कोठी मेम

कोठी मेम

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ट्रैफिक जाम में फँसी थी और आदत के अनुसार काँवड़ियों के चेहरे-मोहरे, चाल-ढाल देखती हुई मन के भीतर झाँकती रही थी कि अचानक निगाह सामने वाले दरवाजे पर चली गयी। दरवाजे की बनावट में कुछ अलग था, जो अपनी ओर खींचता था। खासा चौड़ा दरवाजा- मंदिर के कपाट से भी अधिक चौड़ा था। दरवाजे से होता हुआ मेरा ध्यान उसके उपर लगे संगमरमर के पत्थर पर चला गया, जिस पर लिखा था- ‘कोठी मेम‘

आश्चर्य भाव लिए मेरी गर्दन झटक आई। ‘कोठी मेम, ये कोठी तो नहीं लगती- न ऐसा लगता हैं कि यहाँ कोई मेम रहती होगी पर शायद रहती भी हो। दिल्ली तो एक ऐतिहासिक शहर है, मुगलों के शासन कल के कितने उतार-चढ़ाव देखे हैं इस दिल्ली ने, जिनके सैकड़ों चिन्ह इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। फिर ब्रिटिश साम्रज्य, उसके चिन्ह नहीं, प्रभाव तक आज तक छाये हैं हमारी सोच, पहनावे, रहन-सहन यहाँ तक कि त्यौहारों पर भी हमारा सब इतना बदल गया हैं कि पहचान में ही नहीं आता। लगता हैं सारे रीति-रिवाज परम्पराएँ तक बदलती जा रही हैं।‘ सो हो सकता है, इस कोठी में भी कोई मेम रही हो ब्रिटिश युग में या फिर यह भी हो सकता है कि किसी हिन्दू लड़की ने किसी अंग्रेज से विवाह कर लिया हो और लोग इसे मेम कहने लगे हों।

यह भी तो हो सकता हैं कि मामला सिर्फ प्रेम प्यार का रहा हों। ‘मैं सोचती रही थी पर किस्सा कुछ भी रहा हो, मेरा ध्यान अब प्राय: आते जो कोठी मेम के दरवाजे की ओर जाने-अनजाने चला जाता था। एक दिन देखा कि

‘ कोठी मेम के उसे बड़े से दरवाजे से बाहर एक साइकिल ठेला निकला जिस पर गठ्ठर के ढेर लदे थे।

ध्यान से देखा, उनमे फीम के बने रंग-बिरंगे, गोल-चोकोर-आयताकार, अगल-अलग तरह के टुकड़े बँधे थे। ये क्या चीज हैं ? क्या हो सकती हैं ? मैं सोचती, ध्यान से देखती रही। ध्यान आया कि ‘रक्षा बंधन‘ का त्यौहार आने

वाला है, शायद राखियों के नीचे रखे जाने वाले फोम के टुकड़े होंगे। हाँ समझ आ गया, वही है। इन्हीं पर चमकीले-दमकीले सलमे-सितारे टाँके जायेंगे, रंगीन धागे बाँधने के लिए चिपकाये जायेंगे, बन जायेंगी मनलुभानी राखियाँ। मुझे याद हैं अपना बचपन, मार्किट में लाल रंग के गोले से बने बटनी धागे मिलते थे, फिर धीरे-धीरे उनमें चमकदार गोटा बाँधा जाने लगा।

राखियों की कीमतों के बढ़ने के साथ-साथ आकार भी बढ़ने लगा। प्लास्टिक का जमाना आने के बाद से तो राखियों की सजावट बिल्कुल बदल गयी। फिल्मी सितारे, खेलों के सितारे, कार्टून चरित्र, देवी-देवताओ की तस्वीरें, जाने क्या-क्या मन लुभावना भी और रूपाकार में बड़ा भी। अब तो चाँदी की राखियाँ तक मिलने लगी हैं। आखिर दिखावे की इस दुनिया में धनवान अपनी सम्पत्ति का दिखावा कैसे करें ? सब देख सोच कर अच्छा लगा। मैं जड़ों से कटी नहीं हॅँ। अभी भी पहचान बची है। मेरी निगाह अभी तक चीजों की बुनावट-बनावट को पहचान सकती हैं। ठेले की ओर देख रही थी, अपनी पीठ भी थपथपा रही थी कि वह बाहर आई, ठेले को मोड़ा, साइकिल पर चढ़ के बैठी औार चल दी।

