मधुलिका साहू सनातनी

Tragedy

4.0  

मधुलिका साहू सनातनी

Tragedy

मस्त रहो मस्ती में

मस्त रहो मस्ती में

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28 october2018

आज भाभी आयी थी। रमन भइया के बारे में बता गयी कि उनकी तबियत और गिर गयी है। यहाँ के डॉ ने लखनऊ ले जाने के लिए कह दिया था तो पिछले हफ्ते मेडिकल कॉलेज लॉरी दिखाने ले गए थे। वहाँ भीड़ बहुत थी। उनका नम्बर 320 पर था। इतनी भीड़ भइया बर्दाश्त नही कर पा रहे थे।

अब सोच रही थीं कि लखनऊ ले जाना आसान नहीं है तो यही फैज़ाबाद में ही किसी दूसरे डॉ को दिखा दिया जाये।

भाभी तो समाचार बता कर चली गयी और मैं उनकी बीमारी के बारे में सोचने लगी। लगभग 15 वर्ष पहले उनकी बाईपास सर्जरी हुई थी। डॉ ने उनके रिकवर हो जाने के बाद कहा था कि अगर समय से दवा लेंगे और परहेज करते रहेंगे तो अगले 20 वर्ष आराम से जी सकेंगे।

20 वर्ष मतलब उनके 70 वर्ष पूरे होने की आयु तक की जिंदगी की मोहलत मिल गयी। मन में सुकून था। 70 वर्ष की आयु का जीवन कम नहीं होता। इंसान अपने दायित्वों के साथ-साथ अपनी इच्छाओं को भी पूरा कर लेता है।


29 अक्टूबर 2018

सोमवार

भैया की तबीयत का सुन कर उनको देखने गयी थी जबकि मेरी तबीयत खुद ख़राब है। पेट में दर्द बना ही रहता है। भइया को देख कर झटका लगा। इन पंद्रह दिनों में ऐसा लगा मानो उनकी आयु अचानक से 10 -15 साल आगे बढ़ गयी।

उनकी भूख खत्म हो गयी। बताने लगे कुछ खाने का मन ही नहीं करता। मन में बहुत कुछ उथल-पुथल होने लगा। क्या इतना जीवंत व्यक्ति यूँ ही झेलता रहेगा ? 

कोई बात हो तो पुराना इतिहास खासकर आजादी के बाद का- सेना से सुने हुए किस्से यूँ वर्णन करने लगFते जैसे सारी बात आँखों के सामने घटित हो रही हों और सुनने वालों की उत्सुकता बनी रहती। "जानती हो रश्मि ये जो तोप कैंट जाते समय सबसे पहले वाली पड़ती है वो पहले वहाँ नहीं थी। उसकी डमी रखी थी वहाँ। फिर असली वाली तोप को यहाँ लाने का अलग किस्सा है। हमें कमाण्डेन्ट ने बताया था वो पहले ......."

और आज वही जिंदादिल इंसान जूझ रहा है खत्म होती भूख और कमजोरी से।

और फिर याद आने लगा वो अक्सर कहते थे ---

"आंसुओं को पोंछ लिया करो आस्तीनों में

नज़र ना लग जाये कहीं तुम्हारी बहारों में"

ये एक झटका है या चेतावनी ? लगता है उन्हें ही नज़र लग गयी है। बहुत बार मौत के मुँह से लोग निकल आते हैं। बुरा समय चला जाता है। मैंने ऐसे-ऐसे लोगों को भी देखा है जिनकी 80 वर्ष की वय में कूल्हे की हड्डी टूटी और फिर ऑपरेशन के बाद अपना काम करने लायक हो गए। काश ऐसा ही हो। भगवान की लीला अपरम्पार है।


30अक्टूबर2018

मंगलवार। भइया सोफे पर लेटे थे। देख कर लग रहा था कि ये वो नहीं जिनसे हम सब परिचित हैं। लंबे तगड़े मूंछों पर ताव देते भइया सब पर रुआब रखते थे। आर्मी में कैमरामैन का काम करते थे। हम लोग कहते -"भइया आपको तो आर्मी में जाना चाहिये"। उत्तर में हँस देते। कहते, "वो तो मैं अभी भी हूँ। बस फ्रंट पर नही जा सकता। जो देश की सेवा करते हैं मैं उनकी सेवा करता हूँ " और मूँछों पर ताव दे कर मूँछें उमेठ कर और ऊपर उठा देते। मूँछें आज भी वही हैं पर आज मूँछों को ताव देने के लिए हाथ ऊपर नहीं उठे। अक्सर कहते रहते थे --

