मधुलिका साहू सनातनी

Tragedy

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मधुलिका साहू सनातनी

Tragedy

जलन

जलन

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     ग्रामीण परिवेश में आंचलिक मान्यताएँ, रीति रिवाज, परंपराओं की अमिट छाप होती है जिनसे इतर जाना असम्भव तो नहीं पर दुरूह, दुष्कर अवश्य ही होता है। उत्तर भारत के प्रयागराज और फतेहपुर के निकट बीच ही वह गाँव था - माई का टीला। आज उसी गाँव के भ्रमण पर ले चलती हूँ। आज के समय में नहीं बल्कि कम से कम चालीस पैंतालीस वर्ष पीछे समय में।

      हरिहर जाति से नाई था। समय-समय पर अपना व्यवसाय बदलने में निपुण। गाँव बड़ा नहीं था तो जिन थोड़े बहुत लोगों को बाल कटवाना होता वे प्रातः ही स्नान ध्यान के पहले ही बाल कटवा लेते। इसलिये प्रातः काल नाई के रूप में काम करता था और साढ़े नौ बजे से मजूरी करने चला जाता। जिंदगी एक धारा में बह रही थी न उतार न चढ़ाव। हाँ, नाई जात का होने से सहालक आते ही शादियाँ करवाना अवश्य ही बढ़ जाता अन्यथा वही प्रातः होते बाल काटना कैची से, घास छीलना खुरपी से, बस इतने भर का था हरिहर।

    इसी हरिहर के दो बेटे थे रामु और श्यामू पर हरिहर उनको बड़का और छोटका कह कर बुलाता था। जब तक हरिहर के हाथ पैरों में ताकत थी उसने अपनी पुरजोर ताकत झोंकी थी परिवार की गाड़ी चलाने में। अब दोनो बच्चे बड़े हो गए थे तो हरिहर ने अपने बच्चों के विवाह करने की जिम्मेदारी भी पूरी कर दिया। घर में बड़ी बहू बड़की आ गयी  मतलब बड़के की पत्नी बड़की वैसे उसका नाम कमला था। हरिहर को उसे बड़की कहने में सुविधा होती थी। 

    बड़की ने भी आ कर घर गृहस्थी के काम में हाथ बँटा लिया। सास को खुश रखना जानती थी। सुबह से उठ कर जाँता चलाना, गाय भैस के लिये चारा काटना, साफ सफाई कर, नहा-धो कर खाना बनाना सब सम्हाल लिया। इससे सास का काम काफी हल्का हो गया और आराम मिला सो अलग। सास उससे खुश रह कर हर समय दूधो नहाओ पूतों फलो का आशीर्वाद देती।

    पर लगता था कि सास का आशीर्वाद एक छेदही झोली में जा रहा था जिसमें जाना दिखता था पर उसमें किसी चीज का टिकना नही हो पाता था। आशीर्वाद शून्य में कहीं जा रहा था। बड़की की गोद विवाह को दो साल हो आये अभी तक नहीं भरी थी। अब चूंकि सास ससुर दोनों उसके परिश्रम के कायल हो चुके थे तो कोई उलाहना नहीं देते थे। इसी बीच छोटके का भी विवाह हो गया। बड़की ने सारी जिम्मेदारी बहुत अच्छे से सम्हाली। सारे नेग-चार पूरे किये थे। कहीं कोई कमी न रह जाये इसका भी पूरे विवाह में ध्यान रखा था। कोई जरा कुछ बता देता तो पूरी शक्ति उस परम्परा को पूरा करने में लगा। देती। लग ही नहीं रह था था कि माँ कौन है - सास या बड़की। अपने ममत्व की छाँव में देवर का विवाह करवा कर अब बड़की आराम के सपने देखने लगी।

    छोटकी भी बड़की की तरह ही घरेलू थी। बड़ों की सेवा करना प्रथम कर्तव्य था। वह बड़की के पदचिह्नों पर चल रही थी। सास रामदेई बहुत नसीबों वाली निकली। दोनों

