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Ganesh Chandra kestwal

Children Stories

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Ganesh Chandra kestwal

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कागज की नाव

कागज की नाव

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वैसे तो मेरे गांव में जल स्रोतों और नदी नालों व तालों की प्रचुरता है, किंतु सावन की फुहारों के बीच कदम-कदम पर बहते लघु-झरनों का भव्य धवल-स्वरूप एवं संगीत हृदय आह्लादकारी बन जाता है। इसी रमणीयता के बीच बच्चों के खेल-खिलौने भी बदल जाते हैं। बचपन के दिनों में अति लघु सरिताओं के ऊपर लकड़ी का पुल निर्माण करना, केले के पर्णाधार से पनढाल बनाना, पनढाल के अंतिम छोर के नीचे वाराही-कंद(गींठी) अथवा नींबू पर लकड़ी की सीकें लगाकर पनचक्की का चरखा बनाना, उसके ऊपर वाराही-कंद के ही समतल गोल दो टुकड़े लगाकर चक्की चलाना हमें आनंद प्रदान करते थे। मूसलाधार बारिश के समय गोठ अथवा स्कूल की टिन की छत की आवाज को लघु-लघु समयांतराल पर कान खोलकर, बंद कर पुनः खोलकर सुनना बहुत ही भाता था। विद्यालय अवधि में खेल समय अथवा मध्य अवकाश में हम प्रायः विद्यालय के आंँगन में रुके पानी के ऊपर अपनी कॉपी के श्वेत पन्नों से निर्मित छोटी-छोटी नाव बनाकर तैराते थे।

    मेरे एक मित्र के पास रंग-बिरंगी चित्रों युक्त सुंदर मजबूत कागज की कहानियों की पुस्तक थी । एक दिन सभी मित्रों ने रंगीन नावें तैराने का निश्चय किया, जिसमें उस मित्र की भी स्वीकृति थी। फिर क्या था ? सबने उस मित्र की रंगीन पुस्तक से एक-एक पन्ना अलग करके, अपने अपने लिए रंगीन कागज की नाव तैयार की और विद्यालय प्रांँगण के जल के ऊपर तैराने लगे। सारा प्रांँगण रंगीन कागज की नावों से रंगीन बन चुका था। इससे ज्यादा रंगीन दर्शकों के मन थे। शाम को मित्र के घर पर मित्र का जो स्वागत हुआ, उसे याद कर आज भी मेरा मन कागज की नाव की भांँति तैरने लगता है।



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