" मौत से तकरार नहीं है पर

ऐ जिंदगी तुझको पाने की मैंने ठानी है "

मुझे देखते ही भइया सोफे से उठ बैठे। बोले "बैठो रश्मि। तुम्हारी भाभी अभी कही गयी हैं। मेरी नींद लग गयी थी। बैठो आती ही होंगी।"

मुझसे रहा नहीं गया उनसे बोली "अरे आप लेटे रहिये। कुर्सी खिसकाते हुए बोली "मैं यही बैठती हूँ। कैसी तबियत है आपकी ?"

"तबीयत ठीक नहीं है।"

"गम हैं कि छिपाये नहीं छिपते

कलेजा चीर के मुँह बाये बैठे हैं"

आगे जोड़ते हुए बोले -"पता है रश्मि --

"जिन्हें मिलता है सुख बहुत

रोया भी करते हैं वही बहुत"

"क्यों क्या हुआ ?"

"वही--भूख नहीं लगती। दवाइयाँ इतनी ज्यादा हो जाती हैं कि भूख खत्म हो गयी है। दवाइयाँ गरम करती हैं।"

लोग 'दवाइयाँ गर्म करती हैं ' का प्रयोग अपनी बातों में बहुत करते हैं पर दवाइयाँ कैसे गरम करती हैं इसका अर्थ मैं आज तक नहीं समझ पायी हूँ।

भाभी आ गयी - "कैसी हो रश्मि " वाला प्रश्न बस एक खानापूर्ति वाला प्रसंग बन कर रह गया। सच ये है कि इस प्रश्न का ऐसे समय कोई अर्थ रह नहीं जाता।

"बस ठीक हूँ" वाला उत्तर भी खानापूर्ति ही रहा। मैंने देखा कि हाथों की अंगुलियाँ कड़ी पड़ रही थीं कुछ पकड़ते समय ठीक से मुड़ नहीं रही थीं।

इन क्षणों के बाद कितने ही समय तक चुप्पी छायी रही। यहाँ तक कि घडी की टिक-टिक भी सुनाई पड़ने लगी। समय का गुजरना थमने लगा। बोझिलता छाने लगी। मुझे लगा कि अगर किसी ने चुप्पी न तोड़ी तो अभी ही कुछ अघटित घटित हो जायेगा।

अघटित ? ज्यादा से ज्यादा क्या ? और तबीयत ख़राब और फिर मृत्यु ? एक सिहरन दौड़ गयी बदन में। किसी की मृत्यु की प्रतीक्षा करना उसके साथ खुद भी तिल तिल कर मरना ही होता है। शायद मृत्युदंड पाये अपराधियों को भी यही अहसास होता होगा पल-पल नजदीक आती हुई मृत्यु-। मृत्यु की प्रतीक्षा-मौत का भयावना एहसास होता है कारण शायद ये कि अब कभी नहीं मिल पाएंगे। एक चिरकालीन विदाई -।

तो क्या भइया भी इसी चिरकालीन विदाई से गुजर रहे हैं या एक घबराहट के बाद सब ठीक हो जायेगा ?

काश ऐसा ही हो।


31अक्टूबर2018

बुधवार

आज ना कुछ लिखने का मन हो रहा है ना डायरी खोलने का। मन अब चिंतित रहने लगा है, सारा समय उन्हीं पर ही टिका रहता है। पूरा दिन ऊहापोह में ही बीत गया कि भइया से मिलने जाऊँ या नहीं। जाने का मतलब और घबराहट अपने में समेट लेना। और ना जाने का मतलब उनको और ज्यादा याद करना।

ना-ना करते भी मिलने का मन पक्का किया। दरवाजा खुला था। माहौल शांत। भाभी सिरहाने बैठी थी। भइया आँखें बन्द करके लेटे थे उसी सोफे पर दो तकिया लगा कर। उनको उसी सोफे पर ही आराम मिलता था। भाभी ने बताया कि आज थोड़ी खिचड़ी खायी थी। अब खा कर आराम कर रहे हैं।

थोड़ा उ्द्वेलित मन से बैठ चुपचाप निरीक्षण करने लगी। हाथों में बेतरह पड़ी झुर्रियाँ किसी कंकाल के हाथों का एहसास करा रही थीं। आज सबसे बाते भी किया। बदली हुई दवाइयों का असर लग रहा है शायद।

