निर्वाण से पहले
निर्वाण से पहले
अस्पताल में बीमारी की अथाह पीड़ा सहते सहते तन और मन दोनों ही शिथिल हो चुके थे। कैंसर की इस अंतिम स्टेज पर होने वाली कीमोथेरेपी और तेज दवाइयां निढाल कर रही थी उन्हें और चेतना शून्य भी धीरे-धीरे। पिछले दिनों की कितनी घटनाएं और बातें चलचित्र की तरह घूम रही थी बस मन मस्तिष्क में।
"पता नहीं कब तक झेलते रहेंगे पापा जी? सारी जमा-पूँजी भी खत्म होने को आ रही अब तो। मां! तुम ही बताओ अब क्या करें? बच्चों के खर्च भी पूरे नहीं होते अब इस कमरतोड़ मंहगाई में।"अविनाश की कर्कश आवाज़ थी।
"हां मां, भाई ठीक कह रहा, अब छुट्टी करवा घर ले जाना चाहिए। मुझे भी एक सप्ताह हो गया आए हुए। अब और छुट्टी नहीं ले सकती दफ्तर से और पीछे इन्हें और बच्चों को दिक्कत हो रही, सो अलग.."शिवानी थी यह।
"अरे,अब मैं क्या कहूं? दो महीने से ज्यादा हो गए अस्पताल में धक्के खाते हुए। अब तो मरी हड्डियां भी टूटने लगी इनकी देखभाल करते-करते। बाकी जो उसकी मर्ज़ी होगी, देखा जाएगा।" अम्मा घुटनों को अपने हाथों से पकड़ उठते हुए बोली।
अचानक मनोहर लाल जी को महसूस होने लगा मानो उनके चारों तरफ शोर बहुत बढ़ गया है।
"पापा! मुझे बाइक चाहिए आज ही। कॉलेज में सब लड़के लेकर आते। एक मैं ही इस खटारा स्कूटर पर जाता, सब मज़ाक उड़ाते हैं मेरा।"
"पापा! वीरेन कह रहे हैं कि अंशु की जमनी पर एक शानदार तोहफ़ा तो बनता ही है आपकी तरफ से, आखिर पूरे पांच साल बाद भगवान ने दोहता दिया आपको।"
"सुनिए..इस बार शादी की सालगिरह मनाने महाबलेश्वर चलें, बड़ी तमन्ना है। आखिर तीस साल घर गृहस्थी में उलझकर ही तो बिता दिए..!"
"दादू!दादू..वैसा ताइकल ले दो न..शलभ के जैता, पापा नहीं लेके देते.."
ऐसा लगा मानो एक समुद्र रचा बसा हो चारों तरफ पत्नी और बच्चों की आकांक्षाओं और इच्छाओं का, जिन्हें पूरा करते करते खुद को हवाले कर दिया था उन्होंने उपेक्षा और स्वार्थ की लहरों के और अब गहराई में जाकर ही मुक्ति होनी तय थी उनकी। यही सोच परम पिता परमात्मा से अपनी शांति पूर्ण मुक्ति की प्रार्थना करते हुए पवित्र, संपूर्ण, बिना सपनों वाली निर्बाध नींद की आगोश में चल पड़े।