मुखौटे

मुखौटे

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जेल मे कैद वो किसी को कुछ नहींं बता रही थी। दूसरी ओर तेजतर्रार पत्रकार सीमा.. जो सब सच उगलवाने मे माहिर।


"सही कर रही हो, किसी को क्या मतलब। तुम्हारी जिंदगी हैं। नहीं चर्चा करनी तो मत करो।" पत्रकार महोदया ने पांसा फेंका।


"फिर तुम क्यों आयी हो?" वो बेरूखी से बोली।


"अपनी बताने..."


"तुम्हारी.... तुम्हें क्या बताना है?"


"अब क्या बताऊँ? घर से सालों से दूर हूँ। कभी किसी ने मुझे नहीं समझा, अकेले लड़ती रही अपनी लड़ाई। परिवार से कुछ ज्यादा भावनात्मक लगाव नहीं रहा।" सीमा ने हमदर्द बनना चाहा।


"होता है, ऐसा भी होता है। अब तो सब सही हैं। तुमने जो चाहा, वो पाया" वो बड़बड़ाई।


"यही तो, तुम्हें भी मिल जाता। थोड़ी हिम्मत और बनायें रखती। क्यों मार डाला अपनी छोटी बहन को? इतनी ईर्ष्या, वो भी अपनी ही बहन से। निष्ठुर, पाषाण क्यों बन गयी थी?" सीमा ने उसके जख्म कुरेदे।


"ईर्ष्या? छुटकी से, मेरी जान थी वो...." उसकी आवाज मे दर्द था।


"अरे छोड़ो, अब तुम बातें बना रही हो..."


"तुम नहीं समझोंगी। हर चेहरे पर मुखौटा चढ़ा है। अंदर छुपा है वास्तविक स्वरूप...जिसे कौन देख पाया है?? "


"अरे...तुम तो पढ़ी लिखी लग रही हो, कहाँ तक पढ़ी हो तुम..." उसके दार्शनिक सोच से सीमा चौंक गयी।


"बहुत इच्छा थी पढ़ने की, कुछ करने की, पर पहले ही कुचल दी गयी, क्योंकि सब को डर था...." उसने अपना दर्द सीमा से सांझा करना शुरू कर दिया। 


"कैसा डर..."


"लोग क्या कहेंगें, ज्यादा पढ़ी लड़की को शादी के लिए अच्छा लड़का नहींं मिलता ना। पहना दी गई समाज की बेड़ियाँ। पहरा लगा दिया गया रस्मों रिवाज का। शादी कर दी गयी और दायित्व से मुक्त हो गए।"


"ओह्ह....ससुराल के लोग भी दकियानूस रहे होंगे..."


"नहीं...सीधे ही लगे मुझे तो। शादी के तुरंत बाद पति के साथ शहर आ गयी थी। मेरी किस्मत अच्छी थी, मैंने आगे पढ़ाई शुरू कर दी। अपनी छुटकी को भी बुला लिया था।" वो पुरानी यादो से कुछ प्रसन्न लगी।


"और वो पढ़ने मे काफी होशियार निकली, उसे देख कर बाकी बच्चियों के लिए शहर के रास्ते खुलने लगे थे। बेड़ियाँ टूट रही थी, तभी जलने लगी ना तुम उससे क्योंकि गाँव वाले उसे आदर्श मानने लगे थे...." सीमा ने सीधे सीधे आरोप दोहराया।


"जलन??? आदर्श???? हाँ...आदर्श ही तो बने रहने दिया उसे। जिससे गाँव से शहर के रास्ते बंद ना हो जाए। बेड़ियाँ टूटने को निर्लज्ज, बेकाबू होना ना समझा जाए। स्वतंत्रता को उद्दंडता ना समझा जाए" वो टूट गयी, बिलख उठी।


"किसी को पता नहीं चलने दिया मैंने कि छुटकी कि रातें कहाँ कटने लगी थी।

कैसे बड़ी गाडियों मे उसके दोस्त आते थे। किसी के समझाने का कोई असर नहीं था। 

वो भी यही कहती थी मै उसकी आजादी से जलती हूँ। महँगे शौक पाल लिए थे उसने, जिस वजह से दूसरी बार थाने से छुड़वा कर लायी थी उस दिन। क्या करती मैं? उसे आदर्श ही बने रहने दिया और मैं खुद पतिता बन गयी..."


सीमा पत्रकारिता भूल, बुत बनी उसकी व्यथा महसूस कर रही थी। इस महान पतिता का बलिदान व्यर्थ नहीं जाना चाहिए...वो भी चुप ही रहेगी!!!


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