मन का पंछी
मन का पंछी
मन का नन्हा सा पंछी,मुट्ठी भर आकार, पर दिल और दिमाग मे इच्छाएं अनंत,
एक के बाद एक---,उन इच्छाओं को अपने हौसले के पंखों पर, बैठाने में लगा था।
संतुलन बना, धीरे-धीरे संभलते हुए, एक छोटी सी उड़ान----
जो खत्म हुई एक विशालकाय स्कूल के दरवाजे पर।
वो फुदक रहा था, अंदर जाने का रास्ता ढूंढ रहा था----
यहां से गुजर कर ही लेनी थी उसे अपने अरमानों की नई उड़ान।
पर ये क्या??? एक कक्षा की 50 सीटों पर मारामारी थी।
डोनेशन देने वालों की लंबी कतार----
मन के नन्हे पंछी के दिल पर लगने वाली ये पहली चोट थी,
पर अभी हौसलों का अवसान न हुआ था।
डबडबाई आंखों से नन्हा पंछी मुड़ा अपने पिता की ओर---
स्नेहसिक्त आंखों से पंछी को देख, पिता ने हौले से हाथ फेरा,
क्या हुआ गर उसके लिए जमीन गिरवी रखनी पड़े, पर वो पंछी को परवाज़ देकर ही रहेंगे----
पंछी उड़ता ही रहा, क्लास दर क्लास---
पर अभी और असफलताएं देखनी थी, योग्यता को दरकिनार कर
आरक्षित अयोग्य पक्षी उड़ान भर रहे थे ,और योग्य छटपटा कर गिर रहे थे।
पंछी को आकाश से पहले त्रिशंकु बन हवा में लटकना था।
कोमल कवि सम मन को आघात ही आघात ही सहना था।
पर सफलता भी साथ थी, मेहनत का परिणाम भी था।
मन का पंछी यथार्थ के धरातल पर था।
कलेक्टर की कुर्सी ही अब उसकी उड़ान थी ।
पुरस्कार स्वरूप नेता जी की पुत्री से करोड़ों का विवाह था।
प्रेम लहूलुहान था----
गिरवी पड़ी जमीन का जो सवाल था।
पंछी अब धीरे-धीरे हथियार डाल चुका था, उड़ान की तमन्ना न थी----
पंखों की शक्ति धन-शक्ति में तब्दील हो चुकी थी।
कैसा मन और कौन सा पंछी????
एक विद्वान, उड़ने में समर्थ, आज एक रिश्वतखोर, धनाढ्य इंसान था।
पिंजरे से उड़ान भरने निकला मन का पंछी क्षत विक्षत, लहू लुहान------!