Sandhya Sugamya

Inspirational Others

5.0  

Sandhya Sugamya

Inspirational Others

"नए आयाम"

"नए आयाम"

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न बारिश रुकने का नाम ले रही थी और न मेरे आँसू। बार- बार मैं आँखों को पोंछती और सोचती कि अब नहीं रोऊँगी पर अन्दर से ऐसा सैलाब सा उमड़ कर आ रहा था कि मन को चैन ही न लगता था। गाड़ी ड्राइव करते समय ड्राईवर कितना भी वाईपर चला ले पर अगर आसमान से बरसती वर्षा तूफानी हो जाए,तो ड्राईवर के लिए सामने देख पाना उसके वश में नहीं रहता। यही स्थिति मेरी हो रही थी। इतने में एक स्कूटी मेन गेट पर आकर रुकी और गेट खुलने की आवाज आई तो मैं लॉबी के दरवाजे की साँकल खोलकर जल्दी से बाथरूम में घुस गयी और अच्छी तरह आँखें और मुँह धोकर बाहर निकली। कहीं वृंदा ने देख लिया तो बेकार ही परेशान होगी।


वृंदा अन्दर आई और हमेशा की तरह उसका रेडियो चालू हो गया। जब तक अपनी छोटी से छोटी बात मुझे सुना न ले, उसके लिए जैसे साँस लेना भी मुश्किल हो जाता था। मैं बिना आँखें मिलाये इधर-उधर बरतन ठीक से रखने में लगी रही और उसकी बातों में हाँ-हूँ करती रही। वृंदा नॉनस्टॉप बोलती जरूर थी पर वह रेडियो या टीवी नहीं थी जो प्रतिक्रिया की उम्मीद न करती। उसे जल्द ही एहसास हो गया कि मैं हाँ हूँ कर रही हूँ पर उसकी बातों को सुन नहीं रही हूँ। रूककर बोली - " ममा! मेरी तरफ देखो ।"


मैंने एक उड़ती सी नज़र उस पर डाली और फिर अपने काम में लग गयी । पर चोरी पकड़ी जा चुकी थी। वृंदा ने मेरा हाथ पकड़ लिया और आश्चर्य से बोली "आप रो रही हो ! क्या हुआ, सब ठीक तो है?"


"हाँ ठीक है। बस सोच रही थी तू चली जाएगी तो मैं कैसे रहूंगी। तेरा क्या होगा"।


"मेरा क्या होगा से मतलब? ममा मैं हॉस्टल जा रही हूँ लड़ाई के मैदान में नहीं । यह रोना धोना क्यों! इतनी मुश्किल से मैंने आई-आई-टी क्लीयर किया है । अभी कल तक तो आप सबको फ़ोन कर करके यह खुशखबरी देने में लगी थीं। पता है, कल पापा मुझसे पूछ रहे थे कि "स्कोर क्या है?" मैंने कहा कि, "पापा,मैं क्रिकेट कहाँ देखती हूँ, मुझे कैसे पता होगा कि स्कोर क्या है।" पापा बोले, "मैं पूछ रहा हूँ कि तुम्हारी मम्मी ने कितने लोगों को फ़ोन कर दिया तुम्हारी सफलता के बारे में बताने के लिये?"


वृंदा धाराप्रवाह बोलती चली जा रही थी।

"ममा, आप तो जानती थीं कि मुझे बी.टेक. करने के लिए हॉस्टल जाना होगा। तो अब क्या हो गया आपको”?


 मेरा काम करने में मन नहीं लग रहा था । मैं लिविंग रूम में जाकर आरामकुर्सी पर बैठ गयी। वृंदा मेरे पीछे-पीछे चुम्बक की तरह खिंची चली आई ।


"वह तो ठीक है, लेकिन तुम्हारे पापा तो सुबह नौ बजे के निकले शाम को छह बजे घर में घुसते हैं । मैं यह पहाड़ सा दिन कैसे काटूँगी!"


