प्रेम की सत्य कथा (गुलाबी)
प्रेम की सत्य कथा (गुलाबी)
प्रेम की भी कोई कहानी होती है क्या? प्रेम अनंत अनादि और शाश्वत होता है प्रत्येक जीवन की कहानी तो हो सकती है, लेकिन प्रेम कैसे कहानी में गुथ सकता है। इस बात पर तो संशय होता है। प्रेम का पहला अध्याय तो मां की गोद से शुरू होता है, मां जब अपने नन्हे बालक को पहली बार छूती है तो दोनों और से प्रेम का अद्भुत स्रोत बह उठता है। अपनी सबसे अद्भुत रचना देखकर मां भाव विह्वल हो जाती है और बालक जब मां की उंगली अपने हाथ में लेता है तो प्रेम अपनी सारी सीमाएं तोड़ जाता है उसको कोई कवि या लेखक या चित्रकार कैसे प्रस्तुत कर सकता है।
प्रेम साथ मरने का भी नाम नहीं है। प्रेम तो खुद एक जीवन है। प्रेम साथ जीने का भी नाम नहीं है। प्रेम अपने आप में महान हैं उस पर कुछ भी लिखना असंभव सा महसूस होता है --------
मां की गोद से उतरकर जब पहली बार स्कूल में गए थे, तो आज भी याद आते हैं वह नन्हे नन्हे हाथ, जो सिर्फ मुझे बचाने के लिए ही पेंसिल मेरे हाथ में रख गए थे, कि कहीं मैडम की डांट मुझे ना पड़े, उसने अपनी पेंसिल मुझे दे दी थी और खुद छोटी सी पेंसिल से लिखता रहा था । तब प्रेम का कोई भी रूप हमें नहीं पता था पर हां!" समर्पण की भावना", इसका मतलब जन्मजात होती है क्या? अपनी गुल्लक तोड़कर भाई को पैसे देना और उसके सपने पूरे करना क्या यह प्रेम का प्रतिरूप नहीं है? -----------------
तरुणाई में जगे कुछ नए सपने और सुंदर बन कर एक दूसरे को रिझाने की चेष्टा, इसी का नाम प्रेम है क्या? ट्यूशन में अपने आप को सबसे अच्छा दिखाने के लिए रात रात भर पढ़ना, और एक दूसरे के सामने सबसे अव्वल और सबसे होशियार बनना, क्या इसका नाम ही प्रेम था ? शायद उसी सच्चे प्रेम का परिणाम था कि, "जीवन में कुछ भी ग़लत केवल इसलिए ही नहीं कर पाए "कि कहीं एक दूसरे को बुरा ना लगे। एक दूसरे को रिझाने की खातिर कितनी परीक्षाओं में अव्वल आए, पता ही नहीं।-----------------------
समय अपनी अनवरत गति में चलता रहा। प्रेम तो शायद कुछ और ही था, जो कुछ करने ही नहीं देता था हर समय अकारण ही सिर्फ एक इच्छा ,एक दूसरे को देखने की और एक दूसरे को मिलने की होती थी। लेकिन शायद यह भी प्रेम नहीं है, अगर होता तो कोई भी बंधन तोड़ कर वे दोनों मिलते जरूर। दोनों अपने अपने रास्ते ना पकड़ लेते। जीवन में, "खुद के मन के बाहर" कहीं तो, कभी तो", एक दूसरे का रास्ता रोकते, पर किसी ने भी ऐसा नहीं किया। कोई किसी के रास्ते में नहीं आया, अपने अपने रास्ते दोनों चलते रहे, यह तो प्यार नहीं होता शायद!----------------------
संसार के रिश्ते में बंधा हुआ प्रेम उतना ही सच्चा होता है जितनी रेल की पटरियां, जो चाहे कितनी भी दूर हो लेकिन अगर जुड़ी ना हों तो रेल चल नहीं सकती, ऐसे ही, जीवन में मिला यह प्रेम जिसको स्थायित्व देने की बहुत आवश्यकता है। क्योंकि जीवन रूपी गाड़ी चलाने के लिए पटरी के दोनों किनारों की मजबूती बहुत जरूरी है। अनवरत साथ चलते हुए हर छोटी-छोटी कठिनाई को दूर छोड़ते हुए, रास्ते में मिलने वाले हर रिश्तेदार, बच्चे, सुख, दुख सब पटरियों के जैसे छूटते रहते हैं, मिलते रहते हैं, क्या दोनों किनारों की मजबूती ही प्रेम है? ----------------
शायद नहीं, क्योंकि कई बार किनारों को भी उधड़ता हुआ देखा है। दूसरे बाकी बचे किनारे की मजबूती, दूसरे किनारे के होने की अनुभूति तो करवाती है, पर जीवन रूपी गाड़ी तो ठहर ही जाती है।
वास्तव में प्रेम पानी की तरह होता है जैसे पानी केवल एक लक्ष्य लेकर चलता है कि उसे सागर में विलीन होना है, और जब सागर मिल जाता है तो पानी पानी नहीं रहता सागर हो जाता है, इसी तरह से प्रेम भी प्रकृति में समाहित एक लक्ष्य है। लक्ष्य में निर्भरता नहीं होती। संसार के सारे भावों को छोड़कर जिसने इस प्रेम को पा लिया हो, वह कभी कोई कथा या व्यथा लिख सकता है क्या ? शायद नहीं, कभी नहीं। प्रेमी केवल प्रेम ही देखता है, और सब के लिए एक ही इच्छा रखता है, कि सब का हृदय भी प्रेम से परिपूर्ण हो।
