क्या चाहती हूँ मैं ?
क्या चाहती हूँ मैं ?
क्या चाहती हूँ मैं ? ‘आप क्या चाहते हैं ?’
उसकी आवाज़ में विवशता, आँखों में विनम्रता तथा बैठने के ढंग में अपना छोटापन ज़ाहिर था, हालांकि वह उसकी पत्नि थी, दो बच्चों की माँ थी। विवाह को दस वर्ष हो चुके थे किन्तु माँ और पत्नि पद किसी ने भी उसे आज़ाद न किया था। आज भी वह उतनी ही मज़बूत थी, विवश थी, बेबस थी जितनी उससे विवाह करने के लिए थी।
‘तुम करोगी, जो मैं कहूँगा ?’
‘हूं...ऊं...ऐसे नहीं रह सकती मैं।’ अपनी सारी शक्ति समेटकर उसने कह तो दिया, किन्तु निगाह से यह भी व्यक्त कर दिया कि कुछ ऐसा करने को न कहें, जो वह कर पाने में असमर्थ हो।
‘ठीक है...तो निदा को फोन करो...फोन...पर ज़ाहिर न हो कि तुम नाराज़ हो, न यह लगे कि वह खुद को दोषी समझने लगे...बल्कि नार्मल रह कर बात करना...यह जताते हुए कि आज भी वह तुम्हारी सहेली है और तुमसे मिलने जब तब आ सकती है।’