"अच्छा, हम इस पर फुर्सत से बात करेंगे ।अभी आप मेरे हाथ की गर्मागरम चाय पीओ।" कहकर वृंदा रसोईघर में चली गयी। वृंदा जानती थी कि मैं इससे थोड़ी देर के लिए राहत जरूर महसूस करुँगी । मैंने आरामकुर्सी पर सर टिकाकर आँखें बंद कर लीं । शादी के बाद के बीस वर्ष बड़ी तेजी से मेरे मस्तिष्क में घूम गए ।


"बाईस वर्ष की थी मैं, जब शादी होकर ससुराल आई। मेरे पति सिर्फ नाम के ही सुदर्शन नहीं थे। लम्बी कदकाठी, गोरा रंग और आत्मविश्वास से भरा रोबीला चेहरा। उनके लिए मुझ जैसी साधारण कदकाठी और साधारण नैननक्श वाली सांवले रंग की लड़की क्यों पसंद की, मेरे ससुराल वालों ने, जल्द ही समझ में आ गया। मेरे पापा ने दानदहेज तो अच्छा दिया ही था,साथ में मेरी माँ ने एक सुघड़ गृहिणी बनने के सारे गुर मेरे पल्ले बाँध दिये थे ।


   

एक के साथ एक फ्री मिल जाये तो लोग खुश हो जाते हैं, पर यहाँ तो मुझे एक (पति ) के साथ पाँच (सास-ससुर ,दो ननद और एक देवर ) फ्री मिले थे । एक जेठ भी थे, वे इसी शहर में अपने परिवार के साथ अलग रहते थे और हर तीज-त्यौहार पर सपरिवार हमारे घर आया करते थे । यानि मेरे लिए त्यौहार का मतलब होता था ,सबके लिये पकवान बनाना और सबकी आवभगत करना । मेरी सास को गठिया बाय की बीमारी थी, वे बैठे -बैठे सब्जी काट देतीं और इतने प्यार से सब काम में मुझे गाइड करती रहतीं कि मैं यंत्रवत काम करती जाती । शायद उनका प्यार ही था जिसके सहारे मैं इतना काम कर पाती थी

शादी से पहले मेरा एकमात्र शौक था - ड्रॉइंग । मैंने "ड्रॉइंग एंड पेन्टिंग" में ही एम.ए.किया था। पोर्ट्रेट,मिनिएचर पेन्टिंग, ऑइल-पेन्टिंग, बाटिक-पेन्टिंग, क्ले-मॉडलिंग और कितने तरह की कलाएँ मुझे सीखने को मिलीं जिनसे मेरी कला में निखार आता चला गया । मैं सोचती थी कि भविष्य में मेरी प्रदर्शनियाँ लगा करेंगी और शिवानी और मन्नू भण्डारी जैसी प्रसिद्ध लेखिकाओं की किताबों के मुख प्रष्ठ पर मेरी पेन्टिंग्स हुआ करेंगी, पर सपने तो सपने हैं ... बिखर जाया करते हैं । पापा मुझे छेड़ते थे कि शादी के बाद जब इसकी सास रोटी माँगेगी तो यह पेपर पर ड्रा करके उन्हें पकड़ा देगी "लीजिये माँजी रोटी खाइये।" और अब पापा यह देखकर द्रवित हो जाते हैं कि रंग,कैनवास, ब्रश, सब छूट गए मुझसे , बस रह गयीं घर की जिम्मेदारियाँ। सास बीमार सी ही रहतीं, ननदें कॉलिज से थककर आतीं और टीवी देखकर अपनी थकान उतारतीं। घर भर के लिए काम करती-करती जब मैं रात को अपने कमरे में पहुँचती तो मुझे कब नींद आ जाती, पता ही नहीं चलता। मेरे पति एक आदर्श बेटे और एक आदर्श भाई थे, वे एक आदर्श पति भी बन सकते थे , इस बात का ख़याल तो उन्हें बहुत सालों बाद आया । मेंरे पास अपने लिए कभी समय ही नहीं रहा ।

                 

जब वृंदा पैदा हुई तो ख़ुशी के साथ-साथ एक कष्टकारी स्थिति भी पैदा हो गयी । बच्चेदानी से खून का रिसाव अत्यधिक मात्रा में हो रहा था। पी.पी.एच. (पोस्टपार्टम हैमरेज) के कारण मेरी हिस्त्रैक्तमी (histractmy ) करनी पड़ी। यानि ऑपरेशन करके बच्चेदानी निकाल दी गयी। अब हमारे आँगन में ठुमकने के लिए वृंदा अकेली थी। मैंने अपनी सारी ममता वृंदा पर ही उड़ेल दी।.कहना न होगा कि वृंदा अपने पापा की भी उतनी ही लाडली थी जितनी मेरी।

              

