नाक - 3

नाक - 3

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“क्या डिप्टी साहब हैं ?” वह आँगन में प्रवेश करते हुए चीखा।

“नहीं,” संतरी ने जवाब दिया, “अभी-अभी गए हैं।”

“शाबास !”

“हाँ,” संतरी आगे बोला, “ज़्यादा देर नहीं हुई, अभी-अभी गए हैं। एक मिनट पहले आते तो आप उन्हें घर में पाते।”

चेहरे से रूमाल हटाए बिना कवाल्योव गाड़ी में बैठ गया और उड़ी-उड़ी आवाज़ में बोला, “चलो !”

“कहाँ,” गाड़ीवान ने पूछ लिया।

“सीधे चलो।”

“सीधे कैसे ? यहाँ मोड़ है, दाँए या बाँए ?”

इस प्रश्न ने कवाल्योव को सोचने पर मजबूर कर दिया। उसकी स्थिति को देखते हुए तो यही उचित था कि सबसे पहले पुलिस मुख्यालय में जाया जाए, इसलिए नहीं कि उसका पुलिस से संबंध था, बल्कि इसलिए कि अन्य विभागों की अपेक्षा उनकी कार्र्वाई शीघ्रता से होती थी, उस मुहल्ले के अफ़सर की सहायता से नाक के सेवास्थल की जाँच करना बेवकूफ़ी होती, क्योंकि नाक द्वारा दिए गए जवाबों से यह तो पता चल ही चुका था कि इस व्यक्ति के लिए निष्ठा, पवित्रता नामक चीज़ों का कोई अस्तित्व ही नहीं था, वह इस बारे में झूठ भी बोल सकता था, जैसे कि उसने यह झूठ बोला था कि वह उससे कभी मिला ही नहीं है। इसीलिए कवाल्योव पुलिस मुख्यालय चलने की आज्ञा देने ही वाला था कि उसके दिमाग में यह ख़याल आया कि यह धोखेबाज़, डाकू, जो पहली ही मुलाकात में इतनी बेशर्मी से पेश आया था, समय का फ़ायदा उठाकर शहर से खिसक भी सकता था, और तब उसकी तलाश जारी रहती– ख़ुदा न करे महीनों तक, अंत में, शायद भगवान ने ही उसे प्रेरणा दी। उसने निश्चय किया कि वह अख़बार के दफ़्तर में जाएगा और सभी विशेषताओं सहित उसके बारे में इश्तेहार देगा, जिससे कि देखते ही उसे कोई भी पकड़ कर कवाल्योव के पास ले आए या फिर उसका ठौर-ठिकाना बता सके।

तो उसने गाड़ीवान को अख़बार के दफ़्तर में चलने की आज्ञा दी और पूरे रास्ते उसे यह कहते हुए धमकाता रहा, “जल्दी, कमीने ! जल्दी, बदमाश !” – “ओह, मालिक !” गाड़ीवान अपने सिर को झटका देते-देते घोड़े की लगाम खींचते हुए जवाब देता। आख़िरकार गाड़ी रुक गई और कवाल्योव गहरी-गहरी साँस लेते हुए नन्हे-से स्वागत-कक्ष में घुसा, जहाँ सफ़ेद बालों वाला एक कर्मचारी, पुराना कोट और चश्मा पहने मेज़ के पीछे बैठा था और दाँतों में कलम दबाए हाथों से ताँबे के सिक्के गिन रहा था।

“इश्तेहार कौन लेता है ?” कवाल्योव चीखा। “आह, नमस्ते !”

