tosh goyal

Abstract

4.3  

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पॉल्यूशन चैक

पॉल्यूशन चैक

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विदेश से लौटी ही 28 तारीख को थी । तीन महीेने बाद - घर और खुद को संभालने में जुटी थी । कालेज ज्वाईन करना भी जरूरी

था । पहली तारीख से पन्द्रह दिन की छुटिटयां शुरू होनी थीं। अगर 29 को ज्वाईन न कर लेती तो मेरी तीन महीने की छुटियां जो ‘विदक्आउट पे,थी में पन्द्रह दिन का इजाफा और हो जाता - इसलिए महीेने के अन्त में लौट आना पड़ा 

था । बात न तो मेरे लौट आने के कारणों की थी , न ही इतने महीेनों बाद बिखरे घर की संभाल की थी - वो तो हर साल का किस्सा था । धीरे- धीरे उस तनाव से उबर ही आती थी । अब की बार की बार तनाव उत्पन्न हुआ

था - सरकारी ऐलान - 30 तारीख तक कार की नम्बर प्लेट निश्चित की गयी सीमा के अनुसार बनवाकर लगायी जानी थी और गाड़ी का ‘ पाल्यूशन चैक ‘ कराया जाना और वह सर्टिफिकेट गाड़ी में रखना था । दोनों में कुछ भी कमी रह जाने का मतलब था - हजार रूाये जुर्माना । अब सारी मुश्किल हम जैसे लोगों की होती हैं । सरकारी तन्त्र में नौकरी , नियमों का पालन करने की आदत भी और जिदद भी - तिस पर देश की भावी पीढ़ी का भार भी जाने - अनजाने अपने कंधों पर ढोये थी । बच्चों को अगर नियमों का पालन सिखाते हो न मानने पर सजा देते हो तो भला खुद कैसे कोताही बरती जाये ? खैर बात थी कार की । अब इतने महीनों बाद घर के बिखराव को दूर करने और रसोई को गतिशील बनाने में जिसका सबसे बड़ा योगदान होता , उसी कार को इस्तेमाल करने से पहले मार्किट ले जाने के लिये तैयार करना था - यानी नम्बर प्लेट को बदलवाना और पाॅल्यूशन चैक करवाया जाना , दोनों शामिल थे । एक पूरा दिन यानि 29 तारीख कालेज का ज्चाईनिंग और अन्य कार्यों में बीत गया । सांझ हुई - कार लेकर मार्किट गयी ं नम्बर प्लेट वालों के पास सिर उठाने की फुर्सत ही न थी - कोई पांच तारीख से पहले न दे सकता था । 

‘‘ मैडम जी - रात दिन काम कर रहे है। जी - लोगों को कल से याद आना शुरू हुआ हैं - अब - सबको जल्दी हैं - पर मैडम जी - आप तो पढ़ी - लिखी हैं जी - आप भी - ? ‘‘ 

मिस्त्री मुझे जानता था -- काॅलेज के पास ही तो मार्किट हैं - अक्सर इसे कार के काम से घर बुला लेती थी । ‘‘सही कहते हो मिस्त्री जी । मैं यहां होती तो देर क्यों करती ? कल रात ही आई हूँ ।अब बोलो मेरी समस्या का क्या हल देते हो - फिर पाल्यूशन चैक भी करवाना हैं । ‘‘ 

मिस्त्री ने कातर निगाह से मुझे देखा , बोला -

 ‘‘ मैडम जी । जिनके पैसे ले लिये , उनको तो देनी ही हैगी । - पांच हजार नम्बर प्लेट परसों सुबह तक बननी हैं - चार लोग लगे हैं - पता न क्या और कैसे करेंगे ? ‘‘ फिर रूक कर बोला - ‘‘ पता हैं मैडम जी । ये 220 - रूपये में बनने वाली नम्बर प्लेट के लोग पांच सौ और हजार रूपये तक दे गये हैं । - पता नहीं - लोगों के पास पइसा बहुत हैं वक्त बहुत कम हैं शायद । "

"तो आपने लिये क्यों ? ‘‘ वो हंस पड़ा । ‘‘ मैडम जी पइसा आता किसे बुरा लगै हैं । पर ये तो मेहनत का पइसा हैं जी - रातभर जाग के अपना खून - पसीना एक करके काम कर रहे हैं जी - फिर हम क्यों न कमायें - अब आप क्या न जानों कि पहली के बाद से ये ट्रैफिक पुलिस वाले कितना कमावैगें । चाँदी - न जी - सोना हौवेगा उनका । रोकेंगे - पैसे खावैंगे और छोड़ देंगे । बहुतैरे ऐसेे भी हैं जी - जो अभी भी आराम से बैठे हैं । - पुलिस को खिला - पिला के चलते रहेंगें ।‘‘ 

