कहना है...
कहना है...
पापा के सारे क्रिया- कर्म निपट गये। नाते रिश्तेदार भी सब चले गये। बैंक आदि के काम भी बहुत कुछ निपट गये। बांटने लायक सामान भी सुमित ने दे डाला। बस पीछे का पूजा का कमरा ही ऐसा था जहां वह नहीं गया था। जानकी चाची सब साफ कर जाती थी। दिया बाती भी कर देती थी। उसने सोचा उसमें भी एक छोटा ताला डाल दे, नहीं तो बिल्ली वगैरह घुस जायेगी। दरवाजे पर जा कर उसके कदम ठिठक गये. इस पूजा के कमरे से उसके बचपन की बहुत यादें जुड़ी थीं। वह भीतर नहीं जाना चाहता था पर जैसे कोई भीतर ठेल रहा था। अभी भी धूप, अगर की वही भीनी गंध थी वहां। बैठ गया वह अनायास ही फर्श पर। रीहल पर रामायण आज भी वैसे ही रखी थी। हाथ फिराया उसने धीरे से। रामशलाका वाला पेज पलटा और एक हल्की सी मुस्कान आ गयी होंठो पर। और तभी पेज पलटते हुये उसकी नजर एक बंद लिफाफे पर पड़ी। अरे, यह तो पापा की लिखाई है और लिफाफे पर तो उसी का नाम पता लिखा है। काफी साल पहले का लग रहा है। क्या है यह, उसने थोड़ा हड़बड़ाते हुये लिफाफा खोला.......
सुमित बेटा
चाह तो बहुत दिनों से रहा था कि तुमसे बात करू, लम्बी बात करूं पर पता नहीं क्यों न तो हिम्मत ही पड़ रही थी, न ही मन को पूरी तरह तैयार ही कर पा रहा था। और फिर तुम्हारी मां की इच्छा का भी मान रखना था कि मैं तुम्हें कुछ न बताऊं। मुझे पता है कि तुम्हें अब उसे मां कहना तो दूर मानना भी गंवारा नहीं है पर सच बता रहा हूं बेटा कि उससे बेहतर, उससे ज्यादा ममताभरी मां हो ही नहीं सकती। तुम मानो या न मानो मेरे बच्चे की मां तो वही है।
आजकल वह बहुत बीमार है। पता नहीं किस दिन सांसें रूक जाय। मैं अब अपनी छाती पर यह बोझ और नहीं ढो सकता। बहुत अभागा हूं मैं। जिसने मेरे लिए, मेरे अपनों के लिए खुद को गला दिया, स्वाहा कर दिया मैं उसके सम्मान की रक्षा भी नहीं कर पाया। मैंने अपनी तरफ से उसका भरसक ख्याल रखा और वह यह जानती भी है पर उस जैसी आत्मसम्मानी महिला को मेरे अपने बहुत नजदीकी लोगों ने जब चोट पहुंचायी तो मैं बस पंगु बन खड़ा रहा । मेरे अपने यानि तुम मेरे बेटे और तुम्हारी दादी मेरी मां।
तुम तो कभी भूले ही नहीं वो दिन जब पहली और आखिरी बार हम दोनों तुम्हारे घर गए थे, हम लोग भी कहां भूल पाये हैं। कितनी हुलस से भर कर तैयारी की थी उसने। कितने पकवान बनाय़े थे चाव से अपनी प्यारी बहु के लिए। एक दिन में न जाने कितनी बार मुझे बाजार दौड़ाती थी और खुश होती भी कैसे न उसके दुलारे बेटे के घर पहली खुशखबरी की आहट सुनायी पड़ी थी। तुमने भी तो कितने मनुहार से बुलाया था उसे ।कहां पूरा होता था तुम्हारा कोई भी काम अपनी मां के बिना।
फिर कैसे हो पाये तुम इतने निष्ठुर बेटा।मुझे नहीं मालुम कि क्या कहा तुमसे तुम्हारी पत्नी और सास ने पर गुस्से से पागल हो तुम निकले और क्या बोले थे अपनी मां से कि तुम क्या जानो खोने और जनने का दर्द, न तुमने कभी खोया और न जना। अब मैं तुम्हें क्या बताऊं, कैसे बरछी से सीधे कलेजे में घुसे थे तुम्हारे ये बोल।जड़ सी हो गयी थी वह। मैं बोलने के लिय़े मुंह खोल ही रहा था कि उसने धीरे से मेरा हाथ दबा दिया और अपनी कातर, सूनी आंखें मुझ पर टिका दीं, मैं निस्पंद बैठा रह गया।
मैं बताना चाह रहा था उस समय भी कि जब बिल्कुल दुधमुहां छोड़ कर चली गयी थी तुम्हें जनने वाली तो तुम्हारी इस मां ने अगर नहीं लगाया होता छाती से तो तुम तो दूर मैं भी नहीं बचा होता पर तुम्हारी दादी हमेशा संशकित रहती थी। और जब तुम तीन साल के थे तो तुम्हारी मां पहली बार गर्भवती हुई। पता लगते ही तुम्हारी दादी खुश होने की बजाय पता नहीं क्यों इतनी हिंस्र हो उठी और कितनी ही जहर बुझी बातें कह डालीं कि अब असली सौतेली मां का रंग दिखेगा और तुम पर अत्याचार होने शुरू हो जायेगें। तुम्हारी इस मां को मैं अपनी पसंद से घर लाया था शायद इसलिये भी दादी उन पर कभी विश्वास नहीं कर पायीं या कि उनके अपने भीतर के डर उन पर हावी हो जाते थे और वे इसकी सारी अच्छाईयों को जानबूझ कर अनदेखा करती थी ।
