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अमावस में चांद

अमावस में चांद

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आज दामिनी के चेहरे से उसकी चिर- परिचित वात्सल्यमयी मुस्कान गायब थी। बहुत चिंतित लग रही थी वह। दुख की काली छाया भी मंडरा रही थी उसके सलोने चेहरे पर।लॉन में लगे हरसिंगार के नीचे चबूतरे पर बैठी वह अपलक दूर आकाश में खोयी हुयी थी। बहुत याद आ रहे थे उसे आज अपने अम्मा बाबू और भला किससे बांट सकती है वह अपना यह दुख, यह चिंता। इतना अकेला तो उसने खुद को कभी नहीं महसूस किया, अम्मा बाबू के एक एक कर जाने के बाद भी नहीं।

तभी जैसे उसे यह याद दिलाते हुये कि वह अकेली नहीं है भीतर से जोर- जोर से घंटी बजने की आवाज आनी शुरू हो गयी। वह अचकचा कर जैसे सोते से जागी।

अरे, अंधेरा होने को है। संझा आरती का समय हो गया। यह कौतुक ही होगा। सारे बच्चों में उसे ही सबसे ज्यादा ध्यान रहता है आरती का। वही रोज याद दिला कर सबको पूजा के कमरे में समय से इकट्ठा कर लेता है। आवाज भी तो कितनी प्यारी है उसकी। उसकी निर्दोष आवाज में भजन सुनना स्वार्गिक अनुभूति देता है। सोचती जा रही थी दामिनी, खुद को वर्तमान में घसीट वापस ला बंगले की ओर बढ़ती हुई।

आज सच, वहां बैठे बैठे बहुत दूर निकल गयी थी। यह बंगला उन लोगों का पुश्तैनी घर है। चार बड़ी बहनों के इकलौते और सबसे छोटे भाई थे उसके बाबू। बहुत प्यार था सब भाई बहनों में। बाबा दादी के न रहने पर भी अम्मा बाबू की पूरी कोशिश रहती थी कि कम से कम साल में एक बार तो सभी बुआ लोग सपरिवार यहां इकट्ठे हों। कितना गुलजार रहता था घर दिन भर की धमा चौकड़ी, ठहाकों से। कैसे रुच रुच कर बातें होती थी अम्मा और बुआ लोगों में। धीरे धीरे लोग कम होते गये। बच्चे बड़े होते गये। व्यस्ततायें बढ़ती गयीं और सम्पर्क कम होते चले गये। बुआ लोग नहीं रहीं। कजिन्स सब इधर उधर छितरा गये। भैया को पापा ने पढ़ने के लिये विदेश भेजा तो फिर वो बस मेहमान की तरह ही आते जाते रहे और वहीं शादी कर लेने के बाद तो आना जाना बंद ही हो गया। इतने बड़े मकान में रह गये अम्मा बाबू और वो ।पढ़ाई पूरी होने के बाद वह स्थानीय डिग्री कॉलेज में पढ़ाने लगी थी।

वैसे भी वह बचपन से ही अपने हमउम्र बच्चों से थोड़ा अलग हट कर थी। उसे तितली पकड़ना नहीं, तितली को बस उड़ते हुये देखना अच्छा लगता था। जैसे जैसे बड़ी होती गयी दूसरों के दुख ,तकलीफें बांटने में, उन्हें कम करने की कोशिश में जुटने में उसे अजब सा सुख, शांति मिलने लगी थी। बाबू तो कभी हंसते हुये कहते थे कि देवी मैया जन्मी हैं हमारे घर में पर उसका यह झुकाव उनकी चिंता का सबब भी बन जाता था। उन्हें लगता था ऐसी लड़की से कौन करेगा शादी।

भैया के व्यनहार के कारण वे धीरे धीरे भावनात्मक रूप से दामिनी पर बहुत आश्रित होते गये थे।खालीपन उन दोनों पर बहुत भारी भी पड़ रहा था। बीमारियां घेरने लगी थी। इसी बीच उसे स्टेशन पर राकेश मिला था, लावारिस, एक हाथ से लाचार और वह उसे घर ले आयी थी। वह पहला बच्चा था दिव्यांग बच्चों के उसके इस मुक्तागंन का। अब तो बीस बच्चे हैं। शुरू शुरू में अम्मा बाबू ने बहुत विरोध किया था कि यह किस डगर चल पड़ी है वो। सारी जिंदगी क्या ऐसे ही रहेगी वह। शादी नहीं करेगी क्या हंसती थी वह, अम्मा, शादी तो लोग बच्चों के लिये ही करते हैं और मेरे पास तो बच्चे हैं न। कभी कहती थी कोई मिल गया अगर मेरे साथ मेरे बच्चों की देख भाल करने वाला तो बन जायेगा न वह भी हिस्सा मेरे इस परिवार का। धीरे धीरे अम्मा बाबू भी रमने लगे थे बच्चों संग। खाना बनाने वाली मंजू दीदी, माली काका, रमिया काकी, एक एक कर जुड़ते गये परिवार में और सन्नाटे में डूबा बंगला फिर से खिलखिलाहटों से गुलजार घर में तब्दील हो गया था।