"जिंदगी बड़ी अजीब सी चल रही है

गुनाह किसी और के सजा मुझे मिल रही है"।


1नवम्बर2018

बृहस्पतिवार

कितने सारे काम पड़े है ? मन ही नहीं लग रहा था। दिमाग में अवसाद छाया हुआ है। किसी अपने को ऐसे हालात में देखना बहुत ज्यादा कठिन, दर्दनाक और विचलित करने वाला भाव है। सोचती हूँ कोशिश करूँ कि कुछ काम निपटा लूँ। कोई आए या जाये जीवन का सिलसिला रुकता नहीं है। यही दुनिया का नियम है यही सोच मन को समझाया पर अब लिखने का मन नहीं हो रहा।


2नवम्बर2018

शुक्रवार

आज फोन किया था पता चला कि भइया की तबीयत स्थिर है और अब खाना भी खा रहे हैं। मन में तसल्ली हुई। शाम को गयी तो देखा की वो तो फड़ पर बैठे थे। उनका हर दीपावली पर फड़ पर बैठने का नियम बना था। फड़ मतलब जुआ। अगर जुआ खेलने को मना करो तो सीधे से सुना देते कि--

"बहुत मुश्किल है जिन्दगी के गम ढोने

मौका जो मिले तो लपक हँसी उठा लो"

फिर कहा --

"अगर दीवाली पर जुआ नहीं खेला तो अगली जिंदगी में छछूंदर बन जाओगी रश्मि, इसलिए फड़ पर जरूर बैठा करो।"

उन्हें ज्यादा देर बैठने की ताब नहीं थी इसलिए थोड़ी ही देर बैठ कर उठ जाते या बगल में पड़ी गाव तकिये का सहारा ले कर दूसरों को खेलते देखते और अपनी टिप्पणी देते रहते।

मैं चुपचाप उन्हें देखती रही। हाथ का सूखापन बढ़ कर कंकाल हो चुका और पैंट के नीचे से झांकते पैर भी बिना माँस वाली हड्डियों का अहसास करा रहे थे।


3नवम्बर2018

शनिवार

घर की नित्यप्रति कितनी ही सफाई करते रहिये पर दीपावली के नाम की सफाई अलग और जरूरी होती है। अब सिर्फ 4 दिन ही तो बचे हैं। सफाई करते करते कमर टेढ़ी हो गयी। आज भइया के घर नही गयी बस फोन से ही हालचाल ले लिया। फोन का उत्तर देते हुए बोले-

"खामोशियाँ कुछ ऐसी होती हैं कि

दर्द कुछ बताने के काबिल नहीं होते"

सुन कर कुछ ठीक नहीं लगा पर संतोष किया कि ठीक हैं और खाना खा रहे हैं।


5नवम्बर2018

सोमवार

आज धनतेरस है। दीपावली की खरीद फरोख्त जोरों पर है पर ऐसा नहीं कि भइया की तरफ से ध्यान हट गया हो। अवचेतन मन में कहीं ना कहीं ये बात आ गयी है कि ये जाड़ा पार हो जाये तो गनीमत। भूख खत्म होने का अर्थ है कुछ अप्रिय घटित होना। मन में डर बैठा है। आज भी भइया दीपावली की फड़ पर बैठे थे मतलब उनके मन में जीने की इच्छा जाग रही है। शायद अब अपनी बीमारी से लड़ लेंगे।

पर अब हाथ-पैर के साथ उनका पेट भी पीठ से लगा दिखा। शरीर भी शरीर कम कंकाल ज्यादा नज़र आ रहा था।


6नवम्बर2018

मंगलवार

छोटी दीपावली आ गयी। व्यस्तता बहुत बढ़ गयी है। भाभी की बात से लगा कि फिर से खाना नहीं खा रहे है।

मन कुम्हला गया। डर बढ़ रहा है। किसी को मरते हुए देखना - लगता है मुट्ठी से रेत फिसल रही है। करना चाह कर भी कुछ कर नहीं सकते।

शरीर की चर्बी सूख चुकी अब मांसपेशियाँ भी सूख रही है। शरीर ने अपना ही शरीर खाना शुरू कर दिया है।

PGI जाने की बात जान कर भइया ने ब्लड शुगर की दवा लेना बन्द कर दिया कि अब नई रिपोर्ट आने के बाद जो PGI के डॉ बताएंगे वही दवा खाएंगे।