समय कैसे निकलता चला गया, पता ही नहीं चला। मेरी दोनों ननदें शादी होकर अपने-अपने घर चली गयीं। देवर की शादी हुई तो देवरानी ने पति को बहला-फुसलाकर जल्दी ही अपनी गृहस्थी अलग बसा ली। कुछ वर्षों के बाद पहले ससुर और बाद में सास का साया हमारे सिर से उठ गया। हमेशा चहल-पहल से भरे रहने वाले घर में अब ख़ामोशी और उदासी छाई रहती। माँजी के न रहने पर जब सभी रिश्तेदार आए, उनमें मेरी देवरानी भी थी। एकबार अकेलापन पाते ही मुझसे आँखें चमकाती हुई बोली, "भाभी! अब तो आप मालकिन हो गयीं। माँजी के गहने कपड़े सब अकेले-अकेले मत रख लेना,हमारा भी हक़ है, उन पर।" "उफ़! कैसी ओछी सोच है इसकी!" मेरा सिर भन्ना गया। “इसे माँजी के जाने का कोई गम नहीं। इस वक्त भी इसे गहने-कपड़े की सूझ रही है। क्या इसी दिन के लिए हर माँ अपने बेटे की शादी के सपने सँजोती है, और बहू घर में लाने का अरमान रखती है।"


समय बीतता गया। एक समय था ,जब मैं रोज सात-आठ लोगों का खाना बनाया करती थी,और तीज-त्यौहार पर तो यह संख्या पन्द्रह से बीस तक हो जाया करती थी। और एक आज का समय है ,जब हम तीन ही प्राणी हैं घर में। खाने में जो भी बनाती ,सब फटाफट बनता दीखता। बड़ी कढ़ाई ,कुकर,परात,सब उठाकर रख दिए मैंने। बस किसी के आने पर ही इस्तेमाल करती उन्हें। रोजाना के लिए छोटे -छोटे कुकर ,कढ़ाई ,परात इस्तेमाल करते हुए मुझे बचपन में खेले "घर-घर का खेल "याद आ जाता,जब हम नन्हे-नन्हे बरतनों और अपनी गुड़िया के साथ खेला करते थे।


मुझे अपने पास समय ही समय नज़र आता। मैं और वृंदा खूब सारी बातें करते। वृन्दा ने अपने मितभाषी पापा को भी बोलना सिखा दिया था। अब ये भी काफी बातें किया करते। इनकी प्रेरणा और मार्गदर्शन का ही नतीज़ा था कि वृन्दा आई आई टी की प्रवेश परीक्षा में सफलता हासिल कर पाई। पर अब …अब वह पढ़ने के लिए हमसे बहुत दूर चली जाएगी ,यह सोच सोच कर ही मेरी जान सूख रही थी।


'ममा!' वृंदा चाय लिए खड़ी थी। मैं इतनी देर में, जाने यादों की कितनी झाँकियो के दर्शन कर आई थी। मेरी चाय के हर घूँट के साथ वृन्दा के प्रवचन भी जैसे मेरे गले के नीचे उतरने लगे।


"ममा!"आप बताती हैं न कि आपकी शादी के टाइम पर सेलफोन नहीं हुआ करते थे और जब आप नानी -नाना से बात करना चाहती थीं ,तो आपको ट्रंक-कॉल बुक करानी पड़ती थी.… "


"हाँ !" मैं बीच में ही बोल पड़ी, " एक तो मुश्किल से मिलती थी ट्रंक -कॉल और उसपर भी भी ज्यादा से ज्यादा छह मिनट ही बात कर सकते थे। उसके बाद दोबारा बुक कराओ। "

            

“हाँ। यही तो! यही तो मैं आपसे कहना चाह रही हूँ कि सेलफोन के ज़माने में दूर जाने पर क्या परेशान होना!जब चाहे बात कर लो। मैसेज भेजो।"

               

हाँ, व्हाट्स-एप्प का चस्का तो मुझे भी लग ही चुका था। अब मेरे और वृन्दा के भी आपस में मैसेज हुआ करेंगे।


वृन्दा के हॉस्टल जाने में अभी वक्त था। वह अपने पापा के साथ मिलकर एडमिशन की औपचारिकताओं को पूरा करने में लगी रही और मै उसके कपड़े ,बिस्तर ,कुछ खाने - पीने का सामान और रोजमर्रा की जरुरत की चीजें तैयार करने में लगी रही। ये और वृन्दा साथ-साथ इस पर भी विचार करते रहे कि मेरा मन लगाने के लिए क्या-क्या किया जा सकता है। मुझसे पूछ-पूछकर और मुझे साथ ले जाकर पेंटिंग्स बनाने का बहुत सारा सामान, कैनवास,रंग ब्रश आदि इकट्ठे कर दिए गए और मुझे पिता-पुत्री का आदेश हुआ कि मुझे बाईस वर्ष पहले की उस कलाकार को जगाना है जो परिस्तिथियों के कारण अब तक सोई पड़ी थी।


