प्राणप्रिया
प्राणप्रिया
प्राणप्रिया(कहानी) रामचरन का अपना खुशहाल परिवार है । सुबह उठता खेतों पर जाता, शाम को भैंसो के साथ घर वापस हो आता।वह अपनी पत्नी रामवती को बहुत प्रेम करता है। रामवती के बिना रामचरन का कोई काम नहीं होता। घर पहुँचते ही पुकारता-" अरी! रामवती सुनती हो। " रामवती भी आवाज सुनते ही दौड़े- दौड़ै आती। "मुट्ठा लगा दे,ला, कुटी काट दूँ। "अरे! पहले पानी पी लो, हवा कर लो, कट जायेगी कुटी । और रामवती ठंडा पानी देती, फिर पंखा झलने लगती। " पानी पी, ठंडा हो दोनों पति -पत्नी जानवरों का काम निबटा लेते। रामवती बच्चों को पहले ही खिला - पिलाकर सुला देती या बड़े बच्चे थोड़ी देर पढकर सो जाते। फिर रामवती चूल्हा जलाकर कहती - " अच्छा यहीं बैठ जाओ तुम, गरम-गरम रोटी बना देती हूँ। " रामवती चाहे दस बजे या ग्यारह रामचरन को गरम -गरम ही रोटी खिलाती। पहले के समय में बैसे भी पति - पत्नी में अपार प्रेम होता और पत्नी पति की हर बात आदेश मानकर पूरा करती। उसकी हर छोटी -बड़ी बात का ध्यान रखती। यह अलग बात है कि आज के पुरुष हो या पहले के पत्नी की मन बात जानने में असमर्थ रहते है पर पत्नी प्रिय अवश्य होते।उनके सुख - दुख को जानने का प्रयास भले नहीं करते। पर दोनों में प्रेम अत्यधिक है। रामचरन थकाहारा सो जाता। सुबह पति -पत्नी साथ -साथ उठते घर - बाहर दोनों का काम निबटाते। बच्चों को स्कूल भेज फिर दिनचर्या में लग जाते। धीरे-धीरे बच्चे बड़े होने लगे। बिटिया को देख लोग कहने लगते-" अब तो यह ब्याह लायक हो गयी। रामवती मुस्कुरा देती। दोनों पति - पत्नी भी आपस में विचार करते -" अगर घर-वर अच्छा मिल जाये, तो शादी कर देगें। लेकिन आने वाले समय को भला कौन देख सका है? नियति ने क्या रचा है कौन जानता है?अगर सब अपना भविष्य जान ले तो हर संभव प्रयास करेंगे कि होनी हो ही ना। बिटिया की उच्चतम शिक्षा शेष थी कि अचानक एक रात रामवती को पेट में दर्द उठा पूरा परिवार उसे संभालता रहा। रातभर रामचरन कभी उसके पैर सहलाता तो कभी हथेली गरम करता। कभी सिर और कभी पेट सहलाता । उसे दिलासा देता कि " सुबह होने दे, तनिक स्वाति फैलने दे,अस्पताल ले जाऊँगा-" पर सुबह के समय दर्द से तड़पते हुए उसने अपने प्राण त्याग दिये। प्राण त्यागते उसने केवल इतना ही कहा " मेरे बच्चों का ध्यान रखना। " घर में हाहाकार मच गया, बच्चे अलग बिलखाये, रामचरन अलग पछाड़े खाने लगा । देवर देवरानी सबको संभालते पर वे स्वयं ही रो पड़ते। पत्नी वियोग में होश ही कहा था उसे अपना। रामवती की अर्थी से लिपट - लिपट वह हाथ - पैर फेंकता। " हाय कैसे जिऊँगा, कहाँ हो तु? कैसे पालूँगा बच्चे? अब क्या करुँगा मैं?।साली -सलहज भाभी, गाँव के सब लोग अंतिम दर्शन को आये। घर में मची चीखपुकार से सबकी आँखे भरने लगी। कोई नहीं था वहाँ जिसकी आँखों में आँसू न थे। सब रोये जा रहे थे। रामचरन का साले जब अपने जीजाजी से लगकर रोये। आकाश गुजांर हो गया। सब बहने , चित्कार उठी। बड़ी कठिनाई से रमचरन को संभाला। तब कहीं जाकर उन्होंने अपनी पत्नी को अंतिम विदाई दी । उस दिन के बाद रामचरन ने मानों सब त्याग सा दिया। उसके सब भाई, मेहमान अपने घर चले गये। पर रामचरन रामवती के यादों में अपनी सुध-बुध खो दी। हर समय रामवती को याद करके रोता रहता।हर काम का त्याग कर दिया। कुछ भी काम करने की हिम्मत न करता। कई महीनों बाद, आवश्यकतानुसार ही खेतों पर जाता, घर का काम करता अन्यथा चारपाई पर पड़े -पड़े ही रामवती को याद कर रोता रहता। वह भूल गया कि उसके बच्चे हैं जिन्हें उसकी आवश्यकता है। भाई कि हालत देख बहिन ने कहा भी-" अभी तेरी उम्र ही क्या है दूसरा ब्याह कर लें। " पर रामचरन कहता-" मेरे बच्चें बड़े हो गये है, दूसरी स्त्री इन्हें माँ बराबर प्रेम नहीं कर सकती। " और मैं रामवती के सिवा किसी के बारे में नहीं सोच सकता। " रामवती भली स्त्री थी, उसके रहते मैं घर - परिवार अच्छे से संभाल रहा था।" मैं कैसे दूसरी पत्नी ले आऊँ? इतना विचारने के बाद भी वह रामवती को भूला नहीं पा रहा था जिससे उसके काम व बच्चों पर प्रभाव पड़ रहा था। तब रामचरन के मित्र ने उससे कहा "रामचरन तुम स्वयं को काम व्यस्त रखों, तब तुम भाभी की यादों से निकल पाओगे। रामचरन ने यही किया वह अब अकेले कम रहता, गाँव के लोगों के पास आधी -आधी रात तक उठता - बैठता। दिनभर खेतों के कामों में उलझा रहता। काम न भी हो तब भी वह कोई न कोई काम ढूँढ ही लेता। स्वयं को व्यस्त रखने के लिए उसने जूते -चप्पलों की दुकानें खोल लीं। सैकड़ो लोग सुबह से शाम उसकी दुकान पर आते जिसके कारण वह रामवती की यादों से निकल पाया। लेकिन अकेले में आज भी वह चुपके -चुपके रो लेता है। रोये भी क्यों न अपने सुख-दुख की बातें जीवनसंगिनी से अधिक कौन समझ सका है। हर खुशी में आज भी वह पहले रामवती को याद करता है।