कितना कुछ सोचते थे सब मिल कर बच्चों की पढ़ाई, लिखाई, भविष्य के बारे में। कितनी योजनायें बनती थी। फिर एक एक कर अम्मा बाबू भी चले गये। फिर भी उसकी यात्रा जारी रही। थोड़ा अकेला तो अनुभव करती थी वह खुद को कभी कभी पर सब चल रहा था ठीक से कि भैया के उस फोन ने उसे ऐसी परेशानी में डाल दिया कि उसे कोई रास्ता नहीं सुझाई दे रहा। उन्हें जायदाद में अपना हिस्सा चाहिये। वो अपना हिस्सा बेचना चाहते हैं। और अगर वह उनके हिस्से की कीमत उन्हें दे सकती है तो वे अपना दावा छोड़ देंगे। कहां से लायेगी वह इतनी बड़ी रकम। क्या कमी है, भला भैया को। जिम्मेदारी तो एक भी उठायी नहीं, हिस्सा चाहिये। कहां जायेगी वह सबको ले कर। पर भैया के बात चीत के अंदाज से साफ था उनसे कोई बात नहीं की जा सकती है।

उन्होंने सारा पक्का प्रबंध कर के ही उसको फोन किया था। शहर के एक बड़े , नामी वकील को उन्होंने सारी जिम्मेदारी सौंप दी है और उनकी पावर ऑफ अटॉर्नी ले कर विदेश से ही कोई उनका परिचित आ रहा है सारा कुछ अपनी देख रेख में करवाने। खुद सामने भी नहीं आना चाहते भैया। आज बहुत अकेला अनुभव कर रही है।

इतनी खोयी थी वह अपनी ही उलझनों में कि उसे बिल्कुल पता नहीं चला था कि कोई बहुत देर से गेट के बाहर से उसे बहुत देर से देख रहा था।

पूजा के कमरे में घुसते ही उसने देखा बच्चों ने अपने अपने हिस्से का काम कर रखा है और आरती की सारी तैयारी हो गयी है। और सब बिल्कुल शांत बैठे हैं। बच्चों को कुछ पता नहीं था पर पता नहीं कैसे भांप लेते हैं वे उसकी हर तकलीफ।

आरती खत्म होने पर सब धीरे धीरे पढ़ने के कमरे की ओर चल

े गये। वह आंख बंद कर बैठी थी ठाकुर जी के सामने, तभी माली काका ने आ कर कहा, बिटिया, कोई सज्जन मिलने आये हैं।

बाहर बरामदे में बैठा दो, काका और मंजू दीदी से चाय लाने को बोल दो।

दामिनी समझ गयी थी कि भैया के परिचित ही होंगे।

वह जब बाहर आई तो मधुमालती की बेल वाले खम्बे के पास लॉन की ओर मुंह कर के एक सज्जन खड़े थे । एक पल वह यूं ही देखती रही

नमस्कार

उसकी आवाज पर वे चौंक कर मुड़े और क्षणांश को दामिनी की दृष्टि उस सुदर्शन चेहरे पर टिकी रह गयी।

आइये, बैठिये, खड़े क्यों हैं, आप

नहीं, बस आपके बागीचे की खुशबू ले रहा था । कितने फूलों की मिली जुली खुशबू है। अरे मैंने अपना परिचय तो दिया ही नहीं। मैं विचार, अनंत का मित्र। सोफे पर बैठते हुये बोले वे।

जी, सब माली काका और बच्चों की मेहनत है और बहुत से पेड़ तो अम्मा बाबू बाबा के लगाये हुए हैंकहते कहते दामिनी के स्वर में एक गहरी उदासी सी भर आई जो विचार से छुप नहीं पाई। फिर खुद को संभाल कर बोली, आप पानी लेंगे न और रमिया काकी को आवाज लगा दी।

अरे नहीं आप परेशान मत होइये। मैं तो आपसे मिलने आया था।

कब आये आप यहां

खुछ रुक कर, दामिनी को देखते हुये बहुत बहुत धीरे धीरे कहा विचार ने, करीब एक सप्ताह पहले

एक सप्ताह पहले!

