्थी, बहुत बुरे या गुंडा होते हैं। 

जब आपकी बात लिखी जाए तो मप्र के तकनीकी एवं विद्युतीय क्षेत्र में आपका चर्चित या पहचाना जाना, आपके ज्ञान, सद्-गुणों, दयालु, सहयोगी, कर्मठ और सादगी के कारण हुआ था। 

जून 1948 में अनंतराव जी बेन्डे के घर में, आपका जन्म अग्रज बेटे के रूप में हुआ था। आपके पिता जी एक अति उत्कृष्ट शिक्षक थे। उनसे आपमें कर्मठता, निष्ठा, धर्म एवं कर्तव्य - परायणता तथा दयालुता के संस्कार आए थे। 

आपने अपने जीवन में इस बात को भी पुष्ट किया था/है कि जिन परिवार में मुखिया सामाजिक एवं पारिवारिक दायित्वों को समर्पित होते हैं, उन परिवारों के बच्चे भी प्रतिभाशाली एवं कर्तव्य परायण होते हैं। 

आपके पिता जी के कृषक एवं शिक्षक पृष्ठभूमि वाले परिवार में, आप एवं आपके छोटे भाई का लालन पालन इस प्रकार हुआ था कि आप दोनों भाइयों ने अच्छी एवं उच्च शिक्षा की प्रेरणा ग्रहण की थी। 

यह वास्तव में हर माता पिता के हृदय में रहने वाला सपना होता है कि ‘उनके बच्चे सुखी, समृद्ध, प्रतिष्ठित एवं न्यायप्रियता से जीवन यापन करें’। अपने माता-पिता के हृदय में रहे ऐसे ही सपने, आप दोनों भाइयों ने साकार किए थे। 

सर्वप्रथम आप एवं आपके छोटे भाई प्रभाकर बेन्डे ने, लगन एवं एकाग्रचित्त अध्ययन में लग कर बारी बारी से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में बी. ई. की थी। एवं इसके बाद मप्रविमं में असिस्टेंट इंजीनियर के पद पर सेवाएं आरंभ की थीं। 

आपसे, मेरा प्रथम परिचय वर्ष 1988 में, तत्कालीन सहायक अभियंता, सौंसर अंबाडकर जी के घर पर हुआ था। तब मैं सहायक अभियंता, पांढुर्णा था। 

अंबाडकर जी ने, मुझे आपके परिचय में आपका नाम एवं एग्जीक्यूटिव इंजीनियर होना बताया था। आप सादगी प्रिय व्यक्ति थे। उस दिन जिस तरह के सादे वस्त्र एवं सैंडिल्स आपने पहने थे, उसे देख कर मुझे भ्रम हुआ था कि अंबाडकर जी के जल्दी जल्दी बोलने के कारण, मैंने आपका एग्जीक्यूटिव इंजीनियर होना गलत सुन लिया है। चायपान के बीच आप एवं मेरे में सामान्य शिष्टाचार की बातें हुईं थीं। फिर मैं इस बात को भूल गया था। 

उसी वर्ष बाद में आपने अपना स्थानांतरण जबलपुर से सौंसर करवाया था। ऐसा करवाए जाने का कारण, तब आपके वृद्ध पिता जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहना था। यहाँ यह उल्लेख उचित होगा कि मप्रविमं का मुख्यालय जबलपुर होने से, जबलपुर में पदस्थ कोई भी अधिकारी, सामान्यतः जबलपुर से किसी तहसील में ट्रांसफर पर नहीं जाना चाहता था/है। इसके अपवाद रूप में आपने, सौंसर आना पसंद किया था। यह करते हुए आपने, अपने पिता जी के संस्कारों की उत्कृष्टता सिद्ध की थी। 

आप एक बेटे के कर्तव्य निभाने के लिए तथा अपने पिताजी की यथोचित सेवा सुश्रुषा करने की भावना से सौंसर आ गए थे। यहाँ आकर आपने अपने विभागीय दायित्व निभाने के साथ साथ, एक कृतज्ञ पुत्र के दायित्व भी निभाए थे। आपने अंत समय में अपने पिता जी की सेवा सुश्रुषा की थी। 