“मेरा नमस्कार,” बूढ़े क्लर्क ने कहा, और एक मिनट के लिए आँखें उठाकर दुबारा सामने पड़े पैसों के ढेर पर टिका दीं।

“मैं छपवाना चाहता हूँ।”

“कृपया थोड़ा ठहरिए,” क्लर्क बोला, “एक हाथ से कागज़ पर एक अंक लिखकर दूसरे हाथ की उँगलियों से उसने सामने पड़े गणक के दो दाने खिसका दिए।

झालरदार कमीज़ वाला चपरासी, जो अपने अंदाज़ से यह दिखा रहा था कि वह किसी सामन्त के घर में काम करता है, मेज़ के पास एक चिट हाथों में लिए खड़ा था। उसने अपनी मिलनसारिता दिखाना उचित समझा :

“यकीन कीजिए, साहब, कुत्ता आठ कोपेक का भी नहीं है, याने मैं उसके लिए आठ कोपेक भी नहीं देता, मगर सरदारिन साहेबा उसे बहुत चाहती हैं, प्यार करती हैं और उसे ढूँढ़ने वाले को सौ रूबल, शिष्टाचारवश कहूँ तो, जैसे कि हम हैं और आप हैं, सब की पसन्द एक-सी तो नहीं होती, मगर इतना ही शौक है, तो अच्छी किस्म के कुत्तों के लिए पाँच सौ, हज़ार भी दे दो...मगर, अच्छा ही था कुत्ता...।

क्लर्क बड़े ध्यान से इस बात को सुनते हुए अपना हिसाब भी करता जा रहा था, देखता जा रहा था कि चिट में कितने अक्षर हैं। अगल-बगल कई बूढ़ियाँ खड़ी थीं, सामन्तों और व्यापारियों के सेवक भी थे पुर्जों के साथ। एक में लिखा था, कि एक बहादुर गाड़ीवान नौकरी चाहता है, दूसरे में कम इस्तेमाल की गई, 1814 में पैरिस में खरीदी गई गाड़ी बेचना है, कोई उन्नीस साल की छोकरी नौकरी चाहती है, जो धोबन के अलावा अन्य काम भी कर सकती है, मज़बूत गाड़ी बिना किसी मरम्मत के, जवान फुर्तीला घोड़ा भूरे धब्बों वाला, सत्रह साल का, लंदन से मँगवाया गया; गाजर और चुकन्दर के बीज, समर-कॉटेज सभी सुविधाओं सहित, घोड़ों के लिए दो अस्तबल और एक खुले मैदान सहित जिसमें बर्च के वृक्षों का वन लगाया जा सकता है, जूतों के पुराने सोल बेचने की बात थी, जिसके लिए खरीदारों को सुबह आठ बजे से तीन बजे तक आने के लिए कहा गया था।

वह कमरा, जहाँ यह पूरा हुजूम था, छोटा-सा था और उसमें दम घुट रहा था, मगर मेजर कवाल्योव को कोई दुर्गन्ध महसूस नहीं हो रही थी, क्योंकि उसने रूमाल से चेहरा ढाँक रखा था और इसलिए भी कि उसकी ‘नाक’ न जाने कहाँ घूम रही थी।

“आदरणीय महोदय, क्या मैं प्रार्थना कर सकता हूँ…यह बहुत ज़रूरी है...” आख़िर उसने बेचैनी से कह ही डाला।

“रुको, रुको ! दो रूबल तैंतालीस कोपेक, एक मिनट में, एक रूबल चौंसठ कोपेक।” सफ़ेद बालों वाला बूढ़ियों और चपरासियों की ओर पुर्जे फेंकता हुआ बोला।

“आप को क्या चाहिए ?” आख़िरकार उसने कवाल्योव से पूछा।

“मैं निवेदन करता हूँ...” कवाल्योव बोला, “डाका पड़ा है या बदमाशी हुई है, मैं अभी तक समझ नहीं पाया। मैं सिर्फ इतनी विनती करता हूँ कि यह छापिए कि उस कमीने को मेरे पास लाने वाले को भरपूर इनाम दिया जाएगा।”

“माफ़ कीजिए, आपका नाम ?”

“नहीं, नाम की क्या ज़रूरत है ? मैं बता नहीं सकता, मेरे कई जान-पहचान वाले हैं: चेख्तारेवा, बड़े अफ़सर की पत्नी, पेलागेया ग्रिगोरेव्ना पदतोचिना, कर्नल की पत्नी...अचानक सब को पता चल जाएगा, ख़ुदा बचाए ! इतना लिखिए : सुपरिंटेंडेंट ...मेजर.”

