पाप और पुण्य
पाप और पुण्य
"दया धर्म का मूल हे,
पाप मूल अभिमान,
तुलसी दया न छोड़िये,
जब तक घट में प्राण"।
बात पाप और पुण्य की हो रही है कि पाप और पुण्य क्या हैं और किसे पाप या पुण्य कहा जाता है,
मेरा मानना है, कि पाप और पुण्य दोनों इंसान के अंदर की भावनाओं से जन्म लेते हैं क्योंकि परोपकार करने से पुण्य की प्राप्ति होती है और किसी को पीड़ा देने से पाप की, लेकिन पाप और पुण्य की परिभाषा यहीं खत्म नहीं हो जाती, तो आइये आज हम अपने आप को अजमाते हैं कि हम किस हद तक पाप और पुण्य के हकदार हैं,
मेरा तर्क है की जो प्राणी अपने कार्य को सही ढंग से निभाने के बाद कोई परोपकार करता है वोही पुण्य है और जो अपना कार्य सही ढंग से भी नहीं करता तथा अन्य कार्य में भी किसी को पीड़ा पहुंचाता है वो घोर पाप का अधिकारी है,
कई बार इंसान अपने दिए हुए कार्य को बखूबी से निभाने को ही पुण्य मान लेता है लेकिन वो उसकी डयूटी ही समझी जाती है व उसको ईमानदारी व फर्ज की संंज्ञा मिल सकती है जबकि
इससे हट कर अगर कोई परोपकारी कार्य या किसी असहाय की मदद करता है वो, पुण्य का भागीदार बनता है,
अगर हम शास्त्रों या ग्रन्थों को टटोलें तो उसमें भी अच्छे बुरे कर्मों के अनुसार ही पाप, पुण्य को दर्शाया गया है, कहने का भाव यही है कि कर्म ही प्रधान है इसलिए पुण्य प्राप्त करने के लिए हर प्राणी को अपने कर्मों पर ध्यान रखना पड़ेगा,
क्योंकि जिन कर्मों से मनुष्य नीचे गिरता है उसे पाप कहते हैं और जिन कर्मों से मनुष्य महान बनता है वो पुण्य कहलाते हैं , हालांकि पाप और पुण्य का तराजू ईश्वर के हाथों में है क्योंकि कई बार हमारी सोच में आता है कि
कई पापी हजारों जीवों की हत्या करके भी सुखमय व निरोग जीवन व्यतीत कर रहे होते हैं और कुछ पूरा जीवन समर्पित करके भी दुख भोग रहे होते हैं तो ऐसा कईबार पूर्व जन्मों का प्रभाव भी देखने को मिलता है,
कहने का भाव यह है कि मनुष्य जीवन में आकर हमें श्रेष्ठ कार्य ही करने चाहिए कोई जैसा भी करे,
सच भी है जो कार्य जनकल्याण के लिए हो वो पुण्य कहलाता है क्योंकि जनकल्याण के लिए आरोपीयों को सजा भी जरूरी है, और जो कार्य खुदगर्जी व दूसरों को कष्ट में डाल कर लाभ हेतु हो वो सबसे बड़ा पाप कहलाता है,
अगर हम मंथन करें तो यह सच है हमें मानव शरीर अच्छे कर्मों के लिए मिला है लेकिन लालच में फंस कर हम सब भूल जाते हैं और आखिर पाप के अधिकारी बन जाते हैं,
इसलिए हर प्राणी को अच्छे कर्म करने चाहिए,
देखा जाए कर्म तीन प्रकार के आंके गए हैं, प्रारब्ध कर्म जो हमें पिछले कर्मों के कारण हासिल हुए है, क्रियामाण कर्म जो हम कर रहे हैं और संचित कर्म जो हमें संस्कारों से मिलते हैं तो क्यों न जो हमारे हाथ में हैं उन्हें सुधारने का समय दें तथा अपने आप को पुण्य का भागी बनायें,
अन्त में यही कहूंगा की कर्म ही महान माना गया है तथा अच्छे कर्मों को पुण्य और बुरे कर्मों को पाप कहा गया है
यह सब मानव के हाथों मैं है कि वह अपने आप को किस चीज का भागीदार बनाना चाहता है,
सच कहा है,
"काम करो नित ध्यान से मत करो हराम, कर्मशील बन जाओगे जग में रहेगा नाम'।
लेकिन कई बार मनुष्य बिना सोचे समझे कुछ ऐसे कार्य कर लेता है जिससे अपना धैर्य खो देता है, या चोरी चुगली से परहेज नहीं करता या क्रोध से किसी प्राणी की हत्या तक कर देता है और सोचता है मेरे सभी पाप गंगा जाकर धुल जाएंगे तो ऐसा कभी नहीं होता हमें कर्मशील बनना है कर्महीन नहीं इसलिए अच्छे कर्म ही हमारे पुण्य के भागी हैं,
अटूट सत्य है,
"पाप शरीर नहीं करता विचार करते हैं, गंगा विचारों को नहीं
शरीर को धोती है"।