प्रारंभ -एक और बार
प्रारंभ -एक और बार
नही जानती मैं क़्यों आज मैंने ये फ़ैसला ले लिया । अपने ही घर से निकल आई हमेशा के लिए। हाथ में मेरा स्लिंग बैग और मेरे कार की चाभी , शरीर पर सफ़ेद टी-शर्ट, हल्के नीले रंग का जींस और पैर में हवाई चप्पल। बस इतने के साथ मैं अपनी कार में बैठी और निकल पड़ी थी । नही जानती थी कि जाना कहाँ है।
कुछ पल पहले जो हुआ अब वह सब सामने आ रहा था। मैंने और प्रशांत ने साथ साथ इस शहर में कदम रखा था, एक ही कम्पनी में नई नौकरी को ज्वाइन करने के लिए। थोड़े दिनों का साथ और अच्छी दोस्ती बन गई। दोस्ती यहाँ तक पहुँच गई की हम दोनो साथ रहने लगे थे। छः साल से साथ थे और किसी रिश्ते में बंधने की कोई इच्छा नही थी हम दोनो में। चाहता तो हमारे बीच अटूट थी और विश्वास भी भरपूर था एक-दूसरे पर लेकिन कुछ दिनो से प्रशांत की आदतें मुझे परेशान कर रही थी। हर दिन दोस्तों के साथ नशा करके आना और फिर आते ही हर छोटी बात पर शोर मचाना। कई बार तो पड़ोसी भी आ गए थे घर पर। आज रात तो उसने हद ही कर दी। अपनी नई दोस्त को घर ले आया और फिर मुझ पर शोर मचाने लगा। उसने तो आज मुझ पर हाथ भी उठाने की कोशिश की अगर उस लड़की ने उसका हाथ ना पकड़ा होता। मानती हूँ हमारे बीच कोई ऐसा रिश्ता नही था पर मैंने भी तो उसे कभी टोका नही था , ना ही तब जब वह नशा करके आया और ना ही तब जब उस नई दोस्त के साथ आया। फिर उसका मुझ पर शोर मचाना और हाथ उठना मुझे बरदस्त नही हुआ। नही सह सकती दोहरे मानदंड जो उसे पुरुष होने पर मनमानी का हक़ देते हैं और मुझे महिला होने के कारण सब सहने की माँग करते हैं।
जिस घर को में छोड़ आई हूँ उसकी किस्तें मैं ही भर रही हूँ। उस घर को सजती भी मैं ही थी और राशन भी मैं ही लाती थी और उसे खाना में भी मैं ही बदलती थी। मैं और प्रशांत एक दूसरे का साथ पसंद करते थे इसलिए इतने समय से साथ थे। पर ना जाने कब प्रशांत की चाहत और पसंद बदल गए और हमारे रिश्ते को समझदारी से खत्म करने के बजाए उसे ऐसा रास्ता पसंद आया।
पता ही नही चला कि मैं चलती चलती कहाँ तक आ गई थी। कार एक सामान्य सी गति से चली जा रही थी और मैं अपने विचारों में गोते लगा रही थी। बत्ती लाल हो गई थी और मैं रुक गई। पर मन तो पिछली यादों में बार बार चला जा रहा था। किसी ने पीछे से ज़ोर की हॉर्न बजाई तब जाकर देखा बत्ती हरी हो गई थी। मैं आगे बढ़ी। रात बहुत हो गई थी और मुझे किसी दोस्त के यहाँ जाना उचित नही लग रहा था क्योंकि मैं अपने तब के निर्णय और अब के फ़ैसले को चर्चा का विषय नही बनाना चाहती थी। बैग में देखा मेरे सारे डेबिट और क्रेडिट कार्ड थे सो मैंने किसी होटेल में ठहरने की सोंची।
एक अच्छे से थ्री स्टार होटेल को देख गाड़ी खड़ी कर रिसेप्शन में गई। दो लड़के काउंटर पर थे, बाइस – पच्चीस वर्ष के होंगे। मैंने जब स्वयं के लिए कमरा माँगा तो घोर अचंभे से मुझे देखने लगे। उन्हें एक अकेली लड़की का होटेल में कमरा लेना शायद कुछ असामान्य सा लग रहा था। हमारा समाज और हमारी सोंच शायद ही कभी बदले। मानदंड कभी एक से नही होंगे शायद।
कमरे में गई। लेकिन चैन तो वहाँ भी नही था द्वन्द जारी था या यूँ कहे कि बढ़ता ही जा रहा था। अपनी उधेड़बुन में खोई मैं सारी रात कमरे की खड़की पर खड़ी ही निकल दी। अब तो आसमान पर भोर की लालिमा छाने लगी थी। मैंने पाया अपनी मुझे जितना परेशान होना चाहिए था और जितनी सजा मिलनी चाहिए थी मिल गई। सूरज की नयी किरण के साथ मुझे भी नई शुरुआत करनी चाहिए। मैंने चेहरा धोया और बालों को संवारा। स्वयं को समेटा और अपनी हिम्मत को बटोरा, और निकल पड़ी वापस अपने घर की ओर जहां से मुझे कुछ अजनबियों को बाहर का रास्ता दिखना था।
