परिचय - बशीर अली सिद्दीकी
परिचय - बशीर अली सिद्दीकी
आप (बी ए सिद्दीकी) मूलतः कटंगी (बालाघाट) के रहने वाले थे। आप कुशाग्रबुद्धि एवं अपने कार्य को पूर्ण लगन एवं निष्ठा से करने वाले व्यक्ति थे। आपके पिताजी की आपके स्कूल की शिक्षा के समय ही, असमय मृत्यु हो जाने से आप के परिवार की आर्थिक स्थिति विषम हो गई थी। आपने इसे समझा था कि आपके खुद के कमाए बिना परिवार का उदर पोषण संभव नहीं है।
ऐसे में पढ़ने में कुशाग्र होते हुए भी, आप अपनी स्कूली शिक्षा (11 वीं तक की) ही पूरी कर पाए थे। इसके बाद आपको नौकरी में लग जाना पड़ा था। पढ़ाई छोड़ना आपकी कॉलेज पढ़ने की महत्वाकांक्षा के विपरीत बात थी। आप का ग्रेजुएट होने का सपना अधूरा रहा था। आपने सरकारी स्कूल में शिक्षक के लिए आवेदन किया था। आपको यह नौकरी मिल गई थी।
आपके दर्शन मैंने पहली बार मार्च 1971 में तब किए थे, जब आप हमारी पाँचवीं कक्षा में, हमारे स्कूल में आए थे। आप हमारे प्राथमिक शाला के, बरेले गुरु जी के दोस्त थे। हमारी क्लास में, बरेले गुरु जी ने आपका परिचय, बी ए सिद्दीकी के नाम से करवाते हुए कहा था - चार महीने बाद आपमें से जो विद्यार्थी टिहलीबाई शासकीय माध्यमिक शाला में पढ़ने जाएंगे, वहाँ आप विद्यार्थियों को सिद्दीकी सर मिलेंगे।
आप हँसमुख और मृदुल व्यवहार करने वाले व्यक्ति थे। आप हम बच्चों से उस दिन हँसते हुए मिले थे।
1 जुलाई 1971 को, मैं टिहलीबाई शासकीय उच्चतर माध्यमिक शाला में पढ़ने गया था। इस स्कूल के पहले दिन, मैं इस बात से निराश हुआ था कि छठी कक्षा में मेरा नाम “ई” सेक्शन में आया था। यह मुझसे किसी ने कहा था या मेरा स्वयं का भ्रम था कि अच्छे विद्यार्थी ए, बी और सी सेक्शन में रखे जाते हैं।
मैं उदास मन से छटवीं ई वर्ग की कक्षा में पहुँचा था। इस वर्ग में मेरे पिछले स्कूल से एक ही सहपाठी मनोज गौतम था। बाकी अधिकतर बच्चे वारासिवनी पीले स्कूल (शासकीय शाला) से आए थे। बहुत से छात्र आसपास के उन गाँव के भी थे जिनके गाँव में प्राथमिक के बाद के स्कूल नहीं थे। ये छात्र कई कई किमी पैदल चलकर पढ़ने आए थे।
उस दिन उदासमना होकर मैं अपनी कक्षा में बैठा था। संयोग यह हुआ था कि छह सेक्शन के अलग अलग क्लास टीचर में से, हमें अपने वर्ग के क्लास टीचर के रूप में आप मिले थे।
वर्ग ‘ई’ खराब है का यह मेरा भ्रम कुछ ही दिन में दूर हो गया था। आप स्कूल के बेस्ट टीचर थे। साथ ही इस वर्ग में, मेरे साथ पढ़ने वाले विद्यार्थी यद्यपि मेरे लिए नए थे लेकिन बहुत अच्छे थे। राकेश अग्रवाल, विजय खंडेलवाल, विजय हरडे, संदीप पुंडलीक, पुलकित तिवारी और राजेश जैस्वाल उन छात्रों में से थे।
आपका व्यवहार हम विद्यार्थियों के साथ इतना अच्छा था कि आप जिन जिन विषयों को पढ़ाते, कक्षा में उन्हें हम एकाग्रचित्त होकर पढ़ते थे। हमारा ध्यान कहीं और नहीं भटकता था। प्राथमिक स्कूल में, मैं एक फिसड्डी छात्र रहा था। यह शायद आपकी पढ़ाने की शैली थी जिसके कारण मेरा मन पढ़ने में लगने लगा था। सबसे पहले जिस विषय में मेरा सुधार होना शुरू हुआ था वह गणित था। यह विषय आप पढ़ाया करते थे।
