मुखौटा
मुखौटा
बात उन दिनों की है। जब संजना स्कूल में थी। बारहवीं कक्षा में रहे होंगी हम दोनों उस समय, और वो मेरे सबसे करीब.... मैं अक्सर उससे ही कही अनकही साझा किया करती थी। उसके बिना था, भी कौन जिससे मन की कभी कही हो। बात कुछ यूं हुई कि एक दिन कोई और आ गया था उसकी ज़िंदगी में और वो कोई और बहुत खास था। दोनों ने बहुत सुंदर सपने सजाए थे। दोनों के परिवार भी जानते थे एक दूसरे को। लेकिन परिस्थितियां कुछ और ही चाहती थीं।
बहुत कोशिश के बाद भी वो अलग हो गए। पर एक दूसरे के प्रति मान सम्मान दोनों में बरकार था। कभी कभी सुख दुःख बांट लिया करते थे। क्यूंकि दोस्ती भी तो बहुत गहरी थी।
साल बीतते गए, पर कभी मिलना न हुआ। मुझे अचानक शिमला जाना पड़ा जो कि सूरज का शहर था। उस शहर से बहुत यादें ताजा हो गई थी। मैने सोचा सूरज को फोन करके कहीं पूछ लिया जाए कि कहीं बाहर मिलें या मैं तुम्हारे घर आ सकती हूं। सूरज ने पूछा क्या संजना
भी तुम्हारे साथ है। मैने कहा नहीं क्या हुआ। उसने कहा घर ही आ जाओ मिलकर बात करते हैं। मैं सूरज से मिलने उसके घर चली गई वहां उसका पूरा परिवार मौजूद था। मेरी सभी से बात हुई लेकिन मैने इंसानियत को उस दिन बहुत जार जार होते देखा। उन सबके दिलों में संजना के लिए जो भाव भरे हुए थे उन्हें सुनकर मैं दंग रह गई। जो लोग संजना को इतना चाहते थे, उसकी इतनी इज्जत किया करते थे खासकर सूरज और वही उसके लिए पीठ पीछे इतना गलत कोई कैसे कर सकता है। और सूरज से मैं कुछ कहने को निशब्द हो गई थी।
मैं वहां से वापस आ गई और घंटों सोचती रही की इंसान के कितने चेहरे हैं। आज का समय में लोग कितने दोगले चेहरे लिए हुए हैं। मैने संजना को फोन किया और सारा वाक्या बताया। आज दोनों के बीच एक रेखा खिच गई संजना ने चाह कर भी सूरज से कभी कुछ नहीं पूछा। शायद यही है। दुनियां का दस्तूर"एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग"।