मथुरी
मथुरी
"सतुरी मथुरी झंडु झकरी थामा ल्वार" यह किसी गीत की पंक्ति नहीं बल्कि प्रकृति के अत्याचार से मानसिक अक्षमता के साथ जीवन जीने वाले,झंडु लोहार के पुत्र थामा को चिढ़ाने के लिए बच्चे यह पंक्ति जोर-जोर से बोला करते थे और थामा प्रत्युत्तर- स्वरूप उनके पीछे पत्थर फेंकता था। साथ ही यह पंक्ति झंडु लोहार के परिवार के पाँचो सदस्यों के नाम से भी परिचित कराती थी। झंडु लोहार जिन्हें गाँव वाले नातानुसार आदर-पूर्वक झंडु दा,झंडु काका, झंडु बाडा आदि कहते थे।वे एक कर्मठ व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे, उनके बनाए हुए तथा पैने किए गए हथियारों की धार की चर्चा केष्टा गाँव में ही नहीं बल्कि पूरे इलाके में थी। उनकी पत्नी झकरी एक सभ्य महिला थी जो तन-मन से अपने पति का साथ देती थी।भट्टी तेज करने की दोनों धौंकनियों के बीच में बैठकर जब वह एक लय के साथ क्रमशः दोनों हाथों से धौंकनियाँ चलाती थी तो ऐसा लगता था मानो वह किसी दीर्घकाय नगाड़े को शब्दमान कर रही हो अथवा दोनों हाथों से यज्ञकुंड में आहुति देकर यज्ञाग्नि को तीब्रतर करती जा रही हो।ऐसे कर्मनिष्ठ दम्पत्ती के घर तीन बच्चों सतुरी,मथुरी और थामा ने जन्म लिया। यह विधि की विडम्बना थी या झंडु-झकरी के पूर्व-जन्म के कर्मों का फल कि तीनों बच्चे मानसिक अक्षमताओं के साथ इस भू-लोक में आए। माता-पिता के लिए तो अपने बच्चे कलेजे के टुकड़े होते हैं, उनके प्रेम के समक्ष बच्चों की योग्यता अथवा अयोग्यता की अपेक्षा ही अन्याय है।
अब मैं इस परिवार के चार सदस्यों को छोड़कर परिवार की छोटी बेटी की ओर आप सबका ध्यान आकृष्ट करता हूँ।मथुरी कृष्णवर्णा, चपटी नाक, मुखमंडल पर गहराई में धँसी हुई आँखों वाली नाटे कद की थी। आर्थिक तंगी व उसकी मानसिक अक्षमता के कारण माता-पिता ने उसकी शिक्षा-दीक्षा पर ध्यान नहीं दिया। बचपन से ही माता-पिता के कार्यों में हाथ बँटाने से वह मेहनत करना सीख गई थी।मानो मेहनत ही उसे प्राप्त पैतृक-सम्पत्ति थी।समय के साथ-साथ मथुरी कब बड़ी हो गई पता ही नहीं चला। भारतीय परंपरा में जवान बेटी को ससुराल के लिए विदा करना ही माता-पिता को आनंदित करता है, वह खुशी का दिन भी आया, मथुरी का विवाह पड़ोसी गाँव के गिंदा के साथ हुआ और वह पति के साथ रहने लगी।विधाता की क्रूरता की थाह पाना मनुष्य के वश में नहीं, भाग्य के क्रूर प्रहार ने मथुरी की माँ को परलोक भेज दिया। क्रमशः भाई, बहन और पिता गोलोकवासी हो गए। मानो विधाता उसे दुःख का बड़ा से बड़ा बोझ उठाने का प्रशिक्षण दे रहा हो। इसी बीच एक क्षीण सी आशा-किरण उसके जीवन में जगी, घर में एक बिटिया ने जन्म लिया। मथुरी ने स्नेह से अपनी छुट्टी को छाती से लगा लिया। उसे लगने लगा साक्षात् लक्ष्मी ही उसकी छुट्टी बनकर आयी है।