प्रायश्चित
प्रायश्चित


अयोध्या के राज परिवार की दासी मंथरा ने जब यह सुना कि राजा दशरथ ने अपने बडे पुत्र राम को अयोध्या का राजा बनाने का निश्चय कर लिया है।
तो कुटिल बुध्दि मंथरा को यह न सुहाया। वह कैक ई को प्रिय थी और वह उस पर बहुत भरोसा करती थी।
वह कैक ई की बुद्धि में यह बात डालती है कि ' यदि राम राजा बन गये तो तुम नाम मात्र की रानी बनकर रह जाओगी और तुम्हें कौशल्या की दासी बनकर सारा जीवन बिताना होगा। '
रानी कैक ई यह सुनकर तिलमिला जाती है और कहती है ' मैं ऐसा न होने दूंगी।'
और मंथरा से कहती है ,' अब तू ही बता अब मुझे क्या करना चाहिए ?
इस पर मंथरा उसे कहती है ' अरे ! मेरी भोली रानी क्या तुम भूल ग ई जब देवासुर संग्राम में तुमने अपने साहस व युक्ति से राजा दशरथ के प्राण बचाये थे और उन्होंने तुम्हें दो वर देने का वचन दिया था।अब तुम्हें वही दो वर राजा से मांग लेना चाहिए।एक - तुम्हारे पुत्र भरत को राजा बनाना और दूसरे राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास। '
और फिर रानी कैक ई कोपभवन में जा बैठती है और जब राजा दशरथ उन्हें मनाने आते हैं तो वह उन्हें दो वर देने की बात याद दिलाती है।
इस पर राजा दशरथ उससे कहते हैं, ' हां,मुझे याद है रघुकुल वंश के लोग एक बार जो वचन देते हैं।वह वे अपने प्राण देकर भी उसका पालन करते हैं।'
' तुम मांग लो ,तुम्हें जो मांगना हो।'
कैक ई उनसे कहती है ' देखिए महाराज अब आपने मुझे वचन दे दिया है।अब अपनी बात से पीछे न हटना।'
और तब कैक ई उनसे दो वर के रूप में,भरत को राजा बनाने व दूसरे में राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास जाने का प्रस्ताव रखती है। '
यह सुनकर राजा दशरथ को बहुत दुख होता है क्योंकि राम तो उनके प्राणप्रिय पुत्र थे वे उसे कैसे वन जाने की आग्या दे दे।
परंतु इस वचन के पालन के लिए राम,लक्ष्मण और सीता वन की ओर चले जाते हैं।
और अपने प्रिय पुत्र राम के वियोग में राजा दशरथ का स्वर्गवास हो जाता है।
ननिहाल से भरत - शत्रुघ्न को बुलाया जाता है और जब उन्हें अपने पिता के स्वर्गवास व प्रिय भ्राता राम को वनवास भेजने में मंथरा की दुर्बुध्दि और माँ कैक ई का सारा दोष दिखाई देता है।
शत्रुघ्न कुटिल बुध्दि मंथरा को दंड देकर घर से बाहर निकाल देते हैं और भरत ,उसके बाद से अपन अपनी माँ कैक ई के कक्ष में न जाने का प्रण ले लेते हैं और नंदीग्राम में राम की पादुका को सिंहासन पर रखकर राज्य का कारभार देखते हैं।
चौदह वर्ष के वनवास के बाद राम का राजतिलक होता है। अयोध्या में दीपावली का त्योहार मनाया गया।सब हर्षित हैं।सबमें दान - दक्षिणा और वस्तुएं राम - सीता भेंट करते हैं और जब वे मंथरा के संबंध में पूछते हैं।' सब दिखा ई दिये परंतु मंथरा न दिखाई दी।वह कहा हैं माता उर्मिला कहती है कि ' वह आपके वनगमन के बाद से अपने कक्ष से ही बाहर नहीं आती है। '
माँ कौशल्या कहती हैं कि ' बेचारी पिछले चौदह वर्षों से प्रायश्चित की आग में जल रही है।'
फिर करुणानिधान राजा राम सीता व लक्ष्मण से अपने साथ आने को कहते हैं।
मंथरा के द्वार पर पहुंचकर आवाज़ देते हैं।
' माई मंथरा '।
मंथरा आवाज़ देती है ,मुझे किसने पुकारा। कौन है ?
राम - ' माई,मैं तुम्हारा राम हूं।'
मंथरा - राजा राम आप आ गये।मैं चौदह वर्ष से आपकी राह देख रही हूँ।आप मुझे दंड दे ,मैं आपकी अपराधी हूं। मुझे दंड दो।यहां मुझे कोई दंड नहीं देता है।'
फिर लक्ष्मण से ' लखन जी ,तुम मुझे दंड दो।'
लखन कहते हैं, ' माई राजा राम तुम्हें आदर सहित अपने साथ ले जाने के लिए आये हैं। और राम ,लखन व सीता से उन्हें आशीर्वाद देने को कहते हैं।
नारद- (आकाशमार्ग से) प्रभु आप धन्य हैं,उस मंथरा को आप माई कह रह रहे हैं जिसने छल प्रपंच से आपके सुख - सौभाग्य में आग लगा दी।"
कहानी पर 50 शब्द- उस दासी मंथरा को माफ कर देना। यह धर्म,सत्य व मर्यादा की सीमा राम का ही काम हो सकता है।
इसलिए रामराज्य की सब चाह करते हैं। जिसमें सबको न्याय दिया गया।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जय।