बहुये कहने में और उससे भी ज्यादा सेवा भाव में थीं। शायद पितृों के परताप से घर में लच्छमी देवी का वास हो रहा था। अब दो साल और निकल गए पर न बड़की न छोटकी की गोद भरी। अब रामदेई का माथा अंदर ही अंदर घूमने लगा। सोचती क्या बात है जो दोनो बहुओं की गोद नहीं भर पा रही है। बड़की को एक पोता देने के लिये उलाहना देने लगी। बच्चे के लिये खाली रामदेई सोच रही थी ऐसा नहीं था बड़की का अंतर मन भी बहुत चिंता में लगा रहता। अब तक साथ की ब्याही दूसरी लड़कियाँ दो-दो बच्चों की माँ बन चुकी थी ऐसे में खुद माँ न बनने का सपना उसे अंधेरी खाइयों तक पहुँचा देता।

     इसी बीच छोटकी ने व्रत रख कर मनौती माँग लिया। कड़ा व्रत रख रही थी। उसी की देखा देखी बड़की ने भी व्रत रखना शुरू किया। दोनो के भावों को भगवान ने किस तरह लिया यह तो उनकी महिमा ही जानें और छोटकी माँ बनने की राह चल निकली। खुशी बड़की को भी हुई पर मायूसी के साथ।

     समय पूरा होते ही छोटकी को एक बेटा भी मिल गया पर ये खुशी सिर्फ चार दिन की साबित हुई। चार दिन बाद पता चला कि उसे निमोनिया हो गया और इलाज के बाद भी बच्चा हाथ से चला गया। घर मे खुशियों ने पदार्पण करके मुँह मोड़ लिया। रामदेई आस बांधे रही कि चलो एक की कोख खुली तो सही। आज बच्चा न बचा तो कल फिर होगा और वंशबेल बढ़ेगी। बड़की अभी भी अछूत की भाँति अपनी बन्द कोख को लेकर तड़प रही थी पर छुटकी के बच्चे के न बचने से समय मन की जलन पर मरहम रख गया।

     अब बड़की को डॉक्टर को दिखाया जाने लगा। रिपोर्ट में कुछ असामान्य नही था। बड़की को आशा बन्ध गयी कि उसकी भी देर सबेर कोख खुलेगी जरूर। पर आशा और निराशा को बीच से बारीक रेखा विभाजित करती है-जरा में इधर जरा में उधर। मन पर हर समय तलवार अटकी रहती है और कब आशाओं का गला काट जाये कुछ पता नही चलता।

     साल नहीं बीते कि इस बार फिर छोटकी को गर्भ धारण होगया। और इस बार सास ने छोटकी का ध्यान रखना दूना कर दिया। वंश बेल बढ़ाने वाली छोटकी ही थी तो क्यों न सम्मान पाती ? विशेष सावधानी विशेष सुविधा .... सभी चीजें विशेष होने लगी।

     " ए बड़की, जरा छोटकी को दूध तो दे आ तनिक। दूध नहीं पीयेगी तो बच्चा कैसे गोरा होगा ?

    " ए बड़की, छोटकी के कमर में ये तागा बांधना है तो नहाय धोय के पूजा घर साफ कर दियो पहले तब दूसर काम में हाथ लगायो।

     " ए बड़की, छोटकी का सर दरद होय रहा तनिक उसके सर मां तेल डाल दियो।

     " ए बड़की , जरा .........

    और 'ए बड़की' होता रहता और बड़की भी फुदक फुदक कर कभी इधर कभी उधर डोल-डोल कर काम निपटाती रहती। नवां महीना पूरा होने को आ रहा। छोटकी के हाथ पैर बच्चे के कारण सूजने लगे और बड़की के हाथ पैर काम कर कर के...।

      अब कभी भी छुटकी जचगी में जा सकती थी। सभी आस लगाए बैठे थे पर बच्चा तो अपने समय पर ही धरती पर गिरेगा न ? जल्दी ही वह समय भी आ गया। छोटकी ने घर में ही बच्चे को जन्म दिया। अस्पताल जाने की नौबत ही नहीं आ पाई। सास ने ही सब कुछ किया और बच्चे को धरती पर गिरने से पहले ही बड़की ने अपने हाथों में सम्हाल लिया। रुई के फाहे से ज्यादा कोमल, दूध सा सफेद, अंगूर बेल की लतर भांति छल्लेदार केश ... बच्चा हाथ मे लेते ही बड़की ममत्व से भर उठी और छुटकी थकान से बेसुध। 