पढ़ने में मन लगने से मेरा आत्मविश्वास बढ़ने लगा था। ऐसे में जिस दिन, आपने कक्षा नायक और उपनायक का चुनाव करवाया तब मैंने उपनायक के लिए अपना नाम दिया था। मैं, विजय से एक वोट अधिक (13) लेकर जीत गया था। जबकि ‘राकेश’ अधिकतर सभी विद्यार्थियों के मत प्राप्त करके कक्षा नायक बना था।
यही राकेश अग्रवाल मेरा वह दोस्त था जो आगे के छह वर्षों में मेरे साथ एक ही वर्ग में पढ़ता था। राकेश ही, लगभग सभी कक्षा में स्कूल टॉपर हुआ था। स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह सबसे अच्छे कॉलेज (एमएसीटी, भोपाल) पहुँचा था।
मुझे लगता है यह आपकी ही दी अध्ययन की ठोस बुनियाद का परिणाम था कि राकेश यह कर पाता था तथा मैं भी उत्तरोत्तर अच्छा विद्यार्थी होता गया था।
कक्षा में अनुशासन सुनिश्चित करने का आपका निराला ढंग होता था। आप कई तरह की जिम्मेदारी अलग अलग विद्यार्थी में बाँट देते थे। हम सभी फाउंटेन पेन से लिखा करते थे। जो विद्यार्थी स्कूल के पहले अच्छी तैयारी करके नहीं आते थे उनके पेन की स्याही प्रायः कक्षा चलने के बीच खत्म हो जाती थी। आपने एक छात्र को स्याही मंत्री बनाया था। उसी दिन, हममें से जिन छात्रों के पास पैसे थे, उनसे एक बार स्वैच्छिक रूप से चंदा लेकर, आपने कैमल इंक की एक बोतल खरीदवा दी थी।
कक्षा का स्याही मंत्री, एक पेन के लिए पाँच पैसे लेकर, ड्रॉपर से स्याही भर दिया करता था। ऐसे ही एक सफाई मंत्री भी होता था, जो इस बात की चौकसी करता कि कोई छात्र कक्षा में कचरा न फैलाए। इसी तरह कुछ और भी मंत्री आपने बनवाए हुए थे।
स्याही से हुई आमदनी के साथ, हम छात्रों से और कुछ पैसे चंदा लेकर आप कभी कभी नमकीन एवं पेड़े बुलवाकर पूरी क्लास को खिलाते और खुद भी साथ साथ खाते थे।
घर में हमारी मम्मी को रसोई और गृहकार्यों की तथा बाबू जी को व्यापार कार्य की अति व्यस्तता होती थी। उन्हें कम ही समय मिलता कि वे हम चार बच्चों के अध्ययन की प्रगति मॉनिटर कर पाएं। बाबूजी ने तब मुझे आपकी ट्यूशन में भेजना शुरू किया था। मुकेश माडल, मनोज गौतम और मैं हम तीन विद्यार्थी, आपके घर एक घंटा ट्यूशन पढ़ने के लिए जाते थे। आप 25 रुपए हर महीने लेकर अपने घर में हिंदी और संस्कृत छोड़कर हमें सभी विषय पढ़ाया करते थे। मनोज के पिताजी किसी दूसरे स्कूल में टीचर थे इसलिए आप मनोज से यह शुल्क नहीं लेते थे।
आपके घर जाते हुए मुझे आपकी बहुत सी बातें ज्ञात हुईं थीं। आप तब 28 वर्ष के थे। आपके साथ आपकी अम्मी, पत्नी और एक बेटी फरजाना (उस समय 2-3 वर्ष की थी) रहतीं थीं।
आपके वस्त्र में शर्ट विशेष स्टाइल की होती थी। जिसमें कमर पर दोनों ओर 2-3 इंच लंबा कट होता था। एक समय में आपके पास अच्छी हालत में पेंट-शर्ट की सिर्फ दो ही जोड़ियाँ होतीं थीं। इन कपड़ों में इस्त्री आप स्वयं करते थे।
आपकी साइकिल बीएसए कंपनी की थी। आप खुशी से बताते थे कि यह ही मेरा नाम है, बस इसमें ‘एस’ आखिरी में नहीं बीच में लिखा गया है। आपको ग्रेजुएट नहीं होने का रंज रहता था फिर भी आप हँसकर हमें बताते कि - मैं तो नाम से ही ग्रेजुएट हूँ। देखो मेरे नाम बी.ए. सिद्दीकी में ही डिग्री है।