रस्साकशी चल रही है हम लोग उनको जिन्दा रखना चाहते हैं और वो खुद को मारने पर तुले हैं।

अब कोई बच्चा तो हैं नहीं कि डाँट- डपट कर कोई दवा खिला दी जाये।


7नवम्बर2018

बुधवार दीपावली।

त्यौहार पर सबसे ज्यादा मजे बच्चे करते हैं और बड़े बच्चों को खुश देख कर खुश हो लेते हैं। साफ़-सफाई हो चुकी अब पटाखों का और पकवान बनाने का नंबर है। बच्चों के लिये सब कुछ करना पड़ता है अन्यथा भाई की पीड़ा अंदर ही अंदर रुला रही है।

आज भी उनके पास नहीं जा पायी। फोन से भइया का हालचाल जाना। भाभी बता रही थी तबीयत ठीक नहीं। खाना खा नहीं रहे हैं और शुगर की दवा भी नहीं ले रहे। फोन पर ही उन्हें दवा खाने की सलाह दिया और दूसरे दिन मिलने का वादा भी किया।


10नवम्बर2018

शुक्रवार

कल परीवा था। सभी ने अपनी अपनी दुकानें बन्द कर रखी थीं सब्जी वाले भी नहीं आये। नितांत सन्नाटा था। सोचा था शाम को जाऊँगी मिलने।

पर सोचा कहाँ पूरा होता है। शाम को अपने ही अड़ोस-पड़ोस में निकल गयी। सब पटाखे छुड़ा रहे थे। व्यस्त हो गयी। अचानक किसी ने आवाज लगाई -अरे रमन की तबीयत ख़राब हो गयी। सभी पटाखे छोड़ कर भइया के घर की तरफ दौड़े।

घर पहुँचते ही देखा भइया एक गाड़ी में किसी की गोद में सर रख कर लेटे हैं। गाड़ी अस्पताल की ओर दौड़ाई जाने लगी। इमरजेंसी थी। घर पर भीड़ लग चुकी थी। सबके चेहरे पर परेशानी, चिंता, अटकलों ने अपना पंजा फैला रखा था।

मेरा दिल बुझ गया। कोई अनुमान नही लगा पा रही थी कि कैसी तबीयत होगी। कोई कुछ बताने वाला ही नहीं था। भाभी भइया के साथ अस्पताल जा चुकी थी। तनाव बढ़ रहा था। किसी से मैंने कहा जरा फोन करके पूछो तो डॉ क्या कह रहे हैं? फोन करने पर उधर से किसी ने फोन नहीं उठाया।

रह-रह भइया के साथ हुए संवाद धीरे-धीरे याद आने लगे। कभी दुखी होने या कष्ट के समय हौसला बढ़ाते हुए कहते थे-

"गम हमसफ़र

हमसाया है

खुशियाँ अक्सर

सायों में छुप जाती हैं"

और कभी कहते-

"गमगीन ना रहो कि ये पल भी गुजर जाएंगे

हँसो कि खिजाँ भी बहार बन मुस्कुरा जाएँ"

इस समय टुकड़ों-टुकड़ों में जिंदगी रील की तरह आँखों के सामने घूमने लगी।

पल पल तनाव बढ़ रहा था अभी 20 मिनट भी नही हुए थे की गाड़ी वापस आ गयी।

उत्सुकता घबराहट और बेचैनी कूद कर शरीर से बाहर आने लगी। कार का दरवाजा खुला भाभी रोती हुई निकलीं। बिना कुछ कहे सुने सन्नाटा पसर गया

चिरनिद्रा में लीन भइया की बात याद आने लगी-

"मस्त रहो मस्ती में

आग लगे बस्ती में "

और अब भइया सारे बस्ती में आग लगा मस्त हो चिर निद्रा में लीन हो गए


एक निवेदन :----

आपने पूरे मनोयोग से पुरी कथा पढ़ी इसके लिए धन्यवाद।

पर आप सब से निवेदन है कि कृपया ये भी बताये कि आपको ये कथा कैसी लगी ? लेखक अपने विचारों को आप तक बहुत मेहनत से लिख कर पहुँचाता है और आपके द्वारा की गयी समीक्षा लेखक के लिए प्रोत्साहन का कारण बनती है आपके द्वारा की गयी समीक्षा मेरे लिए महत्वपूर्ण है कृपया अपनी राय अवश्य बताइये



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