    इसके बाद तो लगे कि माँ बड़की है और छोटकी दाई। बड़की पूरा ध्यान रखती बच्चे का। कब दूध पिलाना है कब तेल मालिश कब घुट्टी देनी है इसका भी लेखाजोखा बड़की रखती। अब घर का काम छोटकी के माथे और बच्चे की जिम्मेदारी बड़की के कांधों। जब जैसी जरूरत होती बड़की वैसे ही बच्चे को रखती। कभी पाँव फैला कर तेल मालिश करना कभी घुट्टी घोटना सभी कुछ।

     इसी क्रम में एक दिन बच्चा रोने लगा उसके दूध का समय हो गया था। बस यही एक काम था जो बड़की नहीं कर सकती थी। दूध तो छोटकी के आँचल में ही उतरता था। उस दिन भी बच्चा रोये जा रहा था। बड़की ने फिर छोटकी को गुहार लगाई। छोटकी जाँता चला रही थी। आवाज दे कर बोली,

 " जीजी, बस चार छः मुट्ठी नाज रह गया है पीस कर आती हूँ।"

       सब्र न तो बच्चे को हो रहा था न ही उसकी रुलाई देख कर बड़की को। बस अचानक से बड़की ने अपनी छाती खोल कर बच्चे के मुँह में दे दिया। बच्चे को मनमानी चीज मिल गयी। लगा चूसने पर छाती खाली थी। बच्चा फिर रो पड़ा। बड़की ने दूसरी छाती खोल कर बच्चे के मुँह में दे दिया। बच्चा चूसता रहा पर पेट नहीं भरा पर बड़की के मन में ममत्व की लहरें फिर से उछालें लेने लगी।अभी तक बड़की की कोख सूनी ही रही पर उसका बच्चे से अपनी छातियाँ नुचवाना अच्छा लगने लगा। उसे अपनी पूर्णता का अहसास सा होता पर बच्चा दूध न पाने से चिड़चिड़ा हो जाता। उसे बस दूध ही चाहिये था इतनी ही अभिलाषा उस नन्हे सी जान की थी।

    पेट न भरने से बच्चे की चिड़चिड़ाहट से छोटकी परेशान होती रहती। अक्सर ऐसा होता कि बच्चे का मुँह अपनी छाती में लगाने के बाद भी बच्चा कभी छाती चूसता कभी छाती मुँह में नहीं लेता। और जब छाती मुँह में नहीं लेगा तो उसे पता कैसे चलता कि क्षुधा शांत करने का बस यही एक उपाय है इसलिये रोता ही रहता और जल्दी काबू में ही नही आता था और जब तक उसका रोना बढ़ रहा था। उधर बड़की का अपने अहम को इस भाँति तुष्ट करना जारी रहा।

     एक दिन इसी भाँति बड़की बच्चे को अपनी छाती पिला रही थी। बच्चे को दूध न मिलने से बच्चे ने पूरी ताकत के साथ उसकी छाती को अपने मसूढ़ों से काट लिया। भले बच्चा था तो क्या ?बच्चे की ताकत सिर्फ उसके मुँह में ही होती है बड़की स्तनों पे आयी चोट से बिलबिला उठी और एक जोर की चपत बच्चे के गाल पर लगा दिया। इसी समय अनहोनी हो गयी। छोटकी आ पहुँची थी और चपत बच्चे के गाल के साथ उसके अहम पर पड़ी। गर्व और गुस्से से भरी छोटकी चिंघाड़ उठी -

  " जीजी, ये आप क्या कर रही हैं। मेरे बच्चे को अपना दूध पिला रही है? अरे दूध पिलाने का इतना ही शौक है तो क्यों नहीं पैदा करती एक बच्चा ? मेरे बच्चे पर क्यों टोना कर रही हैं -?"

