ममता के रूप
ममता के रूप
"अरे दीदी! अम्मा देख दीदी आयी है।"
"आ जा, रास्ते में कोई परेशानी तो नहीं हुई ?" और लपक कर सुमित्रा ने बिटिया का सूटकेस अपने हाथों में ले लिया।
रामनारायण ने भौंहें सिकोड़ एक बार पत्नी को देखा और फिर बेटी को, "ये अचानक यहां ? अकेले और वह भी इतने बड़े सूटकेस के साथ, माजरा क्या है ?"
"माजरा क्या है का क्या मतलब, अपने घर आने के लिए कोई माजरा, कोई बहाना हो ही यह जरूरी है क्या ?"
"बात को इधर उधर घुमाने की जरूरत नहीं है। साफ-साफ बताओ यह सब क्या है ?"
"मैंने सोचा था कि जब दुकान से लौट कर आओगे तो आराम से बात करेंगे। तब तक सुनीता भी थोड़ा आराम कर लेगी पर तुम्हें अभी ही सब साफ साफ सुनना है तो सुनो, पिछली बार वाला हादसा फिर से दोहराने की तैयारी चल रही थी, इसलिए यह चुपचाप चली आयी है। मैंने ही कहा था आ जाने को।"
"और मुझसे पूछने की कोई जरूरत नहीं समझी तुमने ?"
"तुम्हें जानती नहीं हूं क्या मैं ? तुमसे पूछा होता तो सुनीता आ पाती यहां ?"
"तो अभी भी इसे वापस वहीं ही जाना होगा। कितने दिन रहेगी यह यहां और इसका पति आयेगा लिवाने पीछे से तो ?"
"तो नहीं भेजूगीं। और किसलिए भेजूं ? लड़की है इसलिए गिरा दो। अरे क्या केवल शरीर पर से गुजरता है सब कुछ। अपना आप भी मर जाता है। पिछली बार ही एक हत्या तो हो ही गयी और मेरी लड़की भी मरते मरते बची। अब और नहीं।"
"पागल हो गयी है क्या ? जिंदगी भर छाती पर बैठाये रहने के लिये शादी की थी क्या ? और फिर लड़कियों को तो ससुराल वालों के हिसाब से चलना ही पड़ता है।"
"हिसाब से चलना एक बात होती है, खुद को खत्म करना एकदम अलग बात है।"
"तू स्कूल में साफ सफाई का काम करती है या मास्टरनी हो गयी है ? बड़ी जुबान खुल गयी है तेरी।"
"जुबान नहीं, दिमाग खुल गया है।"
"मैं कुछ नहीं जानता, राकेश लेने आयेगा तो इससे कह दे जाने के लिये तैयार रहे। क्या कहेंगे लोग बाग, बेटी को घर बिठा लिया। क्या इज्जत रह जायेगी ?"
"लोग बागों को क्या मतलब। मेरी बेटी है, मेरे घर में रहेगी । कोई गलत काम कर के तो नहीं आयी है जो हम मुंह छुपाते घूमेंगे।"
"चल ठीक, माना कि तू तो झांसी की रानी है, सबसे मोर्चा ले लेगी पर यह बता खिलाने को कहा से लायेगी ? अपनी दाल रोटी ही मुश्किल से चलती है दो और मुंह कहां समांयेगें ? और भविष्य का सोचा है, कुछ ? अपना लड़का भी इसलिए पढ़ पा रहा है कि तू स्कूल में काम कर रही है । फीस माफ है। सुनीता को ही कहां पढ़ा पाये थे पांचवी के बाद।"
"अब मुंह न खुलवाओ मेरा कि सुनीता को क्यों नहीं पढ़ा पाये थे पैसा नहीं था या लड़की है इस पर खर्चा कर के क्या फायदा ?"
