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Namita Sunder

Others

4.6  

Namita Sunder

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और टूट गया उसका बांध

और टूट गया उसका बांध

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वह बुत सी बैठी थी, बिल्कुल पत्थर ना एक बूंद आँसू, ना एक सिसकारी। लेकिन उसके समूचे वजूद पर पसरा सन्नाटा चीख चीख कर कह रहा था, यह धरती धसकने की तबाही है। उसकी वीरान आँखें अब भी उस हिलते हुए दरवाज़े पर जमी थी, नहीं दरवाज़े पर नहीं, शायद उसके पार कहीं बहुत दूर शून्य पर। भला उन पथरायी आँखो से वह क्या देख रही थी। उसकी वे खुली आँखें ऐसी लग रही थी जैसे अभी कोई हथेली से बंद कर देगा, हमेशा के लिये।


रोयी वह तब भी नहीं थी जब उसकी माई इस दुनिया में नहीं रही थी। दरअसल वह तब इतनी छोटी थी कि उसे समझ में ही नहीं आया था कि हुआ क्या है। बीच आंगन में माई ज़मीन पर ऐसे क्यों लेटी है ? उसके घर में मोहल्ले के सारे लोग क्यों आये है ? सब काकी, ताई लोग उसे इतनी कस कर भींच कर क्यों रो रहीं है? ये सारे सवाल उसके मन में कहीं उठे तो ज़रूर रहे होंगे पर वह साफ़ साफ़ सोच सके इतनी भी उम्र नहीं हो पायी थी उसकी तब। लेकिन उसे यह समझ में आ रहा था कि कहीं कुछ बहुत गड़बड़ हो गया था। एक अजीब सी दहशत, एक अनाम डर उसे अंदर से जकड़ रहा था। उसे लग रहा था कि कोई हाथ ऐसे हो जो उसे माई सा सहलायें और वह बुक्का फ़ाड़ कर रो दे। पर ऐसा कोई नहीं था और वह आँखें फ़ाड़े चारों ओर देख रही थी। आंगन में एक तरफ़ उसका बापू लोगो से घिरा बैठा था, घुटनों में सर डाले। उसका मन कर रहा था कि वह उसे अपने पास बुलाये और ज़ोर से अपने से चिपटा ले। शायद तब उसका डर थोड़ा कम हो जाये। पर वह खुद उसके पास नहीं जा पा रही थी। उसका बापू बहुत कम बोलता था। उसने उसको हमेशा माई के पीछे से झांक कर देखा था। ना वह कभी जोर से नहीं बोलता था। माई के साथ मार पीट भी नहीं करता था लेकिन वह अपनी चुप में ऐसे डूबा रहता था कि वह अपने आप भाग कर ना कभी उसकी गोदी चढ़ पायी,ना उससे लिपट पायी। उसका मन अक्सर करता था लेकिन एक चुप पसरी रही दोनो के बीच।आज भी वह अन्दर से चीख चीख कर बापू को बुला रही थी लेकिन ना बापू ने बुलाया, ना उसकी आवाज़ निकली और एक चुप्पी जैसे ताउम्र के लिये जम गयी दोनो के बीच। अपने डर से उसे खुद ही निपटना पड़ेगा यह उसकी नन्ही सी समझ में कहीं गहरे पैठ गया और उसने अपने को अपने खोल में कस कर लपेट लिया।


और फ़िर कुछ दिन बाद बापू लाल धोती में लिपटी घूघट काढे़ एक औरत को घर ले आया। उसे घसीट कर उस औरत कि गोद में डालते हुए पड़ोस की बूढ़ी दादी ने कहा ये तेरी माई है। धत ये माई कैसे हो सकती है यह तो दुल्हन है। वह बोलती नहीं है इसीलिए क्या उसे सारे बुद्धू समझते है। वह कुछ पल उसकी गोदी में लुढ़की रही। ना उस दुल्हन ने उसे छुआ, ना उसने ही कोई कोशिश की। वह उठ कर आंगन में लगे हरसिंगार के पेड़ के नीचे जा बैठी।