 " छोटकी, क्या बक रही हो तुम-? मैं क्या जानबूझ कर अपनी कोख पर लात मार रही हूँ ? और तुम्हारे बच्चे की मैं देखभाल करती हूँ या टोना करती हूँ -? "

  " और जो मैं देख रही हूँ कि मेरे बच्चे को दूध पिला रही थी वो क्या था-? "

 " छोटकी, तुम्हारे आने में देर हो रही थी तो बहलाने के लिये मैंने अपनी छाती उसके मुँह में दिया था। और देखो कितनी जोर से उसने काटा है।" औए यह कह कर उसने अपनी छाती छोटकी के सामने खोल दी। नग्न स्तनों पर बच्चे के काटने का कोई निशान नहीं दिख रहा था तो वह और जोर से भड़की, " क्या किया है मेरे लाल ने बताओ ? दिखाओ, दिखाओ " और ऐसा कह कर बड़की के कपड़े को पकड़ा इसी छीन झपटी में बड़की का ब्लाउज फट गया सामने से आग में घी डालने जैसा हो गया बड़का, छोटका सास और हरिहर तीनों आँगन में आ गए और बड़की का खुला शरीर दिखा।

    बड़की जो अभी तक समझाने की कोशिश कर रही थी अब अपने खुले शरीर के साथ सबके सामने पड़ जाने से अजीब स्थिति में पहुँच गयी थी। बड़के ने अपनी पत्नी के खुले शरीर को देखा तो बहुत क्रोधित हो गया। उसने मान लिया कि बड़की अक्सर ऐसे ही निःवस्त्र घर में कलह करती रहती होगी फिर न आव देखा न ताव और बड़की को वही पीटने लगा। बहुत देर तक मारते रहने से जब थक गया तब शांत हुआ। बड़की के गुस्से का दायरा अब छोटकी से लेकर सास, ससुर, पति, छोटकी सभी तक विस्तृत हो गया।

     सारे झगड़े की जड़ बच्चा है ये बात उसे खाये जा रही थी। आज पहली बार उसे बच्चा अपना नही छोटकी का लगा। सास ने बड़ी मुश्किल से स्थिति को सम्हाला पर अब घर बदल चुका था पहले जैसी बात नहीं रही।

    अब आये दिन आते जाते छोटकी बड़की को देख कर सुनाती चलती :-

 "माई, जरा काजल उठा देना बच्चे को लगा दूँ कहीं लोगों की नजर न लग जाये।

 "अपना बच्चा पैदा नहीं कर सकते लोग तो दूसरों के बच्चे को छीनने लगते हैं।

  "देखना वंशबेल तो मेरे बेटे से ही बढ़ेगी। दूसरों का वश चले तो घर में कोई दिया जलाने वाला न छोड़े।

 " अरे माई, अपने सारे गहने मेरी बहु के लिये रख छोड़ना कहीं ऐसा न हों कि ये कुलघातनियों के हाथ लग जाये।

 " अच्छा माई ! बच्चे पैदा होने से चेहरे पर नूर अपने आप आ जाता है न ?या कुछ लोग अपनी सुंदरता बनाये रखने के लिये बच्चे पैदा ही नहीं करना चाहते।

     बड़की यह सब सुन कर आहत हो जाती। रात बड़के की छाती पर सर रख कर खूब रोती। और बड़का क्या कर सकता था -? खराबी न उसमें थी न बड़की में पर पता नहीं भाग्य कहाँ सो रहा था। उनका अपना बच्चा हो ही नहीं रहा था। दोनो ही कुम्हलाए जा रहे थे। बड़के की जिंदगी घर के बाहर रह कर संतुलित हो जाती थी पर बड़की का मानसिक संतुलन छोटकी को देखते और उसके ताने सुनते सुनते डावाँडोल होने लगा। उसे तो सिर्फ बच्चा चाहिये था जो छोटकी देने को तैयार नहीं थी। छोटकी जितना बच्चे को अलग करने को सोचती बड़की उतना ही अलग हो कर भी बच्चे से अलग नहीं हो पाती।

