नर्म -गर्म से बाबू जी
नर्म -गर्म से बाबू जी
आज बाबू जी ड्यूटी से लौटे तो उनके चेहरे पर हल्की -सी मुस्कान चस्पां थी। हम सब के लिए यह बड़े आश्चर्य की बात थी। हमारे बाबू जी थोड़ा या कहें ज़्यादा कठोर टाइप के व्यक्ति रहे हैं। उनके सामने हम भाई -बहनों की हालत पीपल के काँपते पत्तों-सी हो जाती थी।
हमारे दो कमरों के घर में एक छोटा- सा रसोईघर था, एक रसोईघर से थोड़ा बड़ा कमरा जिसे (आप बैठक,ड्राइंगरूम या बेडरूम )जो भी कह लें,था। (हाँ ,हाँ, घर में ही टॉयलेट -बाथरूम भी था।)
बाबू जी का हम सब बच्चों में बड़ा ख़ौफ़ था। उनका सामना करने से हम सब बचते रहते थे। शायद वे विद्वान चाणक्य के इस सूत्र पर अधिक विश्वास करते थे , कि एक उम्र के बाद बच्चों से सख़्ती से पेश आना चाहिए। ऐसा करने पर बच्चे ग़लती या ग़लत व्यवहार नहीं करते और पढ़ाई पर ध्यान देते हैं।
पर बच्चे हों और ग़लतियाँ न करें ऐसा असम्भव ही है न! यह भी कटु सत्य है।
हमारे बाबू जी बहुत पढ़े -लिखे और प्रबुद्ध व्यक्ति थे। और प्रेस में कार्यरत भी थे। बड़ा रौब था उनका। पर अपने शिफ़्ट वाली ड्यूटी में से समय निकाल कर वे समाज सेवा भी किया करते।
घर पर ही उनका व्यवहार थोड़ा रुक्ष रहता, आज से 30,32 साल पहले के पिता में ये सब ख़ूबियाँ (या कहें ख़ामियाँ आज के हिसाब से) थीं।
ओह, बाबू जी के मुस्कान की बात पर लेखनी और इस मन ने कुछ ज़्यादा ही खुली छूट ले ली। क्षमस्व।
हम सब में कहाँ हिम्मत कि उनके मुस्काने की वजह पूछें, क्या हुआ? माँ ने यह मोर्चा संभाला और चाय का गर्म कप पकड़ते हुए पूछा ,"कुछ हुआ है क्या आज?"
इस पर हाथ से चाय का कप उठा धीरे -धीरे एक -एक घूँट पीते हुए, बाबू जी बताने लगे,"अरे आज ऑफ़िस से घर जब ट्रेन से आ रहा था तो उतरने के 2 स्टेशन पहले मुझे महसूस हुआ कि किसी ने मेरी पैंट की पिछली जेब में हाथ डाला है। और जब उसने जेब से पर्स को हाथ में पकड़ कर बाहर निकलने की कोशिश की तो, बिना पीछे मुड़े मैंने बगल से उसका हाथ कस कर पकड़ लिया। तभी स्टेशन आ गया तो उसकी कलाई पकड़े- पकड़े ही मैं नीचे उतरा।और उतरते ही एक ज़ोरदार झापड़ रसीद दिया उसके गाल पर , वो बेचारा लड़खड़ा कर ज़मीन पर गिर पड़ा। (अब अचानक किसी को मारेंगे तो गिरेगा ही न!ये हम बच्चे बख़ूबी जानते हैं) अपने चेहरे पर मुस्कान लिए हम बच्चे उत्सुकता से बाबू जी को टुकुर- टुकुर ताकते और उनके किस्से को सुन रहे थे।
बाबू जी आगे बोले,"झापड़ खाते ही वह उठ कर हाथ -पैर जोड़ने लगा और रोते हुए माफ़ी माँगने लगा। जम के शराब भी पी रखी थी उसने, पर एक झापड़ ने सब नशा काफ़ूर कर दिया उसका। पॉकेटमारी भी शायद इसीलिए करता होगा।"
बाबू जी ने चाय ख़त्म की और बोले, "जब पुलिस में देने की बात कही मैंने तो बहुत गिड़गिड़ाया के, "साहब छोड़ दो मुझे, चार बच्चे हैं, मैं जेल चला जाऊँगा तो बच्चे क्या खाएंगे" उसकी बात भी सही थी। मैंने पर्स से 50रुपये (उस ज़माने के हिसाब से अंदाज़ा लगाइये कि कितनी तनख़्वाह थी उनकी और 50 रुपए देना, जिगरे का काम था और घर ख़र्च के लिए माँ को पूरे महीने कितनी जोड़तोड़ करनी पड़ी ये वे ही जानती हैं।ख़ैर।) निकाल कर उसको दिए की ये लो और बच्चों के लिए कुछ राशन-पानी ख़रीद कर ले जाओ और क़सम खाओ के आगे से ऐसा कोई ग़लत काम नहीं करोगे। और काम -धाम करोगे कुछ!'
हम बच्चे बड़े आश्चर्य से बाबू जी को देखे जा रहे थे, इतने कठोर से बाबू जी क्या किसी का दुःख -दर्द भी समझते हैं!!
फिर वे आगे बोले, "उसने शराब पी रखी थी और इतना होश में भी नहीं था। चोरी के लिए भी हिम्मत चाहिए, तो शायद शराब से वह हिम्मत जुटा कर, यह काम कर रहा था। पर एक झापड़ से ही उसका होश ठिकाने आ गया। मतलब मार से भूत और शराब का नशा दोनों ग़ायब हो जाता है" कह कर वे हँसने लगे। और हम बच्चे मुस्कुराने लगे, उनके सामने ठहाके कैसे लगाते!
पर उनकी दरियादिली से हम बच्चे बड़ा गौरव महसूस कर रहे थे। बाद में तो हमने आस पड़ोस के बच्चों को यही कहानी मय मिर्च -मसाले के और अपने बाबू जी को महिमा -मंडित करते हुए कई- कई बार सुनाई।