“भागने वाला आपका सेवक था ?”

“कैसा सेवक ? यह तो कोई बात नहीं है ! गुंडागर्दी वाली बात है. भागी है...नाक...!”

“हूँ, कैसा अजीब नाम है ! क्या महाशय नाक बड़ी रकम लेकर भागे हैं ?”

“नाक...मतलब...आप गलत समझ रहे हैं. नाक...मेरी अपनी नाक न जाने कहाँ खो गई है. शैतान को मेरा मज़ाक करने की ख़ूब सूझी !”

“ऐसे कैसे गुम हो गई ? मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा।”

“मैं बता नहीं सकता कि कैसे: मगर ख़ास बात यह है कि इस समय वह पूरे शहर का चक्कर लगा रही है और स्वयं को उच्च श्रेणी का अफ़सर कहती है। इसीलिए मैं आपसे ऐसा इश्तेहार छापने की दरख़्वास्त करता हूँ, कि उसे पकड़ने वाला उसे फ़ौरन मेरे पास ले आए। आप ख़ुद ही फ़ैसला कीजिए कि शरीर के इतने महत्वपूर्ण अंग के बिना मैं कैसे रह सकता हूँ ? यह कोई पैर की छोटी उँगली तो नहीं है जिसे मैं जूते में छिपा लेता और कोई जान भी न पाता कि वह नहीं है। मैं हर गुरुवार को उच्च श्रेणी के अफ़सर की पत्नी चेख्तारेवा के यहाँ जाता हूँ, पोद्तोचिना पेलागेया ग्रिगोरेव्ना, कर्नल की पत्नी भी, जिसकी बेटी बड़ी सुन्दर है, मेरी अच्छी परिचित है और अब आप ही बताइए मैं कैसे...अब तो मैं उनके पास जा ही नहीं सकता।”

क्लर्क गहरी सोच में डूब गया, उसके होंठ भिंच गए।

“नहीं, मैं अख़बारों में ऐसा इश्तेहार नहीं दे सकता,” बड़ी देर की ख़ामोशी के बाद उसने कहा।

“क्या ? क्यों ?”

“हाँ, हमारे अख़बार की प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी। अगर हर कोई यह लिखने लगे कि उसकी नाक भाग गई है, तो...वैसे भी लोग कहते हैं कि कई अनाप-शनाप बातें और झूठी अफ़वाहें छपती हैं।”

“यह बात अनाप-शनाप कैसे हुई ? यहाँ तो ऐसी कोई बात ही नहीं है।”

“ऐसा आप सोचते हैं, कि कोई बात नहीं है। मगर पिछले ही हफ़्ते ऐसा किस्सा हुआ था। ऐसे ही एक कर्मचारी आया, जैसे अभी आप आए हैं, और एक कागज़ का पुर्जा लाया, मेरे हिसाब से दो रूबल तिहत्तर कोपेक बनते हैं, और इश्तेहार यह था कि काले रंग का कुत्ता भाग गया है...आप पूछेंगे कि इसमें क्या बात थी ? तो, सम्मन आ गया : कुत्ता तो सरकारी था, याद नहीं किस विभाग का था।”

“पर मैं तो कुत्ते के बारे में इश्तेहार नहीं दे रहा हूँ, बल्कि अपनी...मेरी अपनी नाक के बारे में, याने कि अपने ही बारे में कह रहा हूँ।”

“नहीं, इस तरह का इश्तेहार मैं अख़बार में नहीं डाल सकता...”

“मेरी नाक सचमुच गुम हो जाए तब भी ?”

“अगर गुम हो गई है तो यह डॉक्टर का काम है। कहते हैं कि ऐसे लोग हैं, जो किसी भी तरह की नाक लगा सकते हैं। मेरा ख़याल है कि आप मज़ाकिया किस्म के आदमी हैं और मज़ाक करना आपको अच्छा लगता है।”

“ख़ुदा की कसम खाकर कहता हूँ ! अगर बात यहाँ तक पहुँची है, तो मैं आपको दिखा देता हूँ...”