यह पेड़ उसकी माई ने लगाया था, उसे याद है माई इसे मन्दिर के छोटे पुजारी जी से मांग कर लायी थी। सहसा उसे लगा अगर छोटे पुजारी जी होते तो शायद वह इतना अकेला नहीं महसूस करती। जब वह माँ के साथ मन्दिर जाती थी तो वे उसके सर पर हाथ चला कर उसके सारे बाल ही बिगाड़ देते थे पर उसे बिल्कुल बुरा नहीं लगता था बल्कि उसका मन करता था वे उसके साथ खेलें। माई कहती थी कि पुजारी लोग ऐसे नहीं खेलते। वे बस भगवान से बातें करते हैं। पर माई से तो वे कितनी बातें करते थे। किताबें भी पढ़ने को देते थे। जब माई पुजारी जी से बातें करती थी तो उसे वह बहुत प्यारी लगती थी। पता नहीं उसके चेहरा एकदम अलग क्यों लगने लगता था। कभी कभी उसे लगता था कि यह मन्दिर उसका घर हो जाये और पुजारी जी उसके बापू। माई से कहा था तो उसने उसके मुँह पर हाथ रख जोर से दबा दिया था और कांप कर जल्दी से बोली थी ना बच्ची ऐसी बात कभी मुंह से नहीं निकालना भगवान जी गुस्सा हो जायेगे। उसकी समझ में नहीं आया कि इसमे भगवान जी के गुस्सा होने को क्या है। पुजारी जी तो भगवान के सारे काम करते है। भगवान जी पुजारी जी से खुश ही रहते होगे ना और फ़िर वह कोई बापू की जगह पुजारी जी को लाने को तो कह नहीं रही। उसके मन में आया था कि अगर ऐसा होता तो वह कितनी खुश होती। माई खुद ही कहती थी कि कभी गंदी बात सोचना भी नहीं , भगवान जी को सबके मन की बात तक पता चल जाती है। अब जब मन में आ ही गयी तो उसे बाहर निकालो ना निकालो भगवान जी को क्या फ़र्क पड़ रहा था। खैर अब वह सब सोच कर क्या फ़ायदा। अब तो ना माई है और पुजारी जी भी उस दिन से कहीं नहीं दिखे। अब तो बस यह पेड़ है और एक बल्लू।


हां ,बल्लू चलो बल्लू से ही पूछते हैं कि यह दुल्हन माई कैसे हो सकती है । बल्लू ने ही तो उसे बताया था कि उसकी माई भगवान के पास चली गयी है और उसने ही माई को भगवान के घर में ढूँढना सिखाया था। जब छत पर कोई नहीं हो तो जा कर खुले आसमान के नीचे पीठ के बल लेट जाती थी और फ़िर बनते बिगड़ते बादलों के बीच उसे माई मिल ही जाती थी। कभी केवल माई का चेहरा दिखायी पड़ता था और कभी पूरी की पूरी माई। बल्लू ने यह भी बताया था कि भगवान के घर जाने के बाद साफ़ साफ़ आँखें और हंसी नहीं दिखायी पड़ती। तो क्या हुआ ? जैसे ही माई दिखायी पड़ती थी झट से आँखें बंद कर लेती थी वह। ऐसे माई देर तक उसके साथ रहती थी। नहीं तो उसे भगवान के घर से ज्यादा देर की छुट्टी कहां मिल पाती थी। इधर आती थी उधर बिला जाती थी, भगवान के घर गये लोगो को ऐसे ढूंढने का तरीका बल्लू की माई ने उसे सिखाया था ,जब उसके बापू चले गये थे भगवान के पास। यही सब