    एक दिन बड़की को मौका मिल ही गया। छोटकी घर के बाहर गाय घर में सफाई और उपले पाथने में लगी थी। बच्चा घर के अंदर सो रहा था। बड़की मौका मिलते ही बच्चे के पास पहुँच गयी और उठा कर अपने सीने से चिपका लिया। खूब प्यार किया इतने दिनों की कसर पूरी करने के लिये -। फिर अपनी छाती बच्चे के कुनमुनाते ही उसके मुंह में डाल दिया।

    ममता फूट पड़ी। न चाहते हुए भी करिश्मा हो गया और उसकी छाती से स्राव शुरू हो गया। बड़की का जीवन सार्थक हो गया।

    इसी समय छोटकी अचानक घर में आ गयी और फिर घर में कोहराम मच गया। छोटकी ने बच्चा बड़की की गोद से छुड़ा लिया। छीना झपटी में बच्चा जमीन पर गिर पड़ा। छोटकी और बड़की दोनों एक साथ बच्चे को उठाने को लपकीं। बच्चा बड़की ने उठा लिया। छोटकी को नागवार गुजरा। फिर शुरू हो गया अपशब्दों का सिलसिला। सास भी आ गयी उस महायुद्ध में बीच बचाव करने। उस समय युद्ध शान्त हो गया पर बड़की के दिमाग में तूफान आ गया। बच्चा उसे छोटकी का नहीं उसका अपना जना लगने लगा था। दिमाग कहता कि बच्चा छोटकी का है पर मन गवाही देता की बच्चा उसका है नहीं तो उसकी छातियों में दूध कैसे आ गया ? पर इस घटना के बाद के तूफान ने उसे हिला दिया। सच्चाई और झूठ में सही गलत का निर्णय ले पाने में असमर्थ हो गयी। उसने निर्णय ले लिया ये बच्चा मेरा है और अगर ये मेरा नहीं तो छोटकी का भी नहीं। वह छोटकी को बच्चा छीनने नहीं देगी किसी भी हालत में नहीं अगर बच्चा उसका नहीं तो छोटकी का भी नहीं।

     और फिर दिमाग से खसकी बड़की ने वह कदम उठा लिया जिसकी कल्पना कोई नहीं कर सकता। उसने बच्चा उठाया और दूध में चूहा मारने वाली दवा घोल कर चम्मच से उसके गले में उंडेल दी। और हंसते हुए बाहर छुटकी को अपने आप से ये खबर दे आयी।

     हाय ! कह कर छोटकी ने सास को बुलाया और बच्चा ले कर अस्पताल भागी। जाते जाते सास बड़की से कह गयी कि अगर बच्चे को कुछ भी हुआ तो तेरी खैर नहीं।

    

      उसके साथ गाँव के दूसरे लोग भी अस्पताल भागे पर अस्पताल पहुँचते पहुँचते बच्चे ने आखिरी साँस ली। उनके गाँव लौटने से पहले ही बड़की तक ये खबर पहुँच गयी। बच्चा मर गया ये बात दिमागी तौर पर बीमार बड़की बर्दाश्त नहीं कर पायी और बच्चे और घरवालों के घर आने से पहले ही मिट्टी तेल अपने ऊपर छिड़क कर माचिस लगा बैठी। आग की लपटें धधकने लगीं। फूस के छप्पर में आग लगते कितनी देर लगती है ? धू धू करके जल उठा। बड़की लपटों में घिर गई फिर उसके चिल्लाने की आवाज से दूसरे घरों से लोग भागे आग बुझाने के लिये। पर ......,

      अब उसी अस्पताल में एक ठेले पर लाद कर बड़की लायी गयी रास्ते में उसने मरे बच्चे को लौटते देखा। अस्पताल में डॉ ने उसकी हालत देख कर बताया कि वो 70 प्रतिशत जल चुकी है। उसकी देह से चमड़ी रेशा रेशा हो कर चू रही थी मानो कोई कपड़ा पुराना तारतार होकर फट रहा हो। अंदर देह की लाली सफेद हो चुकी थी। जलन मिटाने को पानी माँग रही थी।

    सोचती हूँ अगर छोटकी बच्चा दे ही देती तो इतना अनर्थ तो न होता।



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