वाह उस के रूप् का क्या कहना ? नीली जीन्स, इण्डियन पिंक कलर का टाॅप, जिस पर ढेर से मोती लगे थे, सिर पर पहाड़िनों जैसा स्कार्फ बाँधा था, चटक लाल लिपस्टिक। दोनों हाथ रंग- बिरंगी चूड़ियों से भरे थे जो हरी व लाल रंग की चमकीली, गले में चौड़ा सा थपा हुआ हार, कान में मोटे-मोटे झुमके, बड़ी सी बिन्दी, आँखों में कोर तक बाहर निकलता काजल, क्या सजधज है ?

मैंने सोचा, फिर यह भी कि जीन्स टाॅप के साथ ये शुद्ध भारतीय साज सज्जा बेमेल लग रही हैं, तिस पर इस सज्जा के साथ ठेला चलाना और भी अजनबी लग रहा था। ट्रैफिक जाम खत्म हुआ, कार अपने लक्ष्य की

ओर चल दी पर वह, कोठी मेम से बाहर आती, अपनी सारी सज-धज के साथ, मेरे जेहन में चिपक गयी थी।

उसकी सज्जा, उसका ठेला, जीन्स टाॅप का पहनावा भी और काँवड़ियों की लम्बी कतार, रास्ते भर यही सब

सोचती रही थी। काँवड़ियों की नंगे पाँव इतनी लम्बी यात्रा अब कल्पना नहीं रह गयी थी।

उनके जख्मी, पटियाँ बाँधे पाँव मुझे दिख रहे थे। कुछ दूसरे थोड़ी आराम से चल पा रहे थे क्योंकि उन्होने रिक्शा, ठेला, व मोटरसाइकिल ले रखी थी एक पैदल चलता, काँवड़ सँभालता तब तक दूसरे सवारी पर थक जाने पर वह सवारी पर होता, दूसरा कोई उतर कर चल पड़ता यानी रिले रेस की तरह काँवड़ यात्रा हो रही थी। रास्ते भर काँवड़ियों की सेवा के लिए तम्बू लगे थे, आराम स्थल सब सुविाधाओं के साथ थे। आलू रसे वाले, पतला रायता, पूरियाँ जलेबी आदि सभी तैयार थे। चारपाइयाँ बिछी थी। साथ ही नहाने-धोने का प्रबन्ध भी था। ये सभी दान में मिलता था। इन काँवड़ियों का इतिहास मेरी जानकारी में पिछले कुछ वर्षों का ही था तो शोध का विषय बन चुका था।

मैंने अहद किया था कि कभी अवसर मिला तो सूची जानकारी लेकर एक शोध लेख लिखूँगी पर आज तो इनसे भी अधिक दिलचस्प था ठेले पर सजी-धजी पाश्चात्य ड्रेस पहने वो लड़की जिसकी अनोखी सज्जा आकर्षित किये

थी तथा इससे भी अधिक उसका कोठी से बाहर निकलने का मंजर आश्चर्यचकित कर रहा था। मन कर रहा था,

वहीं वापिस जाऊँ, लड़की से मिलूँ , उसके बारे में जानूँ, उससे पहचान बनाऊँ पर वक्त मुहलत दे तब न। वक्त का बीत जाना अवश्यम्भावी है- वह बीतता गया। आते-जाते मेरी निगाह का उठ जाना भी एक स्वतः

