नज़रिया
नज़रिया
"अच्छा महिन्दरे, माफ़ कर देना यार ! पता नहीं अब लौटना होगा भी या नहीं।"
अपनी जमीन पर काम में जुटे महेंद्र को बोलते हुए आशीष आगे बढ़ गया।
दोनों दोस्त बचपन से गाँव की इसी मिट्टी में खेल कर बड़े हुए थे, जहां एक दोस्त अपनी जमीन की खेती में रम गया था तो दूसरा सेना में भर्ती हो गया था। लेकिन इस बार आशीष अपनी ज़मीन का टुकड़ा बेचकर 'बॉर्डर' पर लौट रहा था और यही बात दोस्त को अखर रही थी।
"नहीं आशी मेरे यार, दुश्मन की गोलियों में इतनी ताकत नहीं हैं कि मेरे दोस्त को छू भी सके।" अभी वह दो कदम ही आगे बढ़ा था कि अपनी जमीन पर 'बुआई' में लगे महेंद्र ने काम छोड़ उसका हाथ पकड़ लिया।
"अरे, मैं तेरे से नाराज कहाँ हूँ ? मुझे तो इस बात का दुःख हैं कि तू पुरखों की जमीन, गाँव के सरपंच के नाम करके वापिस फ़ौज में जा रहा है। न घर वालों की मानी और न मुझे एक बार बताया।"
"अब कब तक बाप-दादा के कर्जे के ब्याज भरता रहता यार। पीढ़ियों के कर्जे से बेहतर हैं कि ज़मीन को ही बेचकर अपने बच्चों को तो आजादी की सांस लेने दूँ, बस यही किया मैंने। और फिर तेरी हालत मुझसे छुपी थी क्या जो तुझसे कुछ मांग सकता महिन्दरे।"
"शायद ठीक कह रहा हैं तू।" महेंद्र की आँखें भी नम हो गयी।
"लेकिन जमीन तो माँ होती है न आशी, उसे ही गैर को दे दिया। नौकरी छोड़ कर खुद भी तो खेती कर सकता था यार।""हां भई, जमीन हमारी माँ तो हैं ही..." अनायास ही आशीष भी गंभीर हो गया। "पर क्या हैं महिन्दरे, घर की जमीन तो गाँव में ही एक भाई से दूसरे भाई के पास गयी हैं न, लेकिन मुझें अपनी 'माँ भारती' का भी तो सोचना हैं जिस पर कई दुश्मन अपनी नजरें गड़ाये बैठे हैं।" अपनी बात पूरी करता हुआ वह तेज कदमों से आगे बढ़ गया।
"तू सही कह रहा है यार।" सोचते हुए महेंद्र के हाथ सहज ही 'सैल्यूट' के लिये उठ गया।