हमें आपकी हर बात अच्छी लगती थी। आपका व्यवहार बहुत अच्छा होता था। आप हँसते मुस्कुराते हुए ही हमें पढ़ाते एवं हमसे बातें किया करते थे। कोई चीज हमें समझ नहीं आती तो आप बार बार समझा कर उसे क्लियर करते थे। आपको कभी गुस्सा नहीं आता था। आप अपने घर में अपनी अम्मी, पत्नी और बेटी से बहुत ही मृदुल शब्दों के प्रयोग करते हुए स्नेहपूर्वक बात करते थे।
माध्यमिक स्कूल में ही एक हमारे संस्कृत के सर थे, वे अधीर होकर गुस्सा किया करते थे। वे किसी कारक रचना के आठ पद (कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्ध, अधिकरण और सम्बोधन) में से, जो छात्र जितने कम कंठस्थ करता और पूछने पर कह नहीं पाता था, उसकी हथेली पर उतनी ही खड़ी छड़ी मारते थे।
उनका प्रहार इतना पीड़ा देने वाला होता कि विधार्थी को अगली छड़ी की मार झेलने के लिए अपनी हथेली खोलने में रोना आ जाया करता था। संस्कृत में मुझे बहुत कम मार्क्स मिला करते थे। कदाचित् मैं उनके पढ़ाए जाने पर ध्यान नहीं लगाकर इस बात का ध्यान कर घबराया करता था कि पता नहीं आज कितनी छड़ी खानी पड़ेंगी।
आप उनसे भिन्न शिक्षक थे। आप प्रेम एवं प्रेरणा के व्यवहार से, हम छात्रों को मन पढ़ने में एकाग्र करने का कार्य करते थे।
मेरे पढ़ने में लगने लगे चित्त का कारण पहचान कर, बाबूजी ने मेरी बड़ी और छोटी बहन की ट्यूशन के लिए भी आपसे कहा था। मेरी बहनें पढ़तीं, अतः आप अपने घर में नहीं अपितु हमारे घर आकर पढ़ाने लगे थे। फिर मुकेश माडल की बड़ी, छोटी बहनें और भाई भी, आप से पढ़ने लगे थे। तब आप कभी हमारे घर या कभी मुकेश के घर, हम सब को इकट्ठा पढ़ाया करते थे। आप अलग अलग कक्षा के इन सब बच्चों को एक साथ पढ़ा लिया करते थे। अब मैं समझ सकता हूँ कि सब कक्षा/विषय को पढ़ाने के लिए आप स्वयं कितना पढ़ते होंगे।
यह आपका किया चमत्कार था कि मैं पाँचवीं तक कक्षा में 30 के बाद का स्थान पाने वाला लड़का, आपका शिष्य होकर छटवीं में चौथे स्थान पर आ गया था।
सातवीं कक्षा में भी आप ही हमारे क्लास टीचर थे। 1971-1974 का समय, वह समय था जब आप मेरे आदर्श और हीरो थे।
जब कोई हमारा आदर्श होता है तब हम उसकी कुछ नकल अवश्य करते हैं। मेरे लिखने में एवं कहने में “चूँकि” शब्द आपकी नकल करते हुए आया था। आप इसका प्रयोग बहुत बार करते थे। आप का हिंदी का इ अक्षर लिखने का ढंग भी विशेष था। आप इसे लिखने के लिए हिंदी का ३ लिखते और फिर उसके ऊपर रेखा खींच देते, मैंने इसकी भी नकल की थी।
हम शायद सातवीं कक्षा में थे, जब आप अपनी दूसरी बेटी रेहाना के भी अब्बा हुए थे।
आप मुस्लिम थे लेकिन हमारे होली में रंग ड़ालने पर, खुशी से हमारी भावनाओं को समझते हुए होली खेलते थे। आप पान में जर्दे के शौक़ीन थे। जब आप पान चबाते हुए हमें पढ़ाते तब आपके मुँह से जर्दे की खुश्बू आया करती थी। आपका हर काम तसल्ली से होता था, आपमें धैर्य एवं अनुशासन अत्यंत अनुकरणीय गुण था। अनुशासन के लिए आप कभी कड़ाई नहीं करते अपितु अनुशासन का सुनिश्चय आपके द्वारा स्नेह एवं प्रेरक व्यवहार से होता था।