यूं तो यह मां की सारी बातें चुप रह कर सुन लेती थी और बिना रूके उनकी सेवा, घर की, लोगों की देखभाल पूर्ववत् करती रहती थी पर उस दिन दादी ने कुछ ऐसी बातें कहीं जो इसे भीतर तक चीर गयीं। बोली तो कुछ नहीं पर बहुत बड़ा निर्णय ले डाला था। मेरी तरफ से भी बहुत दुःखी हुई होगी जरूर क्यों कि मैंने भी मां को कुछ नहीं कहा था। कहना चाहता था। सच कहूं जब उस दिन तुम आ कर अपनी मां को वह सब बोल गये थे तो अपने लिए मन में ग्लानि और बढ़ गयी थी कि तुम गलत सही बिना पता किये हुए पत्नी को दुःखी देख, समझ अपनी मां पर इस तरह ऊबल पड़े और मैं यह जानते हुए भी कि मेरी पत्नी ने हमेशा हम सबका सुख सर्वोपरि रखा और मेरी मां उसे हमेशा उल्टा सीधा सुनाती थी कभी कुछ मां से उसका पक्ष ले कर नहीं कह पाया। संस्कार हमेशा आड़े आते रहे। हां, तो मैं कह रहा था कि उस दिन अकेले अस्पताल जा वह सब खत्म कर आई थी और पथराये चेहरे से सारे काम पूर्ववत् करने लगी थी। इतना ही नहीं वह हमेशा के लिये अपने मां बनने का रास्ता भी बंद कर आयी थी। मैंने अपने को बहुत लाचार महसूस किया। पूछने की कोशिश भी की थी कि उसने इतना बड़ा कदम क्यों उठाया तो उसने जिस दृष्टि से मुझे देखा था, मैं कुछ बोलने का साहस ही नहीं जुटा पाया। कैसा तो रेगिस्तान पसरा था उसकी नजर में। तो सुमित बेटे, तुम्हें जना तो नहीं था उसने पर तुम पर अपनी समूची ममता लुटाने के लिये उसने खोया था, बहुत कुच खोया था। और इसके बावजूद क्या तुमने कभी भी महसूस किया था कि वह केवल कर्त्तव्य निभा रही है। उसकी ममता, दुलार में तुम्हें कभी रस की कमी महसूस हुयी थी क्या। तुम्हें क्या बेटा, मेरे जैसे पति के मन को भी उसने सारे प्यार, दुलार, मनुहार से सहेजा है हमेशा।
सोच के देखो बेटा क्या गुजरी होगी तुम्हारी बातों और व्यवहार से उस पर। तुमने उसके बाद न कोई बात की उससे, न तुम घर आये। इस बार उसे सचमुच लगा कि उसके शरीर का हिस्सा कट कर अलग हो गया। कहा उसने इस बार भी कुछ नहीं पर अब जीना नहीं चाहती वह। आ जाओ एक बार बेटा, उसका मन शांत हो जायेगा।
और बेटा,सच्चाई तो यह थी कि तुम्हारी पत्नी इतनी जल्दी मां बनने को तैयार ही नहीं थी और तुम्हारी मां को पता चल गया था और उसने उसे रोकने की कोशिश की थी। नहीं, मैं तुम दोनों के बीच कोई मन मुटाव, अप्रिय स्थिति नहीं चाहता पर मुझे भी तो अपनी पत्नी के हक में कुछ बोलना चाहिये न, जो मैं कभी नहीं कर पाया। इसके लिये मैं खुद को मैं हमेशा अपराधी मानता हूं। उस समय जो कुछ हुआ वह बहु का खुद का निर्णय था और उसकी मां की सहमति। मैं किसी को गलत नहीं ठहरा रहा, बस चाहता हूं तुम उसके पहले वाले बेटे बन कर एक बार उसके आंचल में आ जाओ।
अपने इस कमजोर पिता की प्रार्थना ही मान कर सुन लो मेरी बात।
आ जाओ बेटा।
सुमित पथराया सा बैठा रह गया। पापा, क्यों नहीं पोस्ट की यह चिट्ठी। उसे याद आया पापा ने मां के न रहने की सूचना तो फोन पर दी थी पर आने को नहीं कहा था। आया था वो मां के न रहने के करीब पंद्रह दिन बाद, पापा को साथ ले जाने पर बहुत प्यार से टाल दिया था उन्होंने। अचानक उसे ध्यान आया कि जब पापा थे तो मां की बड़ी सा मुस्कुराती हुई फोटो लगी थी हर कमरे में। उसे पता था फिर भी वह दौड़ा पूरे घर में पर कहीं नहीं थी मां पर वह गयी ही कहां है।