“मैं क्यों बेकार में परेशानी मोल लूँ,” बाबू ने नसवार सूँघते हुए कहा, “मगर यदि परेशानी वाली बात न हो तो,” उसने उत्सुकता से आगे कहा, “ तो, मैं देख सकता हूँ।”

सुपरिंटेंडेंट ने चेहरे से रूमाल हटाया।

“सचमुच बड़ी अजीब बात है,” बाबू ने कहा, “जगह बिल्कुल चिकनी है जैसे अभी-अभी पकाया हुआ पैनकेक ! अविश्वसनीय रूप से समतल !”

“तो, आप अब भी बहस करेंगे ? आप ख़ुद ही देख रहे हैं कि बिना छपवाए काम नहीं चलेगा, मैं आपका बहुत शुक्रगुज़ार रहूँगा, मैं बहुत ख़ुश हूँ कि इसी बहाने आपसे मुलाकात हुई...”

मेजर ने इस बार शायद कुछ चापलूसी करने की ठानी थी।

“छापना तो, बेशक, कोई बड़ी बात नहीं है,” बाबू ने जवाब दिया, “मगर मैं नहीं समझता कि इससे आपका काम बनेगा। अगर आप चाहें तो किसी ऐसे आदमी से लिखवाइए, जो बड़ी ख़ूबसूरती से लिखता हो उसे कुदरत के इस अद्भुत करिश्मे को एक लेख के रूप में लिखकर “उत्तरी मधुमक्खी” में (उसने फिर नसवार सूँघी) नौजवानों के फ़ायदे के लिए (अब उसने नाक पोंछी) या फिर जनता के मनोरंजन के लिए छापना चाहिए।”

सुपरिंटेंडेंट बिल्कुल निराश हो गया. उसने नीचे रखे अख़बार पर नज़रें झुकाईं, जहाँ थियेटरों के कार्यक्रमों के बारे में जानकारी थी, हीरोइन का नाम पढ़कर, जो बड़ी ख़ूबसूरत थी उसका चेहरा मुस्कुराने को तैयार ही था। उसका हाथ अपनी जेब की ओर गया यह देखने के लिए कि उसमें नीला नोट है या नहीं, क्योंकि मेजरों को, कवाल्योव की राय में, कुर्सियों पर बैठना होता है...मगर, नाक के ख़याल ने सब गुड़-गोबर कर दिया।

बाबू भी कवाल्योव की हालत देखकर द्रवित हो चला था, उसे कुछ सांत्वना देने के उद्देश्य से उसने सोचा कि अपनी सहानुभूति को संक्षेप में कह दिया जाए।

“मुझे, सचमुच, बेहद अफ़सोस है कि आपके साथ यह मज़ाक हुआ है. क्या आप थोड़ी नसवार सूँघना चाहेंगे ? इससे सिर का दर्द दूर हो जाता है और निराशा के ख़याल छँट जाते हैं, अर्धशीशी के दर्द में भी फ़ायदा करती है।”

ऐसा कहते हुए बाबू नसवार की डिबिया, टोप पहनी हुई महिला के चित्र वाले ढक्कन को खोलकर, कवाल्योव की नाक के बिल्कुल पास ले गया।

इस बेसोची-समझी हरकत ने कवाल्योव को आपे से बाहर कर दिया।

“समझ में नहीं आ रहा है कि आप हर जगह मज़ाक कैसे कर लेते हैं,” उसने अत्यंत दुखी होते हुए कहा, “क्या आप देख नहीं सकते कि मेरे पास वह नहीं है, मैं सूंघ कैसे सकता हूँ ? शैतान आपकी नसवार छीन ले। मैं तो अब उसकी ओर देख भी नहीं सकता, न सिर्फ आपकी सस्ती, सड़ी तम्बाकू की ओर, बल्कि महँगी से महँगी तम्बाकू की ओर भी नहीं।”

