मन्नत का धागा

मन्नत का धागा

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चाय का कप लेकर फार्म हाउस के कोने में लगे आम के पेड़ के नीचे बिछी आराम कुर्सी पर आकर बैठ गई। यह जगह बरसों से बहुत प्रिय थी आरती को। यही तो वह जगह थी जहाँ बड़े अरमानों के साथ उसने और अमित ने एक हसीं, खुशनुमा जिंदगी के सपने संजोए थे। कॉलेज का साथ बहुत आसानी से जीवन भर के बँधन में बँध गया था, बिल्कुल इस पेड़ पर बँधे मन्नत के धागे की तरह, जिसके नीचे खड़े हो, साथ जीने मरने की कसमें खाई थी दोनों ने।

जीने की बात तो ठीक थी पर मरना कहाँ आसान होता किसी के साथ। शादी के पाँच वर्ष बाद ही कैंसर की भयावह बीमारी की चपेट में आकर हमेशा के लिए छोड़ गया था बीच मंझधार में ही। मासूम अनिकेत और अनामिका के साथ महानगर की मारामारी और व्यापार संभालने के साथ जीवन के पच्चीस वर्ष होम कर दिए थे उसने पर बदले में क्या मिला। अनामिका ब्याह कर लंदन चली गई और अनिकेत भी आस्ट्रेलिया उच्च शिक्षा ग्रहण कर वहीं रह गया हमेशा के लिए, अपनी नई दुनिया में। पैसे का क्या करना, बस चार दिन जिंदगी के शेष, तो यहीं फार्महाउस में चली आई।

"कहाँ खो गई आरती ?" हवा के साथ झूलती आम के पेड़ की डाली पूछ रही थी मानो।

सकपका गई आरती। यादों का हसीं झोंका वृक्ष की पत्तियों से छनकर आ रही शीतल वायु सा लगा। उठकर चलने को हुई तो कदम लड़खड़ा गए। वृक्ष की टहनी को थाम लिया कमजोर हाथों से। अमित के प्रेम से पुष्पित, पल्लवित वृक्ष की मजबूत टहनी से अमित के होने का एहसास मन को प्रफुल्लित कर गया, "बच्चों की जिम्मेदारियाँ पूरी करने के बाद हम दोनों यही आकर बसेंगे और आसपास के क्षेत्र को वृक्षारोपण से हराभरा करेंगे ताकि आने वाली पीढ़ियां खुल कर साँस ले सकें।" यही तो सपना था अमित क, जो अभी पूरा करना है उसे। हवाओं में अमित के मधुर स्वर गूँजते से प्रतीत होने लगे-

"ये वादियाँ, ये फिज़ायें बुला रही हैं तुम्हें,

खामोशियों की सदायें बुला रही हैं तुम्हें।"


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