मुझे लगता है आपकी इस भावना को समझते हुए तब आपके पिता जी ने, अपने हृदय में परम संतोष रखते हुए, इस संसार से विदा ली होगी। इस जगत से जाते हुए उन्हें, अपने स्वयं पर और आप पर गर्व रहा होगा कि उन्होंने आपका लालन-पालन परम त्याग भावना एवं उत्कृष्ट रूप से किया था। जिसके फलस्वरूप आपमें पिता के प्रति एक पुत्र का कर्तव्य बोध, पर्याप्त, प्रशंसनीय एवं अन्य सभी बेटे/बेटियों के लिए अनुकरणीय था। 

आपके पिता जी के निधन के बाद के कार्यक्रम में मैं तब सौंसर आया था। वहाँ मेरा आपको लेकर भ्रम दूर हुआ था। आपको ही मैंने एग्जीक्यूटिव इंजीनियर सौंसर पाया था। 

आप के सीधे मातहत होकर काम करने का सौभाग्य, मुझे वर्ष 1997 में मिला था। तब मैं अधीक्षण यंत्री कार्यालय, छिंदवाड़ा में, सहायक अभियंता था, आप अधीक्षण यंत्री के रूप में छिंदवाड़ा पदस्थ किए गए थे। 

आपके सानिध्य में काम करते हुए बाद के समय में, आपमें मुझे इस बात के प्रमाण साक्षात अनुभव करने मिले थे कि किसी में सरलता एवं सादगी के गुण, किसी उच्च पद के कर्तव्य निर्वहन में बाधक नहीं होते हैं। आपके अधीनस्थ काम करने का मेरा क्रम 2006 में आपकी सेवानिवृत्ति तक चलता रहा था। 

किसी दिन छिंदवाड़ा ऑफिस में, आपसे किसी बात पर मैंने कहा था - 

सर, जितनी सैलरी विद्युत मंडल में मिलती है, किसी व्यवसाय से उतनी आय के लिए या तो बहुत पूँजी लगानी पड़ती है या जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। यह सरल बात हममें से कई व्यक्ति क्यों नहीं समझ पाते हैं। हम सब सरकारी विभाग में जॉब लग जाए, पहले इसके लिए मरते हैं और जब जॉब लग जाए तब हम कामचोरी एवं भ्रष्टाचार करने लगते हैं। 

मेरी इस बात पर आप मुस्कुरा ही दिए थे। आपने मेरी इस बात का आशय/अर्थ समझ लिया था। आप यह समझ गए थे कि मैं आपके अधीन काम करने वालों में से एक विश्वसनीय व्यक्ति हूँ। 

तब आपने कार्यालय के मेरे वर्ग से असंबंधित भी अनेक कार्य, मेरे माध्यम से रुट करना आरंभ कर दिया था। इससे जब मेरे पर वर्क लोड अत्यंत अधिक बढ़ गया तो मैं परेशान होता था। 

आप यह समझते और मुझसे कहते थे - जैन साहब, जितना अधिक काम उतना अधिक सीखना होने के साथ उसके माध्यम से हमारा आत्मविश्वास भी बढ़ता है। 

आपके इस कथन में मेरे लिए प्रेरणा, और अधिक कर्मठ एवं कर्तव्यनिष्ठ होने की होती थी। 

आप किसी से कितना भी गुस्सा हो जाएं, अपने किसी अधीनस्थ कर्मचारी का कुछ बिगाड़ने में विश्वास नहीं करते थे। आपका व्यवहार, कामचोर एवं अविश्वसनीय कर्मियों से, कुछ अनूठा होता था। आप उस कर्मी के पास कम काम भेजने लगते थे। 

आप विश्वासपात्र कर्मी को काम का अधिक अवसर देते थे। 

ऐसा अनुभव करके कर्मियों में से कुछ, या तो स्वयं को उपेक्षित अनुभव करते हुए कर्तव्यनिष्ठ बन जाते थे या कुछ, आपकी अच्छाई को कमजोरी जैसी मानकर मजे करने लगते थे। आप सरल एवं निर्मल हृदय रखते थे। आप सोचते, उन कर्मियों की ऐसी कुबुद्धि को स्वयं वे ही अपने जीवन में भुगतेंगे। 