मिस्त्री बोलता जा रहा था - वह गुस्सा था - पता नहीं किससे ? लोगों की गलतियों से या पुलिस के खाने -पीने से । यूं खुश भी था कि उसकी भी अतिरिक्त कमाई हुई हैं । पाँच हजार प्लेट - ‘‘ मैं सोच रही थी । ‘ अगर औसतन 300-400 रुपया प्रति प्लेट भी पड़े तो दो दिन में उसकी कमाई का अंदाजा लगाया जा सकता था - एक मैं बेचारी लेक्चरार - ब्लैक में कुछ न करवाने की कसम खाना जितना मेरी जीवन पद्वति का नियम था वहीं - मेरे पैसे खर्च करने की सीमा भी दर्शाता था । पर - अब मैं क्या करूॅ ? - मिस्त्री ने इशारें - इशारे में प्लेट की कीमत तो बता ही दी थी - वो तो मैं दूंगी नहीं - फिर क्या करूॅ - सोचती खड़ी रही कि मिस्त्री ही बोला - 

‘ मैडम जी दो-चार दिन घर से बाहर न निकलें , फिर - देखती रहिये - सरकारी सारे ऐलान धीरे-धीरे ढीले पड़ ही जाते हैं - फिर आपकी प्लेट पाँच तारीख को जरूर बना दूॅगा - वायदा करता हूं । 

‘‘ अच्छा - । ‘‘ मैं गाड़ी उठा कर चल दी । ‘‘ चलो पाल्यूशन चैक ही करवा लेती हूं ‘‘ - सोचा और पेट्रोल पम्प की तरफ चल दी ।

‘ अरे । बाप रे । ‘ मलका गंज की तरफ मुड़कर थोड़ा आगे ही गयी थी कि ट्रैफिक जाम । कार रोक देनी पड़ी । ‘‘ तो ये जाम पाल्यूशन चैक करवाने वालों का हैं । अब क्या करूॅ ?‘‘ ज्यादातर ड्रईवर लोग गाड़िया लिये लाईन में लगे थे , बाहर निकलकर गपिया रहे थे - मस्ती का आलम था । कार हाथ में थी - दोस्तों का साथ देरी के लिए माकूल कारण भी था । - कहीं झुण्ड में चाय की चुस्कियां ली जा रहीं थीं , कहीं पास ही गरम-गरम बनते ब्रेड पकौड़ो का मजा लिया जा रहा था - साथ ही अपने मालिकों की आदतों और उनके बिजनैस की सूचना का आदान-प्रदान और मजाक बनाने वाले भाव से आलोचना - प्रत्यालोचना हो रही थी । 

‘‘ अजीब देश हैं हमारा । इस पर हम गर्व करते हैं । विदेशों में कितना आराम हैं , कितनी नियमबद्वता हैं , कितनी सुविधाएॅ हैं । -- असल में तो वहाॅ जनसंख्या हैं ही इतनी कम कि दिक्कतें पैदा होने का सवाल ही नहीं होता - जितना सच ये हैं उतना ये भी हैं कि वहाॅ लोगों की मानसिकता ही यहाॅ से फर्क हैं - यहाॅ हर आदमी मौके का फायदा उठाना चाहता हैं - कैसे भी - ज्यादातर दूसरे की मजबूरी का मूल्य लेकर - वो चाहे पैसे या कोई काम साध कर - । ‘‘

मैं बैठी सोचती रही थी ं साथ ही कार वापिस कैसे कर लूं इस पर भी विचार कर रही थी कि एक ड्राईवर उस झुण्ड से उठकर आ गया बोला - ‘ मैडम जी यहाॅ तो रात भी हो सकती हैं । ड्राईवर को गाड़ी लेकर भेज दीजियें - आप कहां खड़ी रहेंगी ? या फिर -।‘‘ 

क्हते-कहते वह चुप हो गया ।‘‘ या फिर - क्या हो सकता हैं ? मैं जानने को बेचैन हो उठी ं। ‘‘ मैडम ड्राईवर कर लेगा ।आप नहीं कर पायेंगी ये सब । आप ड्राईवर को भेजें । वहीं कोई जुगाड़ कर लेगा । ‘‘ 

जुगाड़ का मतलब मैं खुब समझ रही थी , यानि पैसे देना-दिलाना , खिलाना - पिलाना आदि । ‘‘ पर - तुम लोग लाईन में क्यों खड़े हो ? तुम लोग क्यों नहीं लगाते ये जुगाड़ ? ‘‘ ये छोडिये मैडम जी आप रहने दें इस बात को - बस । आप तो हमारी बतायी तरकीब को आजमाये - आपका काम हो जायेगा - किसी ड्राईवर को भेज दें - पैसे दे दीजियेगा - गाडी लाने की भी जरूरत नहीं हैं । ‘

‘ तो - ? मैं हकला गयी थी। ‘‘ अगर किसी ड्राईवर को पैसे देकर ही भेजना हैं गाड़ी भी न चाहिए तो आप भी तो ड्राईवर ही हैं न - आप ही क्यों नहीं कर सके ये काम ?‘