दूसरा काम यह हुआ कि वृन्दा ने मुझे कंप्यूटर सिखाना शुरू किया। उसने फेसबुक पर मेरा अकाउंट बनाया। सबसे पहले उसने अपने आपको मेरी फ्रेंड बनाया, फिर मुझसे पूछ-पूछकर मेरे रिश्तेदारों और परिचितों को इस साईट पर सर्च किया। मेरे पुराने फ्रेंड्स और सहपाठियों को भी साईट पर तलाश किया गया। वर्षों से जिनसे कोई संपर्क नहीं था, उन्हें तलाश कर पाना मुझे एक अलग ही ख़ुशी दे रहा था। और जो थोड़ा-बहुत संपर्क में थे भी, उनसे जुडने के लिए मुझे एक नया और आसान प्लेटफ़ॉर्म मिल गया था। मुझे यह सब इतना अच्छा लग रहा था कि मैं अपना काम निबटाकर रखती और इंतज़ार करती कि कब वृन्दा मुझे इस जादू के पिटारे पर कुछ और करना सिखाये। जिस वृन्दा को हमने बोलना सिखाया,उंगली पकड़कर चलना सिखाया, अक्षर ज्ञान कराया,पाला-पोसा .…वही आज मेरी टीचर बनी हुई है। सच पूछिए ,अपने बच्चों से कुछ सीखने में कितना मजा आता है,यह वही समझ सकते हैं जिन्हें यह सौभाग्य प्राप्त हुआ हो।


सच, अब मुझे वृन्दा का जाना एक कसक तो पैदा कर रहा था, पर सूनेपन का भयावह अहसास ऐसे गायबहो गया था जैसे धूप की गर्मी पाते ही ओस की बूँदें गायब हो जाती हैं। वृंदा के हॉस्टल जाने के बाद मैंने अपने खालीपन को अपनी नई -नई पेंटिंग्स और कलाकृतियों से भर दिया।


छुट्टियों में घर आने पर वृंदा ने मेरा ब्लॉग बनाया। मेरी कलाकृतियों के फोटो लेकर उसने मेरे ब्लॉग पर डाले और मुझे भी ऐसा करना सिखाया। मुझे बड़ा मज़ा आ रहा था। मेरा वर्षों पुराना शौक ,मेरी कला जैसे कोमा से उठ बैठे थे। मैं प्रदर्शनी लगाने और कवर पेज पर जगह पाने के सपने तो नहीं देख रही थी लेकिन समय बीतने के साथ मेरे ब्लॉग को देखने वाले काफी लोग हो गए थे, और जब उनसे प्रशंसा मिलती तो मेरे मन का कलाकार झूम उठता और दोगुने उत्साह से काम में जुटता। खाली समय में मैं ऐसी साइट्स तलाश करती जो मेरी कला को निखारने में मेरी मदद कर सकती हों। क्या पता उनकी मदद से मेरी कला और ज्यादा कद्रदानों और कला के पारखियों तक पहुँच सके।


सच, ज़िन्दगी रुकने का नाम नहीं है। समय के साथ कदम मिलाकर चलें तो ज़िन्दगी ख़ूबसूरत नज़र आती है। नहीं-नहीं, यह मेरी शिक्षा नहीं है, यह तो मेरा अनुभव है। कहानी का अन्त मैं शिक्षा देकर नहीं करुँगी क्योंकि मैं जानती हूँ कि शिक्षा देने वाली कहानी किसी को पसंद नहीं आती। हमारी वृन्दा की ही सुनिये… जब मैं मायके जाती, वृंदा अपने नन्हे-नन्हे कदमों से ठुमकती हुई नाना की गोद में चढ़ जाती "नाना, कानी(कहानी ) चुनाओ (सुनाओ) । पिताजी अपने मन से कुछ भी कहानी बनाकर सुना देते और फिर उसे समझाते कि देखो इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि बड़ों का कहना मानना चाहिए ,अच्छे बच्चे जिद नहीं करते वग़ैरह -वग़ैरह।तो अब वृन्दा जब भी कहानी सुनाने को कहती, साथ-साथ यह भी कह देती कि "नाना, वो नईं जिछे शिक्चा मिलती है ( वह नहीं, जिससे शिक्षा मिलती है )। और पिताजी इस बात पर देर तक हँसते रहते कि कोई शिक्षा ग्रहण नहीं करना चाहता। नन्ही वृन्दा अपनी गोलमटोल आँखों से पिताजी को ताकती कि नाना हँसते क्यों हैं!



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