यह एक बात आप और मेरे में समान थी कि आप और मैंने अपने पूरे सेवा काल में, सिर्फ एक ही कर्मचारी की वार्षिक चरित्रावली में एडवर्स रिमार्क्स, उसे सूचित करवाया था। यह भी संयोग था कि इसका पात्र हमारे द्वारा एक ही कर्मचारी माना गया था। ऐसा रिमार्क्स पाने का उस कर्मी का सेवा वर्ष अवश्य अलग अलग रहा था। 

यह भी तब संयोग हुआ था कि वही कर्मचारी (जीवन, बदला हुआ नाम) पुनः जबलपुर से अपना स्थानांतरण छिंदवाड़ा कार्यालय में करवा कर आपके अधीन आ गया था। जीवन को आप और मेरे, दोनों से शिकायत थी। आपकी सिधाई का लाभ लेकर वह कोई कार्य नहीं करना चाहता था। इसके साथ ही वह व्यर्थ की बकबक से अन्य काम करने वालों के कार्य में विघ्न उत्पन्न करता था। 

तब मैंने एक बार आपसे कहा - सर, जीवन का ट्रांसफर आप छिंदवाड़ा वृत्त के बाहर करवा दीजिए। 

तब आपने कहा था - 

जैन साहब जिस आदमी को मैं नहीं चला सकता, वह किसी अन्य अधिकारी के पास भी चल नहीं पाएगा। हमें जीवन की पत्नी-बच्चों की दया रखना पड़ेगी। आप यह मानलो कि वह हमारे कार्यालय में है ही नहीं। 

इसके उपरान्त जीवन की पारिवारिक स्थिति पर दया करते हुए, आपने उसे उसके गृहनगर पांढुर्णा के कार्यालय में पदस्थ कर दिया था। 

एक दिन मैं पांढुर्णा बिलिंग सर्वर में खराबी आने पर, सर्वर पुनः कार्यशील करने के लिए पांढुर्णा गया था। तब मुझे पांढुर्णा कंप्यूटर कक्ष में आया देख, जीवन वहाँ आ गया था। मैं काम में व्यस्त था। वह आएं बाएं व्यर्थ की बकवास, मुझे सुनाने लगा था। 

तब इसी व्यर्थ की बातों में जीवन ने यह भी कहा था - बेन्डे साहब अपने आपको क्या समझते हैं, आप देखना किसी दिन मैं उनका मर्डर कर दूँगा। 

अपना काम करते हुए मुझे समझ आ गया था कि जीवन, आपका नाम प्रयोग कर मुझे भी धमका रहा है। सर्वर पर किए जा रहे काम से जब मैं फ्री हुआ तो मैंने उससे कहा - 

जीवन, आप बाहर आओ। हम बाहर बात करते हैं। यहाँ सब काम कर रहे हैं हमारे बीच की बातों से इनके काम में व्यर्थ व्यवधान होगा। 

मेरे साथ जब वह कंप्यूटर कक्ष के बाहर आया तब मैंने उससे कहा - जीवन, मर्डर की बात मत करो, तुम्हें करना ही है तो अभी मेरा मर्डर कर दो। मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूँ। 

इस पर जीवन ने कहा - मैं आपके नहीं, बेन्डे साहब के मर्डर की बात कर रहा हूँ। 

मैंने कहा - तुम उनका या मेरा, दोनों का कुछ भी बुरा नहीं कर पाओगे मगर व्यर्थ की ये बातें करके, तुम अपना दिमाग और करियर जरूर बिगाड़ लोगे। तुम्हें बात ऐसी करनी चाहिए, जो तुम्हारे एवं तुम्हारे बच्चों के हित में हैं। तुम बेन्डे साहब का एक सबक याद करके, उनके बाकी सब एहसान भूल रहे हो। तुम आज यहाँ हो तो स्वयं को उनका कृतज्ञ मानो अन्यथा अभी घर से 600 किमी दूर कहीं पड़े होते। 

जीवन की ये बातें मैंने आपको नहीं बताईं थीं। मुझे पता था जीवन की, अनावश्यक कृतघ्नता, आपको दुखी करेगी। 

जीवन और मेरे बीच की बातों के बाद यह अवश्य हुआ था कि फिर कभी मैंने या किसी अन्य ने, जीवन को ऐसी बड़बड़ करते नहीं सुना था। 