स्फूर्त कार्य था, फिर भी मैं उसे दो-तीन बार से अधिक न देख पाई, एक वर्ष बीत गया। वह मेरी याद से दूर जा बैठी।

अगला सत्र शुरू हो गया, जुलाई-अगस्त फिर आ गया। काँवड़ियों का मजमा फिर दिल्ली की सड़कों पर ट्रैफिक जाम करने लगा। उनकी लम्बी-चौड़ी कतार, गाड़ियों को बायीं पटरी पर उतर जाना पड़ता था। उनकी दूर से देखती तो नजारा मन में रम जाता था। गेरूए वस्त्र पहने, रंग-बिरंगी झाड़ियों से सजे काँवड़ मन लुभाते थे। दिल्ली केसरिया हो उठी थी। ट्रैफिक की ढेर-सी दिक्कतें तक याद न रहती। तभी उनके बीच चलती वह महिला दीखी। मैंने अब तक काँवड़ियों में कोई महिला न देखी थी। अत: उसकी ओर ध्यान खिंच गया। अकेली उदासीन, खुद में खोयी, सुनी निगाह चुपचाप चलती मानों उसे होड़ न हो। बस एक माँवड़ सिर पर रखा था बिना ताम-झाम या झंडियों की सजावट के।

यहाँ भी वर्ग भेद हैसियत का दिखावा। उस महिला की निगाह में किसी बड़े हादसे की कहानी छिपी थी। जीने की सारी इच्छा से महरूम खुद को फना कर देने निकल पड़ने जैसा भाव था। ये रुढ़िवादी रीति-रिवाज भी जिनमें व्यक्ति बँधकर टूटता रहता हैं वहीं कभी-कभी दुःख को छिपा देने के लिए नहीं बन आते हैं।

कुछ भी बुरा नहीं होता शायद। हर अंधकार प्रकाश की पूर्व पीठिका ही तो होता है। सोचा, हर छोटी से छोटी घटना के पीछे बहुत सी अनजानी बातें छिपी होती है। बात तो कोठी में की थी। काँवड़ियों की कतार देखी

फिर कोठी में की याद ताजा हो आई।

मेरी निगाह अब आते-जाते वहाँ रुकने लगी पर वह न दिखी। अब मेरी आँखें हर दिन उसे खोजती। मन करता कि रुकूँ, कोठी मेम के भीतर जाऊँ, उसका इतिहास भूगोल पता करूँ, उस लड़की के बारे में जानूँ। अब की बार, ट्रैफिक जाम के कारण नहीं अपितु एक एक्सिडेंट हो जाने के कारण रास्ता रुक गया था। काँवड़िये अपने-अपने मंदिरों की ओर अपनी राहों पर एक्सिडेंट से बिना प्रभावित हुए चले जा रहे थे। अजब सही, पर सच यही था कि दिल्ली की इस भीड़-भड़क्के वाली सड़क पर किसी को घायल की गति जानने की फुर्सत न थी, न ही धर्म के इन ठेकेदारों के अपने-अपने पाप धोने के लिए धार्मिक रूढ़ियों में डूबे थे। पता नहीं इस जन्म को बचाये थे या आगामी जन्म को सुधारते थे।

ऐसा धर्म यका कर्म काण्ड मुझे सच में कभी सझम ही न आ पाया था हालाँकि ये भी एक सच है कि इस प्रकार के एक्सिडेंट के केस में पड़ने का मतलब था- पुलिस के पचड़े में पड़ना, जो कम जान लेवा नहीं होता। पता नहीं, व्यक्ति की जान से ज्यादा महत्व कानून का क्यों होता हैं ? यही वही दिन था जब मैं कार से नीचे उतर आई। घायल पड़े लोगों को बचाने के लिए किसी ने फोन कर दिया था। एम्बुलेंस पहुँच गयी थी, बचाव का कार्य शुरु हो गया था। सुकून की साँस लेते हुए मैं कोठी मेम के पास वाली दुकान के पास जा खड़ी हुई । कोल्ड ड्रिक रखा देखकर वहाँ रुकी, ठंडा मँगवाया और बातचीत की मुद्रा बनायी कि वहीं लड़की बाहर आती दिखाइई दी। मैं चौंक उठी, एक ही तो वर्ष बीता है। इसकी तो रंगत ही बदल गयी। उतरी दीवार जिसकी पपड़ियाँ उतर गयी हो। लगा कोई और हैं, नहीं, वही मैली जीन्स, गुलाबी पर मटमैले पड़े टाॅप ने उसकी पहचान करवा दी।