उस समय में 75% से अधिक अंक लाना, मेरिट में पास होना कहा जाता था। आठवीं कक्षा में मैं पहली बार इसके निकट पहुँच पाया था। मुझे स्मरण है 1974 की आठवीं की संभागीय बोर्ड की परीक्षा में मुझे 500 में से 368 अंक प्राप्त हुए थे। लिखना न होगा इसमें आपका अध्यापन एवं आपसे मिली प्रेरणा प्रमुख कारण थे।
आप वास्तव में वह शिक्षक थे, जिसके चरित्र एवं अध्यापन से शिक्षक परिभाषित होते हैं। आप वह गुरु थे, जो शिक्षक दिवस एवं गुरु पूर्णिमा पर श्रद्धापूर्वक स्मरण में आते हैं। आप वह नागरिक थे, जिनसे ‘राष्ट्रनिष्ठ’ का विशेषण शब्द बनता है।
1977 तक वारासिवनी में ही पढ़ते हुए मेरी आपसे कभी कभी भेंट हो जाती थी। मेरी उपलब्धियों को सुनकर आप मेरी प्रशंसा करते हुए मेरा मनोबल बढ़ाया करते थे। ग्रेजुएट नहीं होने से आप लोअर डिवीज़न टीचर थे, मगर अनेक अपर डिवीज़न टीचर से अधिक अच्छे और श्रेष्ठ थे।
1977 के बाद मैं इंजीनियरिंग में पढ़ने एवं तत्पश्चात जॉब में बाहर रहने लगा था। मुझे स्मरण नहीं कि इस बीच, मैं फिर कभी आपसे भेंट कर पाया था।
यह आपका दिया शिक्षण संस्कार था, जिससे संस्कारित होकर बाद के समय में मैंने यह निष्कर्ष निकाला था कि भयाक्रांत करके, हम किसी से अधिक अच्छा कार्य नहीं करवा सकते हैं। हमारे अधीनस्थ कोई व्यक्ति, जब तनावों एवं चिंता से मुक्त रहता है तो अधिक एफिशिएंसी से कार्य किया और परिणाम दिया करता है। मैंने बॉस होकर अपने अधीनस्थों से ऐसे ही प्रेम और प्रेरणा के माध्यम से, उनका अधिक से अधिक योगदान, अपने विभाग को दिलवाया था।
यह शायद वर्ष 1988 था, जब मुझे अवकाश में वारासिवनी पहुँचने पर ज्ञात हुआ कि आपका सिर्फ 44 वर्ष (अल्पायु) की अवस्था में निधन हो गया था। यह मेरे लिए अत्यंत अधिक दुःख का कारण था। आपने कैंसर रोग से ग्रसित होकर अपना जीवन खोया था। शायद यह रोग आपको पान के साथ खुश्बूदार जर्दे के सेवन से हुआ था।
मैं सोचता था कि काश! आप पूरी आयु जी पाते तो हम जैसे अनेक विद्यार्थी की शिक्षा बुनियाद मजबूत बना पाते। मुझे पता नहीं आपके बाद आपकी अम्मी पत्नी एवं दोनों बेटियों, फरजाना एवं रेहाना ने क्या मुसीबतें झेलीं होंगी। काश आप पूरा जीवन जीकर उनको भी इन विपत्तियों से बचा पाते।
यह ईश्वर की मुझ पर कृपा है कि मुझे अपनी इस अवस्था में पहुँचकर इतनी तसल्ली मिली है कि मैं आपका परिचय अपने मित्रों को पढ़ने के लिए लिख पा रहा हूँ। आप तो रहे नहीं हैं मगर पढ़ने वाले यह भली भांति समझ सकते हैं कि -
अपने सद्-कार्य के माध्यम से कोई सद्-पुरुष, कैसे किसी अन्य के हृदय में जीवित रह लिया करता है। अब 34 वर्ष हुए हैं आप नहीं रहें है, 48 वर्ष हो गए तबसे मैं आपका सीधा शिष्य नहीं रहा हूँ।
तब भी आप मेरे हृदय में एवं मेरे कृतज्ञ भाव में, अभी भी विराजमान रहते हैं। मैं सोचता हूँ मनुष्य का आत्मिक रूप, अरूपी होता है। हम करोड़ों व्यक्तियों को अपने हृदय में स्थान दे सकते हैं। शर्त बस इतनी सी होती है कि कोई आप जैसा सद्-कार्य करने वाला सद्-पुरुष तो हो।
आपको आज, आपके शिष्य ‘राजेश’ का व्यक्त रूप से शत शत नमन, आदरणीय सर, ‘बशीर अली सिद्दीकी’!