आपने कंप्यूटर कार्य के हमें मिले लक्ष्य में मेरे योगदानों को प्रोत्साहित करने के लिए मुझसे कहा था - जैन साहब, आप टार्गेटेड टाइम में यह काम पूरा कीजिए, मैं आपको 15 दिन पर्यटन पर जाने के लिए छुट्टी दूँगा। 

तब लक्ष्य अनुरूप उपलब्धि के लिए आप मुझे स्वतंत्रता दिवस पर पुरस्कार दिलवाना चाहते थे। 

आप कभी किसी को ऊँची आवाज में नहीं डाँटते थे। आप हर कर्मी में कर्तव्य परायणता प्रेरित करते हुए, विभाग के लिए उसका अधिकतम योगदान सुनिश्चित करते थे। 

जो विश्वासपात्र कर्मी होते थे उनका हर निर्णय एवं कार्य आपको मान्य होता था। मेरे द्वारा तैयार हर प्रस्ताव या पत्राचार को आप बिना पढ़े हस्ताक्षर करते थे। जिसे पढ़ने के लिए मैं स्वयं कहता, उसे अधिक महत्वपूर्ण मानकर आप पढ़ भी लिया करते थे। 

आप अत्यंत ही अधिक धर्म अनुरागी व्यक्ति थे। आप नागपुर रोड पर सावनेर के पास, सावंगी आश्रम में अत्यंत श्रद्धा रखते थे। आपके कई अधीनस्थ कर्मी भी वहाँ जाते थे। मैं वहाँ नहीं जाता था। इसके लिए आप मुझे कभी कुछ नहीं कहते थे। अपनी अपनी धार्मिक आस्था के लिए, आप सभी को स्वतंत्र मानते थे। 

सावंगी जाने वाले बताते थे कि वहाँ आश्रम में, आप बिलकुल संत सदृश हो जाते थे। आप वहाँ झाड़ू लगाने से लेकर, हर छोटा बड़ा कार्य करते, वहाँ आपके वस्त्र एक बाबा के तरह के होते थे। वहाँ आप ऐसे नहीं रहते थे, जिससे लोगों को आप एक इंजीनियर और उच्च पदस्थ अधिकारी लगते। 

2002 के दिस. महीने में लगातार कार्य से थककर मैं परिवर्तन के लिए, जेटकिंग से एक कंप्यूटर कोर्स हेतु मैं 1 माह का अवकाश लेकर मुंबई चला गया था। मुंबई से वापस लौटकर मैं ड्यूटी पर पुनः उपस्थित हुआ तब आपने मुझसे कहा - जैन साहब आपके नहीं होने से इस एक माह में वर्क डिस्पोजल बुरी तरह प्रभावित हो गया था। इस कारण मेरा ट्रांसफर जबलपुर हो गया है। 

इसमें पहली बात आपने मेरे योगदान का महत्व बताने के लिए कही थी जबकि दूसरी में उन्हें जबलपुर क्षेत्र के अतिरिक्त मुख्य अभियंता की बड़ी भूमिका मिलने की बात थी। 

सामान्यतः किसी उच्च पदस्थ अधिकारी के लिए, यह प्रसन्नता एवं गर्व करने वाली बात थी। आप अलग तरह के व्यक्ति थे। आपको अपने गृह जिले एवं सावंगी आश्रम से अत्यंत अधिक लगाव/श्रद्धा थे। आपके लिए अपना गृह जिला छिंदवाड़ा छोड़ना अप्रिय बात थी। 

यद्यपि आप में पर्याप्त प्रतिभा थी जिससे आप ऐसी कोई बड़ी जिम्मेदारी कुशलता एवं निपुणता से निभा सकते थे। नई जिम्मेदारी के साथ साथ आप गृह जिले की एक और सेवा करना चाहते थे। वास्तव में तब आप जबलपुर क्षेत्र के किए जा रहे दो खंड में से एक का मुख्यालय, छिंदवाड़ा में बनता देखना चाहते थे। आपका तर्क यह था कि इस नवनिर्मित खंड के अधीन छिंदवाड़ा के पड़ोस के जिले ही थे। 

आपका विचार अच्छा था मगर यह हो नहीं पाया था। दो खंड किए जाने पर भी इनके मुख्यालय जबलपुर ही रखे गए थे। आपको छिंदवाड़ा एवं इसके पड़ोस के जिले वाले खंड का कार्यभार दिया गया था। 