तब भी उसने ठेले मैं फोम के टुकड़ों के बंडल रखे और साइकिल पर बैठ कर चल दी। आज उसकी चाल,

उसी शक्ल व पहनावे की तरह बेरंग और बेदम थी। मैं दुकानदार से पूछ बैठी- ‘‘ये काठी मेम, किसी

मेम की हैं ?‘‘

जी बीब्बी जी। साहबों के वकत की है जी, तब की जब हम गुलाम थे जी।

यानी अंग्रेजों के जमाने की ?

‘‘ जी - ई- ई।

उसका बीबी जी कहना मुझे अजीब लगा था। आखिर मैं अभी तो मुश्किल से पैंतीस की हुई हूँ, बीबी जी थोड़ी लगती हूँ।‘‘

सोचा, पर फिर ये भी कि बंगाल में सभी आयु की लड़कियाॅ ‘माँ‘ ही होती हैं न। सोचते हुए मैं उसकी ओर देखती रही।

मुझे देखता पाकर वह बोला- ‘‘उनके बारे में क्या जानना चाहो जी। इन साहब लोगन की बातें बापू बतावै था कि यहाँ एक साहब रहैवे था। घरों का काम करने वाली छोरी वा कि निगाह में चढ़ गयी- छम्मों नाम था जी वा का, मेम खूब लड़ी भतैरी जूत बाजार भई, बरतना के पटकन की आवाजें आन लगी। छोरी घरां से बाहर फैंक दी गयी जी।‘‘

फिर, मैं अब उस छम्मों और इस लड़की में तालमेल बिठाने लगी थी।

‘‘कुछ ना जी, वो छोरी तो सहब की लौंडी बनने को तैयार थी। घर से निकल के इहां दरवाज पै बैठी रहैवे थी, पहले तो जी यहाँ पर म्हारे घरं जैसा छोटा दरवाजा था, सहब ने ही छोरी कारण ये बड़ा गेट बनवाया और छोरी गेट के अन्दर पड़ी रहैन लग गयी।‘‘

पर - छारेी अपने घर क्यों न चली गयी ?‘‘

कहाँ बीब्बी जी। इन मलेच्छा के घर में रही छोरी को कोई अपनी झाोपड़ी में भी न जगह दैवे। उन्होंने छोरी को तब तक के लिए छोड़ दिया था जब तक वह रोजान साँझ को घर लौट जावै थी, पर जा दिन वह रात में रुकी, बसस, घर की राह बन्द हो गयी, गरीब लोगन के पास भी तो इज्जत हौवे जी।‘‘

अब कहाँ रहती हैं वह ?

कहाँ जी, एक दिन तो मेम ने निकाल के बाहर कर दी जी।

‘तो कोठी मेम नाम किसने रखा ? फिर ये बड़ा सा पत्थर क्यों लगवाया गया ?‘‘

बीब्बी जी सच तो कौन ने पत्ता, बापू ही बातावै था कि मेम ने छोरी ने घरां से निकाल तो दया पर छोरी की जात जाती किधर, कौन पनाह दिवाल था। इहाॅ म्हारी दुकान के पास ही कोने पै बोरी पे पड़ी रहैवे थी। माँ दो रौटी दे दैवे थी।‘‘