मुझसे तो भैया ने कहा आप आज सबेरे पहुंचे हैं और शाम को यहां आयेंगे।

हां मैंने उससे यही बताया

दामिनी की प्रश्न पूछती दृष्टि फिर एक बार उसके चेहरे पर टिक गयी । उस बार विचार भी उसे ही देख रहा था। ऐसा लग रहा था कुछ कहने को खुद को तैयार कर रहा है।

दामिनी जी , मैं आपसे कुछ कनफेस करना चाह रहा हूं। मैं अनंत और उसकी पत्नी के संपर्क में अभी कुछ वर्षों पहले ही आया हूं। मेरे पिता जी बहुत पहले ही विदेश चले गये थे और मेरा तो जन्म भी वहीं हुआ है। मेरे पिता कभी वापस अपने देश नहीं आये थे। उन्होंने भी अपने पुरखों की जायदाद बेच दी थी। आने के लिये कोई ठिकाना रखा ही नहीं था लेकिन आखिरी दिनों में मैंने उनकी आंखों में, बातों में वह तड़फ देखी थी जो कहती थी, काश, मैं कुछ दिन अपने उस घर के आंगन में गुजार पाता। बांटा भी था उन्होंने अपना दर्द मुझसे। मैं उन्हें अपने इस देश लाना भी चाहता था पर वे आये नहीं। उनका कहना था जब उन्होंने सहेजा ही नहीं तो वहां बचा क्या होगा। जब अनंत और उसकी पत्नी इस घर को बेचने के लिये यहां आने की तैयारी कर रहे थे तो उन्हें न आने के लिये और अपनी जगह मुझे भेजने के लिये मैंने ही तैयार किया था । मुझे पता था कि घर न बेचने के लिये वे लोग तैयार नहीं होंगे। मुझे यह भी नहीं मालुम था कि मैं यहां आ कर क्या करूंगा पर हां, मैं एक बार यहां कर सब देखना चाहता था। पता नहीं वो मेरे पिता की आखिरी दिनों की तड़फ थी या अनंत लोगों के यहां आपके काम की चर्चा के प्रति उत्सुकता, कुछ था जो मुझे यहां खींच लाया। एक लम्बी सांस ले कर वह रुका। एक ग्लास पानी मिलेगा

इस तरह की बातों से शुरुआत होगी यह तो दामिनी ने कल्पना ही नहीं की थी। उसे अभी भी नहीं समझ में आ रहा था कि चीजें किधर जा रही हैं पर हां अमावस की घनी काली रात में चांदनी का एक बीज तो पड़ गया था।

एक सांस में गिलास खाली कर उसने मेज पर रखा और बात आगे शुरू की, एक सप्ताह से मैं इस घर के कई चक्कर लगा चुका हूं। आपके परिवार और आपके काम के विषय में भी बहुत कुछ जाना समझा। हर बार मेरा यह विश्वास और पक्का होता गया कि यह घर बिकना नहीं चाहिये।

लेकिन आपका भी तो मानना है न कि भैया इस बात के लिये तैयार नहीं होंगे।

हां यह तो सच है, कम से कम अभी तो बहुत सालों तक शायद उसे समझ नहीं आयेगा या फिर शायद कभी न आये।

तो फिर?

दामिनी जी , उधर आपके लॉन में टहलते हये बात करें । फिर कुछ रुक कर बोला अगर आप बहुत थक न गयी हों तो

नहीं नहीं आइये, वहीं हरसिंगार के नीचे बैठते हैं य़ह पेड़ मेरी अम्मा ने लगाया था।

थोड़ी देर दोनों चुप बैठे रहे, अपने अपने में खोये। दामिनी को पता नहीं क्यों एक अजीब सा सुकून मिल रहा था और विचार दूर ऊपर चांद को देख रहा था।

अचानक दामिनी की ओर मुड़ कर उसने बोलना शुरू किया। दामिनी जी , अगर मैं कहूं कि आप अनंत के वकील से मिल कर उसके हिस्से की कीमत पता करिये और फिर उतने पैसे दे कर पूरी जायदाद अपने नाम करा लीजिये, तो

अगर मेरे पास उतने पैसों का प्रबंध हो पाता तो समस्या ही क्या थी।

पैसों का प्रबंध समझिये हो गया

मतलब नहीं नहीं, यह मैं नहीं कर सकती विचार का इशारा समझते हुये दामिनी ने जोर से इन्कार में सिर हिलाया । मैं आपसे इतनी बड़ी रकम नहीं ले सकती। मैं कभी चुका ही नहीं पाऊंगी।

क्यों भाई, क्यों नहीं ले सकती आप। आपने कोई प्रतिज्ञा कर रखी हैं कि सारे भले काम आप अकेले ही करेगीं। किसी और को इस सुख का भागीदार नहीं बनायेंगी और फिर आपसे किसने कहा कि मैं यह रकम आपको दे रहा हूं और यह आपको लौटानी है। मैं तो इस यात्रा में आपका साथी बनना चाह रहा हूं। हवा का एक झोका आया और हरसिंगार की डालियां ऐसे सहला गयीं दामिनी को ज्यों अम्मा आशीष रही हों।

मंजू दीदी आवाज दे रहीं थीं खाने के लिये। हाथ पकड़ चल पड़े दोनों साथ हो तो मंजिलें कहां दूर रहती हैं भला।


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