आपके जाने के तीन माह बाद मैंने, आपसे, मेरी जबलपुर पोस्टिंग का अनुरोध किया था। आरंभ में इस पर आपने मना कर दिया था। 

आपने कहा था - आपके हटने से छिंदवाड़ा के कार्य प्रभावित होंगे। 

मैं आगे आने वाले समय में, अपने बच्चों की उच्च शिक्षा का विचार करते हुए इस बात के लिए आग्रह (Insist) करता रहा था। अंततः आपने कॉर्पोरेट ऑफिस प्रस्ताव भेजा था। कॉर्पोरेट ऑफिस में विराजित संबंधित अधिकारी, इसके लिए कुछ दूसरा चाहते थे। जब उन्होंने यह नहीं किया तो आपने ही मुझे अस्सिटेंट इंजीनियर के रूप में जबलपुर ट्रांसफर कर दिया था। जबकि मैं टाइम बाउंड प्रमोशन स्कीम के तहत तब एग्जीक्यूटिव इंजीनियर था। 

आपका यह प्रक्रिया से हटकर (Out of way) किया गया कार्य, मुझे सहयोग (Support) था। मुझे आपके कार्यालय में काम करते हुए कुछ महीने हुए थे। मैंने अनुभव किया था कि जबलपुर की कार्य संस्कृति, छिंदवाड़ा से अलग थी। यहाँ कुछ पक्ष (Lobbying) बने हुए थे। 

पहले से जबलपुर में पदस्थ कुछ अधिकारी आपसे असहयोग करते थे। ऐसे में मेरी असंदिग्ध निष्ठा आपके लिए अच्छी बात थी। वहाँ अधिकतर स्टाफ, मुझे आपका दाहिना हाथ मानता था। स्टाफ में से एक, चौकसे जी काम के सिलसिले में, आपके कक्ष में जाते तब अक्सर आपसे मेरी प्रशंसा करने लगते थे। आप मुस्कुरा कर इसे सुना-अनसुना कर देते थे। जब यह बार बार होने लगा तब एक दिन चौकसे जी के पुनः यह करने पर, आपने उनसे कहा - 

चौकसे जी अभी आप जैन साहब के बारे में पूरा नहीं जानते हैं। उनको कभी कभी बहुत तेज गुस्सा आ जाता है। 

आपकी कही यह बात, चौकसे जी ने मुझे आकर बताई थी। 

मैंने आपसे कभी आपके आदर में कमी करने वाली कोई बात नहीं कही थी। फिर भी जब मैंने विचार किया तब मुझे एक प्रकरण स्मरण आया था। 

जब हम छिंदवाड़ा में थे तब एक बार, जबलपुर मीटिंग से लौट कर आने पर, आपने मुझे काम की लंबी लिस्ट दी थी। सूची में लिखे सब काम, अगले दो तीन दिन में पूरा करने कहा था। 

मैंने इस पर आपको बताया कि - इन काम को निबटाने में अधिक समय लगेगा। 

तब आपने कहा था - जुलानिया साहब कहते हैं कि काम नहीं कर सकते हो तो घर बैठो। 

मुझे समझ आ गया था कि जबलपुर की वह मीटिंग, आपके लिए अच्छी नहीं हुई थी। मैंने आपकी बात का नहीं अपितु जुलानिया साहब की टिप्पणी का प्रतिकार करते हुए आपसे कहा था - 

वाह, सर किसी का विवाह हो जाए और उसके दो बच्चे हो जाएं तो उसे ब्लैक मेल करने का यह एक अच्छा जरिया बन जाता है। 

आपने कोई उत्तर नहीं दिया था। मेरा एक इम्प्रैशन अपने मन में रख लिया था। 

मैं जबलपुर आने के बाद से ही चाहने लगा था कि मुझे कंप्यूटर की सीबीजी टीम में स्थान मिले। मैंने अपनी यह इच्छा अपने कुछ फ्रेंड्स से कही थी। एक दिन सीबीजी कोऑर्डिनेटर बी. आर. भटनागर ने हमारे ऑफिस में आकर, आपसे कहा था - 

यदि राजेश जैन को आप सीबीजी टीम में ट्रांसफर की अनुमति दें तो आरएमएस एप्लीकेशन के पूरे प्रदेश में प्रविस्तारण (Deployment) के कार्य में तेजी लाई जा सकती है। 

आपने भटनागर जी से नाराजी प्रकट करते हुए कहा - जैन साहब, अभी मेरे ऑफिस के लिए जरूरी हैं। आप इस संबंध में उनके नाम का विचार अपने दिमाग से निकाल दो। 

भटनागर जी के जाने के बाद आपने मुझे बुलाकर पूछा - क्या आप भटनागर से मिले हैं?