उसको दुलार करने में समय शनैः-शनैः कटने लगा। लेकिन मथुरी की परीक्षा अभी शेष थी। बीमारी ने उसके पति गिंदा को घेर लिया और कुछ वर्षों पश्चात वह भी अपनी पत्नी मथुरी और बेटी छुट्टी को रोता-बिलखता छोड़ देहावसान से आरंभ होने वालीअनंत यात्रा पर निकल पड़ा। अब मथुरी मायके में छुट्टी के साथ पैतृक घर में रहने लगी। वह लोगों के साथ दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करती और बेटी तथा अपने लिए रूखा-सूखा जुटा पाती। लोगों की गायों के लिए घास काटना, फसल की निराई-गुड़ाई-कटाई-मँडाई, हर रोज किसी न किसी के घर में झंगोरा अथवा धान की कुटाई, जंगल से लकड़ी लाना, सुदूर खाली खेतों में गोबर डालना और लोगों की जरूरत से भी ज्यादा उनके घरों में मटखोटी से मिट्टी खोदकर मिट्टी लाकर रखना, घराट और चक्की से अनाज पीसकर लाना आदि उसके प्रमुख कार्य थे। कल्पना कीजिए इतने परिश्रम के लिए कितना पारिश्रमिक मिलता रहा होगा ? लेकिन खाना खाने साथ अत्यल्प अन्न ही उसे घर के लिए मिल पाता था।इतनी कठोर जिंदगी के बाद भी मथुरी खुशमिजाज थी। अपनी क्षमतानुसार औरों की नकल उतारकर वह लोगों का मनोरंजन भी किया करती थी।बेटी के बड़ी होने पर उसने बेटी के हाथ पीले कर उसे ससुराल भेज दिया।
अब मथुरी घर में एकाकी रह गई थी, लगातार कार्य में लगे रहने के कारण दिन बीतने का पता भी नहीं चलता। धीरे-धीरे रतौंधी ने आँखों में डेरा डाल दिया था। एक दिन वह दूसरों के खेत से निराई कर लौट रही थी तो शाम का अँधेरा छा गया, वह कुछ भी न देख सकने के कारण घर का मार्ग भटक गई और मृत भैंस के अस्थि-पंजर में उलझ गई तथा उसके दोनों सींगों को पकड़कर रुदन करते हुए चिल्लाने लगी- "ऐ बाबा बाग-बाग, ऐ बाबा द्वि बाग, द्वि बाग।" लोगों ने जब सुना तो उसे घर पहुँचाया।
गाँव में जब कभी कोई भी धार्मिक कृत्य होता तो प्रत्येक परिचित व्यक्ति से बड़ा रुपया (लम्बा नोट) माँगती, उसके बड़े रुपये की अधिकतम सीमा दस रुपये थी।नोटों को पहचानने की क्षमता वह मृत्युपर्यन्त भी अर्जित नहीं कर पाई थी।
उसके काम के बारे में पूछने पर वह गाँववासियों के कार्यों की लंबी सूची पलभर में सुना देती थी। कार्यसूची बनाना उसके अनुसार कार्य पूर्ण करना, इन दोनों के बीच ही उसकी जिंदगी झूल रही थी।जीवन भी सदैव बना नहीं रहता, शनैः-शनैः मथुरी का शरीर क्षीण हो रहा था, इस समाचार को सुनकर उसकी बेटी छुट्टी उसे अपने साथ ले गई, जहाँ उसने अपनी बेटी की गोद की गर्मी में अपने जीवन की गर्मी को समाते हुए इस दुनिया से परलोक के लिए गमन किया।
गाँव के लोग अपने स्वभावानरूप मथुरी को आज भी याद करते हैं। काम के समय पर मथुरी लोगों के मानस-पटल पर बरबस ही आ जाती है। प्रवासी ग्रामवासी जिनकी मथुरी से मुलाकात विशेष अवसरों पर होती थी, उस कर्मठ मथुरी को उसके स्वभाव और व्यवहार से याद करते रहते हैं।