एक बुजुर्ग की कहानी
एक बुजुर्ग की कहानी
मैं रामप्रसाद अब बुजुर्ग हो चुका था। मेरी सारी उमर जिंदगी से जद्दोजहद करने में बीती थी। सबकी जरूरतें पूरी करते करते अपनी जरूरतों को पूरा करना भूल गए थे। उमर भर बस अपनों के लिए पूंजी जमा करने में निकाल दी थी। कभी खयाल ही नहीं आया की ऐसा भी एक दिन आएगा कि खुद का बेटा ही भरी बरसात में घर से निकलने को कह देगा। क्या इसी दिन के लिए मैंने मकान बनाया , और मेरी पत्नी ने ईंट पत्थर के मकान को घर बनाया था। और हमने पढ़ने के लिए उसे विदेश भेजा था। पत्नी भी अकेला छोड़ कर जा चुकी थी। एक इकलौता सहारा बस बेटा ही था। ये सोच सोच कर बस मैं बारिश में न जाने कहां चला जा रहा था। बेटी दूर थी, वो होती तो शायद मेरे ये हालात न होते, इन बूढ़ी आंखों को बस यही देखना बाकी रह गया था।
मु
झे ठोकर लगी और मैं सड़क के बीचों बीच कंधे पर छोटे से बैग को लिए जिसमें मेरे कुछ कपड़े थे, गिर पड़ा। और अचानक मेरे सिर के ऊपर छाता लिए ये कौन खड़ा था। देखा तो, आंखें छलक पड़ी। सामने बिटिया थी। उसने मुझे उठाया और गले लगाकर खुद रो पड़ी। ये क्या हाल हो गया पापा, उसने मुझे कहा आपने एक फोन करके मुझे बुला लिया होता। अगर घर के सामने से आंटी मुझे फोन करके न बतातीं तो मैं आपको कहां ढूंढती। आपने न जाने कुछ खाया भी है या नहीं। आप घर चले आते मैं भी तो आपकी बेटा ही हूं। चलो पहले घर चलते हैं। मेरी बूढ़ी आंखें ये देख रहीं थीं जिन बेटियों को हम शादी करके पराया कर देते हैं। मां बाप की असली फिकरमंद वही बेटियां होती हैं।
यही हैं आज के हालातों की कहानी।।