मैं भटनागर जी से नहीं मिला था। मुझे उत्तर देने में सुविधा हुई थी। मैंने कहा - जी नहीं सर, मैं भटनागर जी से कभी नहीं मिला हूँ। 

तब आपने मुझे बताया - भटनागर आपको कंप्यूटर टीम में लेना चाहता है। मैंने इसके लिए मना कर दिया है। 

यह समय सही नहीं था। मैं चुप रहा था। 

आपने अपनी सूझबूझ से जबलपुर की लॉबिंग जल्दी तोड़ दी थी। कुछ ही माह में मुख्य अभियंता के पद पर पदोन्नत हुए थे। तब पुनः एक किए गए, जबलपुर क्षेत्र के मुख्य अभियंता, आप हो गए थे। 

इसके साथ ही आप पूर्व क्षेत्र विद्युत कंपनी के लिए, विद्युत सुदृढ़ीकरण (आरएपीडीआरपी) प्रोजेक्ट के नोडल अफसर भी नियुक्त किए गए थे। आपने इस प्रोजेक्ट की प्रोग्रेस मॉनिटरिंग का (अतिरिक्त) काम भी मुझे दिया था। 

इसके दो माह बाद, अस्थाना साहब के आपके ऑफिस में पदस्थ होने पर, आपने मुझे इस कार्य में उनके साथ कर दिया था। कुछ दिनों बाद जब आरएपीडीआरपी के सप्लाई एवं वर्क कॉन्ट्रैक्ट के टेंडर का प्रश्न आया तब मैंने आपके पास आकर, इस कार्य में अपनी अनिच्छा बताई थी। आप जानते थे सामग्री क्रय या रुपयों से संबंधित कार्य से सीधे जुड़ना मुझे पसंद नहीं था। आपने मुझसे कहा - ठीक है, मैं किसी दूसरे ऑफिसर को इस काम में अस्थाना साहब के साथ कर दूँगा। 

उस समय आपके कक्ष में अस्थाना साहब भी थे। अस्थाना साहब ने कक्ष के बाहर आने पर मुझसे कहा - जैन साहब, नौकरी ऐसे थोड़ी होती है कि मैं यह करूँगा, यह नहीं करूँगा। 

आपने मेरी बात मान ली थी। अतः मैं खुश था। मैंने मुस्कुरा कर अस्थाना साहब से कहा था - 

सर अभी तक तो ऐसा करते हुए मेरी नौकरी चल रही है। जब नहीं चलेगी तब मैं कुछ और सोचूँगा।

इसी बीच एक और घटना भी हुई थी। लोकसभा चुनाव के नतीजे वाले दिन आप खुश थे। उसी दिन आरएपीडीआरपी की मॉनिटरिंग एजेंसी एनटीपीसी के एक अधिकारी आपके कक्ष में बैठे थे। अति उत्साह में आपने, उनसे अपने को एक पार्टी विशेष का समर्थक बताया था। 

मैं आपकी यह बात सुन रहा था। मैंने इसे आपकी चूक मानते हुए, उनके समक्ष कहा था - सर (आप) हैं तो इस पार्टी विशेष के समर्थक मगर अपनी कार्यशैली में इससे किसी के साथ कोई अंतर नहीं करते हैं। हर पार्टी के नेताओं की उचित अनुशंसा के कार्य आप समदृष्टि से पूरा करवाते हैं। 

वास्तव में आप सरल हृदय व्यक्ति थे। जबकि उस समय मुझे आशंका हुई थी कि एक अति जिम्मेदार पद पर रहने से, आपके ऐसे कथन का कोई बुरा प्रयोग भी कर सकता है। 