इतना कहकर बहुत अपमानित महसूस करते हुए वह अख़बार के दफ़्तर से निकला और थानेदार की ओर चल पड़ा जिसे शक्कर बहुत पसन्द थी। उसके घर के नन्हे-से हॉल को, जो डाइनिंग रूम भी था, शक्कर के खिलौनों से सजाया गया था, जिन्हें दोस्ती की ख़ातिर व्यापारी ले आया करते थे। इस वक्त महाराजिन थानेदार के पैरों से भारी-भरकम जूते उतार रही थी, तलवार और दूसरे शस्त्र शांतिपूर्वक कोनों में लटक रहे थे, और उसकी भारी-भरकम तिकोनी टोपी से उसका तीन साल का बेटा खेल रहा था, और वह झंझटों, टंटों भरी, गाली-गलौज वाली ज़िंदगी के पश्चात् अब जीवन की ख़ुशियों का आस्वाद लेना चाहता था।

कवाल्योव उस वक्त कमरे में घुसा जब थानेदार आलस लेते हुए उबासी के साथ कह रहा था: “अब दो घण्टों के लिए लम्बी तान दूँगा !” और इसीलिए अनुमान लगाया जा सकता है, कि सुपरिंटेंडेंट का प्रवेश सही समय पर नहीं हुआ था, और मैं कह नहीं सकता कि भेंट स्वरूप कुछ पौण्ड चाय और कुछ कपड़े लाने के बावजूद भी इस समय उसका स्वागत गर्मजोशी से हुआ या नहीं। थानेदार यूँ तो सभी कलात्मक वस्तुओं एवम् कारखानों की बनी वस्तुओं का प्रशंसक था, मगर सरकारी नोटों को प्राथमिकता देता था। “यह चीज़,” वह अक्सर कहता, “इससे अच्छी कोई और चीज़ नहीं है: खाने को माँगती नहीं, जगह भी बहुत कम घेरती है, जेब में हमेशा समा जाती है, गिरा दो तो टूटती भी नहीं है।”

थानेदार ने कवाल्योव का बड़ा रूखा स्वागत किया और फ़ब्ती कसी कि कहीं भोजन के बाद भी खोज-बीन की जा सकती है, प्रकृति ने ही यह नियम बनाया है, कि भरपेट खाने के बाद थोड़ा आराम करना चाहिए। [इससे सुपरिंटेंडेंट को पता चला कि थानेदार को प्राचीन विद्वानों की उक्तियों का ज्ञान था] और किसी भलेमानस की नाक कभी कोई नहीं काटता, और दुनिया में ढेरों मेजर ऐसे हैं जिनका कच्छा भी ढंग का नहीं होता और जो हर गन्दी जगह पर मंडराते रहते हैं।

मतलब, भँवों पर नहीं- सीधे आँखों पर ! ग़ौर करना होगा कि कवाल्योव बड़ा ही संवेदनशील व्यक्ति था। वह अपने व्यक्तित्व के बारे में कही गई किसी भी भद्दी से भद्दी बात को माफ़ कर सकता था, मगर यदि कोई उसके पद या ओहदे का अपमान करे, तो वह बर्दाश्त नहीं कर सकता था। वह ऐसा भी मानता था कि थियेटर के नाटकों में हर उस चीज़ को कहने की इजाज़त होनी चाहिए, जो कैप्टेन से नीचे वाले अफ़सरों से संबंधित हो, मगर उससे ऊपर के अफ़सरों को कभी भी निशाना नहीं बनाना चाहिए. थानेदार के स्वागत से वह इतना बौखला गया कि उसने अपना सिर झटक कर, हाथ फैला कर स्वाभिमान की भावना से कहा, “मैं मानता हूँ कि आपके द्वारा की गई इन अपमानास्पद टिप्पणियों के पश्चात् मैं आगे कुछ भी नहीं कह सकता...” और बाहर निकल गया ।


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