"नहीं मैडम जी ।हमारे साहब को ये पेट्रोल पम्प वाले जानते हैं - हम नहीं कर पायेंगे ।‘‘ मैं हैरान परेशान हो गयी - अजब किस्सा था सारे का सारा - सरकारी नियम एक तरफ ये सारा नियम कानून दूसरी तरफ । आम आदमी को क्या फर्क पड़ता हैं - इसके पास तो हर कानून का हल हैं । - बल्कि कानून बनाने वाले ही सेवानिवृत्त होकर कानूनी दाॅवपेंच बताते हैं । सोचकर मैं मुस्करा उठी थी । मेरे टैक्स सलाहकार रिटायर्ड इन्कमटैक्स आॅफिसर सारे ‘ लूप ही लूप ‘ जानते हैं और बताते रहते हैं । ‘ लाॅ मेकरज आर आलवेज दा लाॅ ब्रेकर कहा जाता ही हैं । 

आखिर मैने ड्राईवर से गाड़ी बैक करवा ली , वापिस यूनिवर्सिटी आ गयी । घर आकर पस्त - सी पड़ गयी । मन ढेरों द्वन्द्व से भरा था - क्या हमारा हिन्दुस्तान कभी बदल पायेगा ? आजादी से पहले तो फिर भी एकता का ज़ज़्बा एक खास मकसद के लिए बना था - आजादी मिलते ही सारी एकता रेत - सी बिखर गयी - आज तक बिखर रही हैं । बल्लभभाई पटेल द्वारा एकत्रित छोटे - छोटे राज्य फिर बंटते चले जा रहे हैं - पन्द्रह से पैंतीस - आगे और भी । कभी भारत का बँटवारा - कभी जाति , रिजर्वेशन आदि जाने कितने ही हिस्सों में बंटता जा रहा हैं देश। और आज तो - पैसा ही भगवान बन बैठा हैं । धर्म के लिए होने वाली लड़ाइयों से ज्यादा लड़ाइयां अब धन के लिए होने लगी हैं - औद्योगिकरण का ये परिणाम होना था - लाभ हानि का व्यापार हैं ये तो तिस पर पूरा विश्व एक गाँव में बदल गया हैं तो डॅालर और पाउँड जैसी हार्ड करेंसी का आकर्षण भी तो हैं । मानवीय कमजोरी - कैसे बचा जाये ? 

कितना भी सोचते रहें होता तो वहीं है जो चारों और आग की तरह फैला होता हैं - देशभर में 60 प्रतिशत काला धन हैं , केवल 40 प्रतिशत सफेद धन - यानि हम ब्लैक होते जा रहे हैं ? क्या होगा हमारी भावी पीढ़ी का और देश का भविष्य ? तीस तारीख आ गयी थी । आखिरी दिन था । यूँ ये भी सोच रही थी कि मुझे कौन - सा मार्किट हर रोज जाना होता हैं , फिर ज्यादातर सामान तो बहादुर ही लाता हैं , छोड़ो - पाँच तारीख के बाद देखी जायेगी -- मन शान्त हो गया था । ‘‘ खुद ही खुद से बात की और शान्त हो लिये ‘ वाला हाल था । अब जो होगा भुगतेंगे - देखा जायेगा । 

शाम को बाहर निकली तो मेरा पुराना ड्राईवर अर्जुन सामने था । नमस्ते की । ‘‘ कब आई मैडम जी ? ‘‘ तो - मैडम जी । आपकी कार की नम्बर प्लेट और पाॅल्यूशन चैक का क्या ? सरकार का अजब हाल मैडम जी उससे भी अजब हैं लोगों का - अब महीना भर पहले आर्डर निकले थे - पर लोग सोये रहे जी - पर लोगों का भी क्या कसूर ? कितनी बार सरकार आर्डर वापिस ले लेती हैं न । ‘‘

 ये तो हैं अर्जुन ।हाँ मुझे भी आने के बाद पता चला । कल गयी थी मार्किट । न नम्बर प्लेट बनी , न पाॅल्यूशन चैक ।पाल्यूशन का सर्टिफिकेट तो मैं यहीं ला दूँगा सौ रूपये में - आज रात को ही - और नम्बर प्लेट गत्ते की बना कर टांक देंगे अभी तो फिर धीरे-धीरे सब शान्त हो जायेगा । तो मुझे बता दें , मैं बनवा दूंगा । ‘‘ 

मेरी तो जान में जान आई । जरूरत इजाद की जड़ हैं - क्या इजाद हैं ? ‘ सरकार बनाती रही पाॅल्यूशन चैक के नियम , पर हमारे घरों - बाजारों - मनों के कोने कुचीलों में जो पाल्यूशन फैला हैं उसे कौन चैक करेगा ? उसका कौन-सा सर्टिफिकेट बनेगा ? सोचती कितना भी रहूं, पर हल तो नहीं मिलता ।



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