मेरी हिंट से आपको अपनी चूक का एहसास हुआ था। आपने उनसे हँसकर कहा था - जैन साहब, मेरे साथ कई वर्षों से कार्य कर रहे हैं। मुझे ये मुझसे भी अच्छी तरह से जानते हैं।   

आपका सी. ई. से एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर का प्रमोशन भी जल्दी हो गया था। तब मैंने वह समय उचित माना था और आपसे कंप्यूटर टीम में जाने की अपनी इच्छा बताई थी। 

आप ने कहा था - जैन साहब, अभी मुझे यहाँ आपकी जरूरत है। 

मैं कुछ कुछ दिन के अंतराल में आपसे इस हेतु कहता रहा था। अंततः अनमने होकर, आपने अपने हित पर, मेरी इच्छा को महत्व देकर, मुझे सीबीजी टीम में करने का आदेश कर दिया था। 

आप ऐसा मानते थे नाक की सीध में चलने का मेरा स्वभाव, मेरे लिए अन्य ऑफिस में कार्य करने के लिए बाधक बनेगा। आपने यह आदेश इस तरह किया था कि सीबीजी टीम को अटैच करते हुए भी, मुझे अपने एडमिनिस्ट्रेटिव कंट्रोल में रखा था। ताकि मेरे हितों की रक्षा, आपके हाथ में ही रहे। किसी समय यदि मैं सीबीजी में सामंजस्य ना बना पाऊँ तो आप मुझे अपने ऑफिस में वापस ले सकें।

आप अपने विश्वासपात्र एवं कार्य को समर्पित अधीनस्थ की व्यक्तिगत जरूरतों को समझते थे। आपने इस अवसर पर प्रमाणित किया था कि आपके लिए अपनी सुविधा से अधिक मेरी सुविधाओं का महत्व था/है। 

जब आप वितरण कंपनी में उचस्थ पद पर पहुँच गए एवं 2006 में आपकी सेवानिवृत्ति समीप दिखने लगी तब आपने पूर्व क्षेत्र कंपनी के सीएमडी होने की कोशिश की थी। 

तब तक सीएमडी पोस्ट पर आइएएस नियुक्त किए जा रहे थे। अतः मुझे आपकी इस कोशिश में सफल होने पर संदेह था। 

मैंने जब यह सुना कि इसके लिए आप जबलपुर के प्रभावशाली कुछ नेताओं से भी मिल रहे हैं तब मुझे यह बात अप्रिय लगी थी। मैं जानता था, आप सावंगी आश्रम में अत्यंत अधिक आदरणीय एवं श्रद्धा से देखे जाने वाले संत हैं। अपने तकनीकी एवं प्रबंधन के कार्य में कुशल-दक्ष भी हैं। ऐसे में क्यों आपको छोटा बनकर, किन्हीं नेताओं के दरबार में जाना चाहिए। 

मैं एक दिन आपसे मिलने, आपके ऑफिस में गया था। मैंने आपसे कहा था - 

सर, आप क्यों यह तुलनात्मक छोटे पद के लिए, कई छोटे बड़े नेताओं के सामने याचक होकर जा रहे हैं। आपने एक नेता जी के अनेकों कार्य किए हैं। उनसे आपके अच्छे रिश्ते भी हैं। आप उनसे अपने लिए सौंसर या पांढुर्णा के एमएलए का टिकट के लिए कहिए। आप वहाँ से सरलता से एमएलए चुने जा सकते हैं। एमएलए हो जाने पर आपकी विशिष्ठ योग्यताओं, ज्ञान एवं अनुभवों से आप को ऊर्जा मंत्री का प्रभार भी मिल सकता है। तब सीएमडी आपके अधीन होंगे। 

आपको मेरा यह कहना प्रिय तो लगा था फिर भी उदास होकर आपने कहा - जैन साहब, आप जानते हैं चुनाव लड़ने के लिए मेरे पास पैसा नहीं है। 

जी हाँ, आपने निःशंकित रूप से ईमानदार रह कर, अपनी 35 से अधिक वर्षों की नौकरी की थी। यह मैं जानता था। 

मैंने कहा - सर पांढुर्णा एवं सौंसर में आपकी लोकप्रियता एवं आपकी समाज इतनी है कि यदि आपको पार्टी का टिकट मिल जाए तो आप बिना पैसा लगाए भी निश्चित ही जीत जाएंगे। 