अब मरी उत्सुकता कोई अन्त न था। ये तो इतिहास था पन्नों में बन्द न था, किसी ने लिखा कहाँ था, फिर भी पन्ने- पन्ने दर पन्ने खुल रहे थे। इतिहास सिुर्फ राजाओं व देशों की राजनैतिक, सामाजिक स्थिति मात्र तो नहीं होता। हर व्यक्ति एक इतिहास बनाता हैं, इतिहास जीता है। कोठी मेम का भी एक त्रासदी भरा इतिहास था। सोचती जा रही थी कि वह बोला- ‘‘बीब्बी जी, छोरी को बाहर कर साहब शराब में डूब गया, फिर एक दिन मेम बच्चों के साथ अपने देश चली गयी। मेम के जाते ही इक रात में छारी गेट में समा गयी। कहाँ गयी, को पता न। न कोई कोठी से बाहर निकले, न कोई भीतर जावै। मेम के जाते ही छोरी मेम बन गयी, ब्याह ली गयी हो। वो तो पूरी बदल गयी।

दो माह बीते न बीते, एक दिन मजदूर लगे। कोठी मेम का पत्थर लग गया इब्बवो बहार निकलने

लागी जी- सज धज कै। कहैवे थी कि मैं साहब की मेम हूँ- इस कोठी की मालकिन पर बदकिस्मती पीछा न

छोड़े हैं जी। कोठी तो वा के नाम भयी पर वो रै न पायी जी। साहब चला गया अपनी मेम के धोरे वा पगला गयी, फिर पागल सी बाहर सड़क पै ही जिनगी काटन लगी। लोग कहैवे हैगे मेम की हाय लग गयी।

‘थोड़ा रूक कर फिर बोला - सब कहैवे हैंगे रात में छोरी की आत्मा कोठी में ही भटके हैंगी।‘

कोठी मेम के पत्थ की ओर दखती मैं सोचती रही, इन्सान क्या सोचता है पर किस्मत के पन्नों पर क्या लिखा होता है ? हम क्या चाहत हैं, मिलता क्या हैं ? सोचते कुछ हैं , होता कुछ और हैं पर ये जो अभी-अभी ठेले पर सामान लाद कर गयी हैं वो ? ‘ सुना हैं जी। उसी छम्मों की रिश्ते की हैं पता नहीं किस रिश्ते की। बड़ी बदकिस्मत हैगी जी। अभी साल भी न हुआ सादी को कि घर वाले को पीलिया हो गया, वैसे तो जी बहुता को हौवे, पर ठीक हो जावै हैगा पर उसका तो ऐसा बिगड़ा कि बिस्तर से लगा दिया। सादी के महीने बाद से ही यो अपनी गृहस्थी चलान लई काम करन लाग री है और घर वाला ? ‘‘ कहैवे तो हैं जी इब ठीक होन लाग रहया हैं। पता ना कब ठीक होवैगा, काम पै जावैगा। मुझे तो लागै हैं बीब्बी जी मेम की हाय लगी हें जी। रैहवे तो इसमें बहुतेरे परिवार पर सबकी कहानी दर्द के पैबन्दों से भरी हैं जी। कोठी में रहैन वाले या तो पागल हो जावै हैंगे या बीमा -लाचार या फिर मौत के साये में चले जावै हैं। लोग ये भी कहैवे हौगे कि उस पगली की आत्मा कोठी में भटकती हैंगी जो किसी को रहैन न देती हैगी। मन करै हैगा कि इसने भी कह दें कि चली जावै अपने घरवाले को ले के पर कहाँ ? किस हक से आखिर हम लगै कौन हैं, पोड़स के दुकानदार भर बस्स।

घायल लोग अस्पताल जा चुके थे, मेरा मन भीतर तक घायल था। भारी कदमों से चलती मैं कार में जाकर बैठ गयी। पीछे- पीछे ‘ कोठी मेम मेरे साथ-साथ चल रही थी।


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