पिंजरे का पंछी
पिंजरे का पंछी


नवविवाहिता जयश्री अपने पति परेश के साथ उस शहर में चली आई थी जहां वह नौकरी करता था।
दोनो का विवाह आपसी रजामंदी और परिवार की सहमति से हुआ था।
कुछ समय तो दोनों का हँसी खुशी व्यतीत हुआ पर परेश धीरे धीरे देर से घर आने लगा। जयश्री पूछती तो परेश का उत्तर होता", काम ज्यादा था।"
जयश्री, "तुम पीकर भी आने लगे हो। कुछ परेशान हो क्या?"
परेश ने बताया कि काम का टेन्शन बहुत ज्यादा है।
जयश्री को परेश का शराब पीना पसन्द नहीं था। पर झगड़े के डर से वह ज्यादा कुछ नहीं कहती थी।
इस सब के चलते जयश्री माँ भी बन गयी पर परेश में सुधार होने की कोई संभावना दिखलाई नहीं देती थी।
दिन पर दिन परेश देर से घर आने लगा। कुछ कहने या पूछने पर झगड़ा करना भी उसकी आदत बन गया था।
बच्ची के सो जाने के बाद जयश्री खिड़की पर बैठी परेश का इंतजार करती। जैसे जैसे देर होती जाती उसके आंसू बहने लगते। वह भगवान से परेश के सकुशल वापस आने की प्रार्थना करती रहती।
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nbsp; जयश्री मेधावी छात्रा थी। उसकी इच्छा विवाह पश्चात किसी कॉलिज में प्रवक्ता बनने की थी। पर परेश की आदतों के चलते उसके सपने धराशायी हो गए। अब वह बच्ची को देख कर ही सन्तोष कर लेती।
अंदर से टूट चुकी जयश्री ने अपनी भावनाओं को कागज पर उकेरना शुरू कर दिया।वह पेन पेंसिल से स्कैच बना कर अपनी व्यथा कम करने का प्रयत्न करती। परेश के आने से पहले वह उन्हें छिपा देती थी।
उसके स्केच मुख्यरूप से जंजीरों में जकड़ी रोती हुई स्त्री, पिंजरे में बंद पक्षी जैसी रचनाये ही होती थीं।
इस प्रकार उसका कष्ट कुछ कम हो जाता था। परेश के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करती रहती इस आशा से कि शायद उसमें सुधार हो जाये। पर कुछ नहीं हुआ।
जयश्री ने अब अपना पूरा ध्यान अपनी बच्ची की परवरिश पर लगा दिया।वह उसे एक अच्छा और स्वाबलम्बी इंसान बनाने का संकल्प कर चुकी थी-
"'मैं इसे पिंजरे का पंछी नहीं बनने दूँगी।"