बात आई गई हो गई थी। जून 2006 में आप कार्यपालक निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हो गए थे। फिर आपने एमएलए की टिकट की कोशिश की थी। जिन नेता जी से रिश्ते पर आपको विश्वास था। उन्होंने आपकी इच्छा का सम्मान नहीं किया था। 

कदाचित् तब आपने यह कटु सत्य पहचाना होगा कि अधिकतर लोग हमें अपनी उन्नति के लिए प्रयोग करते हैं। प्रश्न जब हमारी उन्नति का आए तो भले एवं निकट लगने वाले रिश्तों का कटु सच सामने आ जाता है। लोग हमसे किनारा करने में विलंब नहीं करते हैं। 

फिर मुझे पता चला था कि नागपुर में आपने किसी कंपनी में सलाहकार (Consultant) की हैसियत से काम करना आरंभ कर दिया था। 

2008 में एक दिन आपका कॉल, मुझे आया था। आपने खुश होकर कहा था - जैन साहब आपका प्रमोशन हो गया है। एक वर्ष से अधिक हुआ आपने मुझे बताया भी नहीं है। 

मैंने उदासीनता से कहा - सर, 23 वर्ष के बाद का प्रमोशन, मुझे कोई उपलब्धि जैसा नहीं लगा था। इससे मुझे यह बात आपको बताने योग्य नहीं लगी थी। अब तक प्रमोशन का मुझे कोई क्रेज नहीं रहा है। वेतन मेरी जरूरत है, मुझे चपरासी के काम में भी यह मिले तो मैं उसे कर लूँगा। 

मेरा यह उत्तर मेरा सच था। हमारे पदोन्नति में विलंब में आपका कोई दोष नहीं था, यह आपका सच था। यह त्रुटिपूर्ण कंपनी पालिसी थी। आपने मेरी शब्दों में रुखाई अनुभव की थी। धैर्य से मेरी बात पूरी सुनने के बाद आपने कहा था - 

आपको नहीं मगर आपके प्रमोशन की मुझे बहुत खुशी है। 

आप मेरे तरह ही संवेदनशील व्यक्ति थे/हैं। मेरी अनावश्यक रुखाई, आपको भी सहन नहीं हुई थी। फिर आप अपने उत्तरदायित्वों में एवं मैं अपने उत्तरदायित्वों में व्यस्त हो गया था। 

यह मोबाइल कॉल अब तक का हमारे बीच अंतिम कॉल रहा था/है। 

अब आप 74 वर्ष के होने जा रहे हैं। अभी आप जहाँ भी हैं, मेरी यही हार्दिक कामना है कि आप स्वस्थ, सुखी एवं समृद्ध रहें। आपका परिवार निरंतर उन्नति पथ पर बढ़ता जाए। 

शीर्षक से अलग यह आपका परिचय न होकर, आपके सानिध्य में व्यतीत किए गए अनेक वर्षों के मेरे संस्मरण हैं। 

इसमें आपकी सरलता, सादगी, आपकी लगन, आपके जुझारू व्यक्तित्व, आपकी निस्वार्थ भावनाओं, आपकी निःशंकित ईमानदारी आपके तकनीकी ज्ञान एवं कुशल प्रबंधन का परिचय मिलता है। इसलिए मैंने इस शीर्षक अंतर्गत यह आलेख लिखा है 

एक सच लिखना भी यहाँ प्रासंगिक है कि आपके (स्व.) पिता की दृष्टि से (मरणोपरांत) उन्हें, परिवार में से सीएमडी होने की उपलब्धि, आपके माध्यम से तो नहीं मगर आपके छोटे भाई पी ए बेन्डे के माध्यम से मिली है। 

आपके इस अनुज भ्राता ने पॉवर ट्रांसमिशन कंपनी में तीन वर्ष का कार्यकाल जून 2020 तक कुशलता से निभाया था। उन्होंने ही मेरी स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति को स्वीकृति प्रदान की थी। 

अंत में मात्र यह बात कि आपमें अपने नाम अनुरूप गुण हैं। आपका नाम “दिवाकर” है। 

आप जहाँ होते हैं, वहाँ स्वस्थ एवं निःस्वार्थ परंपरा का दिन उदित कर देते हैं। 


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