पिता

पिता

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बेटी की शादी में दोस्तों, रिश्तेदारों और बारातियों के स्वागत में उलझा हेमंत आज खुद को बिलकुल अकेला महसूस कर रहा था। भाई बंधु रिश्तेदार सिर्फ उसकी व्यवस्था में कमी निकालने के अलावा कुछ नहीं कर रहे थे।

बारात का स्वागत, वरमाला की रस्में पूरी हो चुकी थी अब बारी थी कन्यादान की। रात अधिक होने के कारण ज्यादातर बाराती व रिश्तेदार आराम करने के लिए उनके लिए बुक किये गए होटल में जा चुके थे, अब लग्न मंडप पर केवल वर दोनों परिवारों के सदस्य व पुरोहित ही उपस्थित थे। पुरोहित विवाह की रस्में प्रारम्भ कर चुका था, थोड़ी देर बाद पुरोहित ने वधु को ले के आने को कहा।

हमेशा सादे कपडे पहनने वाली दिव्या आज दुल्हन के जोड़े में बहुत सुंदर लग रही थी। हेमंत उसे देखता रहा, बीस साल पहले गायत्री पाँच साल की दिव्या को उसके पास छोड़कर हमेशा के लिए चली गयी थी। मामूली सा बुखार कैसे ब्रेन फीवर में बदल गया पता ही नहीं लगा था। सिर्फ तीन दिन कोमा में रहने के बाद बिना कुछ कहे सुने चुपचाप इस दुनिया से चली गयी।

उसकी तेरहवीं होने तक घर में रिश्तेदार आते-जाते रहे उसकी बहने दिव्या का ख्याल रखती रही लेकिन, मेहमानों के जाने के बाद जब घर में सिर्फ हेमंत और मासूम दिव्या ही रह गए तो तब दिव्या ने पूछा था, "पापा मम्मी कहाँ है?"

बहुत सोच समझ कर जवाब दिया था हेमंत ने, "बेटा मम्मी भगवान के घर चली गयी है।"

"क्यों?", पूछा था मासूम दिव्या ने।

"पता नहीं बेटा........"

"हम भी चले भगवान के घर?", पूछा था मासूम दिव्या ने।

"अभी नहीं बेटा; अभी नहीं।", हेमंत ने जवाब दिया था।

"अभी क्यों नहीं पापा?"

"जाना है बेटा मम्मी के पास लेकिन अभी मम्मी के कुछ सपने पूरे करने है........", हेमंत कुछ सोचकर बोला।

"पापा सपने?"

"हाँ बेटा, मम्मी चाहती थी आपको डॉक्टर बनना है, छोटे बच्चों की डॉक्टर........", हेमंत ने समझाते हुए कहा था।

पाँच साल की दिव्या कुछ ज्यादा न समझ सकी थी लेकिन हेमंत जानता था कि उसके सामने बिना माँ की एक बच्ची को पालना एक बहुत बड़ी चुनौती थी।

वक्त के थपेड़े हेमंत की हिम्मत की परीक्षा लेते गए, हेमंत ख़ामोशी से हर परीक्षा का सामना करता चला गया। घर-परिवार के लोगों ने दूसरी शादी के लिए दबाव बनाया तो उसने मना कर दिया, वो दिव्या पर सौतेली माँ का साया भी नहीं पड़ने देना चाहता था।

दस से पाँच की नौकरी करते हुए बेटी की देखभाल नहीं कर सकता था तो नौकरी छोड़ होम बेस छोटा सा कारोबार कर लिया। जब छोटे शहर में बेटी की पढाई में बाधा आई तो छोटे शहर का बड़ा घर बेच बड़े शहर में छोटा घर बना लिया। बेटी की जरूरत के अनुसार आमदनी बढ़ाने के उपाय भी करता चला गया। पिता के साथ माता का किरदार बखूबी निभाता चला गया।

वक्त के अनुसार दिव्या भी समझती चली गई कि उसके पापा की क्या इच्छा है, स्कूल में क्लास की टोपर रहते हुए पिता के हर छोटे बड़े काम में पिता का साथ देने का भी प्रयास करती। किचन में खाना बनाते पिता का साथ देने का प्रयास भी करती।

१२ वी कक्षा पास करते ही अपनी मेहनत के बल पर वो अखिल भारतीय परीक्षा पास कर राजधानी के प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज में पढ़ने चली गयी।

बेटी की पाँच साल की मेडिकल की पढाई को सपोर्ट करने के लिए हेमंत ने अपने छोटे से कारोबार को विस्तार दिया और बेटी की जरूरत और उसके अच्छे भविष्य के लिए धन भी जुटाया।

मेडिकल की पढ़ाई के पाँच साल तेजी से गुजर गए, पहले ही प्रयास में दिव्या ने पी. जी. की परीक्षा पास एम. डी. पीडिया में एडमिशन लेकर माता और पिता का सपना पूरा किया दिव्या ने।

दिव्या की एम. डी.के पहले वर्ष में ही शहर के नामी-गिरामी डॉक्टर ने जब अपने सर्जन बेटे का विवाह प्रस्ताव भेजा तो हेमंत मना ना कर सका। बड़ी मुश्किल से दिव्या को मैरिज के लिए मनाया और आज हेमंत बेटी का कन्या दान कर रहा था।

विवाह की रस्में पूरी हो चुकी है विदाई की बेला नजदीक है, हेमंत अभी भी मेहमानों की सेवा का पूरा ख्याल रखने में व्यस्त है। दिव्या अपने दुबले कृशकाय पिता को देख उसके पास चली आई और बोली, "क्या पापा बहुत बिज़ी हो?"

"अरे नहीं बेटा बस तेरी विदाई की व्यवस्था में लगा हूँ।", हेमंत दिव्या के सर पे हाथ रखते हुए बोला।

"पापा आपने तो अपनी जिंदगी मेरी जिंदगी सँवारने में लगा दी........."

"ऐसा कुछ नहीं बेटा; हर पिता यही करता है, यही जग की रीत है।"

"पापा आज मम्मी की बहुत याद आ रही है.........", दिव्या ने आँखों में आँसू लिए हुए कहा।

"बेटा तुम्हारी मम्मी हमेशा साथ रही है हमारे........"

"हाँ पापा आप ही मम्मी और पापा बने रहे मेरे, जब तक मैं न सीख सकी आपने ही हर काम किया, रोज बाल कंघी किये, मेरा नाश्ता, खाना सब बनाया........."

"सब करते है बेटा.........", कहते हुए हेमंत की आँखें छलक आई।

"क्या है ये पापा......आप ही कहते हो न-लड़के कभी नहीं रोते.....फिर आप क्यों रो रहे हो?", दिव्या ने अपने खुद के आंसुओं के सैलाब को रोकते हुए कहा।

"अरे मैं कहाँ रो रहा, पता नहीं कुछ आँख में गिर गया।", कहकर हेमंत ने अपने आँसू पोंछ दिए।

"अरे भाई समधी जी विदाई की तैयारी करो........", लड़के के पिता ने पास आकर हेमंत के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

"जी बिलकुल......", कहकर हेमंत बेटी की विदाई की तैयारी में फिर से जुट गया।


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