रामनारायण ने अपनी लाल आंखें निकाल सुमित्रा को खा जाने वाली नजरों से देखा। सुनीता अभी तक सूटकेस का हैंडल पकड़े सहमी खड़ी थी और उससे चिपट कर खड़ा छोटा भाई भी आंशकाओं और डर से कांप रहा था।
पर सुमित्रा पर आज किसी बात का कोई असर नहीं था।
"दुकान के लिये निकलो वरना तनख्वाह कट जायेगी।"...घूरती आंखों से सबको देखता वह बाहर निकल गया और भटाक से भेड़ा गया दरवाजा देर तलक हिलता रहा।
"अरे तू अभी तक वैसे ही खड़ी है ? चल जा हाथ मुंह धो कर आ मैं दो कप चाय बनाती हूं और छोटू तू जा दीदी का सूटकेस मेरी अलमारी के पास रख कर आ, फिर भाग कर लाले की दुकान से दीदी वाले नमकीन बिस्किट ले आ।"
"अम्मा तू इत्ती बहादुर कबसे हो गयी ? तू तो बापू से बिलकुल नहीं डरती अब।"
"हूं, जब तक केवल बीबी बनी रही डरती रही पर बात जब बच्चे के रहने न रहने की हो तो हर औरत मजबूत हो जाती है। तूने भी तो आज घर से बाहर कदम निकाला क्यों कि तेरे भीतर की मां उठ खड़ी हुई थी। और सुन, अभी बहुत कुछ सहने के लिए तैयार रहना। मजबूत तो तुझे भी बनना ही है।"
आया था राकेश लेने । बहुत लानत मलामत की, दूसरी शादी की धमकी दी लेकिन सुमित्रा ने उसे बैरंग भेज दिया। उसे न बेटी की जिंदगी से कोई समझौता करना था, न बेटी की बेटी की जिंदगी से।
उस दिन सुनीता बुटीक से काम करने के लिए लाये कपड़े तहा रही थी, शाम को वापस देने जाने था, तभी उसने देखा बापू गेट खोल भीतर आ रहा है। उसका कलेजा आशंका से धड़ धड़ करने लगा।
"अरे, आज बापू इत्ती जल्दी ? अभी तो अम्मा के ही लौटने का टाइम नहीं हुआ।बापू तो जानता है कि इस समय अम्मा घर पर नहीं होती, कहीं...."
सुनीता अभी भी बापू के सामने सीधे पड़ने से थोड़ा बचती है। सहम कर थोड़ा पीछे हट वह बापू के पीछे देखने लगी—'न लग तो बापू अकेला ही रहा है।'
बापू का चेहरा थोड़ा अजीब सा लगा उसे।हिचकते हिचकते बोली''बापू, आज जल्दी आ गये दुकान से. तबियत तो ठीक है न ?"
रामनारायण ने एक भरपूर नजर डाली सुनीता पर और तख्त पर बिल्कुल लस्त सा बैठते हुए बोला," वो दुकान में मुंशी जी है न, उनकी बिटिया की अचानक ससुराल में खत्म हो जाने की खबर आयी आज. अभी दो साल भी तो नहीं हुए शादी के। मालिक मुंशी जी को गाड़ी से ले कर गए हैं......".बोलते बोलते रामनारायण की आवाज भरभरा गयी और वह फफक फफक कर रो पड़ा। सुनीता हकबका गयी।उसने आज तक अपने बापू को इतना कातर क्या नरम भी नहीं देखा था पर फिर खुद को सम्हाल जा खड़ी हुई उसके पास और दोनों हाथों से उसका सिर पकड़ अपने से सटा पीठ पर हात फेरने लगी....... "न बापू न," कहते कहते उसके भी आंसू धार धार बहने लगे। उसके मन में आज बापू के लिए भी ढेर ममता उमड़ रही थी और बापू उसे कस कर लिपटा....मेरी बिटिया, मेरी बच्ची कह सुबकता जा रहा था।
पिघलती जा रहीं थीं परत दर परत जमीं सिल्लियां और नीचे दबी हरियाली मुलुकने लगी थी हल्की सी स्मित लिये।