सोचती वह बल्लू के दरवाज़े के पास तक पहुंच गयी थी कि एकदम से ठिठक कर खड़ी हो गयी।


बल्लू के दरवाज़े जीप खड़ी थी और चबूतरे पर बहुत लोग चारपाई पर बैठे थे। बल्लू की माई बल्लू को लिये खड़ी थी। नयी शर्ट, नया पैंटं, जूता मोजा पहने एकदम झकाझक बल्लू तो पहचान में ही नहीं आ रहा था। उसके पास और भी दो बच्चे थे। शायद जीप में यही लोग आये होंगे। वह मुंह बाये देख ही रही थी कि बगल से निकलती रामदेइ ने उसे धकियाते हुए कहा ,’अरे यहां काहे खड़ी हो बच्चा, जा मिल ले जाकर तोहार संगाथी पढ़े शहर जा रहा है मामा आये है लेने। ’

बल्लू जा रहा है …शहर …उससे बताया भी नहीं, मिला भी नहीं और अब वह क्या करेगी अकेले ..उसे लगा उसके चारों ओर अंधेरा छा गया है। डर उसे चारों ओर से दबोचने लगा। उसने एक बार चबूतरे की तरफ़ देखा। यह उसका बल्लू नहीं है। वह भी चला गया और उसने छाती में उठते अधड़ को वही दफ़ना दिया . .एक सिल्लि पत्थर की और जम गयी अंदर। लेकिन रोयी वह उस दिन भी नहीं ।


रोयी वह उस दिन भी नहीं थी जिस दिन दुल्हन ने हरसिंगार का पेड़ कटवा दिया था। दुल्हन का बेटा घुटनों चलने लगा था और जब तब हरसिंगार के नीचे झरे फ़ूल मुँह में भर लेता था। पेड़ पर चलती हर आरी उसके सीने को चाक कर रही थी पर वह उस तरफ़ पीठ किये ,दांती भींचे ,आंगन के दूसरे छोर पर जोर जोर बर्तन रगड़ती रही थी।

फ़िर उसका रिश्ता पक्का कर दिया गया। लेकिन उसके मन में कुछ हाला डोला नहीं हुआ। वैसे अब वह इतनी बड़ी हो गयी थी कि वह समझने लगी थी कि दुल्हन उसकी सौतेली मां है रिश्ते में । उसका ब्याह हो जायेगा तो उसे दूसरे घर जाना होगा। लेकिन उसके मन में ना कोई जिज्ञासा उठी थी ना ही उमंग। हमेशा हाशिये में रहने से उसकी ऐसी आदत हो गयी थी कि उसके लिये किसी भी चीज से जुड़ना जैसे सम्भव ही नहीं रह गया था, या फ़िर दुख दर्द की इतनी तहें जम गयी थी उसके अंदर कि खुद उसका भी अपने आप से मिलना मुश्किल हो गया था और उसका ब्याह हो गया। बचपन से जहां पली बढ़ी वह गाँव ,दुआर सब छूट रहा था। विदा के समय सारा मोहल्ला उसे चिपटा कर रो रहा थे। दुल्हन भी, नहीं दिखाने को नहीं ,सच में ही रो रही थी। सारे काम निपटाती घर में इधर उधर आती जाती एक परछाई जैसी तो थी ही वह कम से कम। लेकिन सच वह तब भी नहीं रोयी थी। पता नहीं क्यों उसे लग रहा था कि दूर मुंह नीचे किये खड़ा उसका बापू एक बार बस एक बार उसे सीने से लगा ले तो शायद वह रो देगी। पर वह बस कोने मे अंगौछे से आधा मुँह ढके खड़ा रहा। और वह उस दिन भी नहीं रोयी ।

और आज , अभी इस दरवाज़े से बाहर गया है, उसका छोटा बेटा दरवाज़ा उसके मुंह पर इतनी जोर से बंद कर के गया था कि अब तक कांप रहा है, कांप रहा है बेटे के गुस्से के असर से या दबी घुटी सिसकियां ले रहा है माँ की तकदीर पर। बेटा चला गया है हमेशा के लिये उसके साथ जो जन्म के रिश्ते से तो उसका बाप लगता है लेकिन यह रिश्ता उसे आज याद आया है जब बेटा बड़ा हो गया है, कमाने लगा है । बाइस साल पहले की उस रात याद नहीं था जब दूसरी के कहने से उसे दोनो बच्चों के साथ सड़क पर कर दिया था। उसके गले में बाहे डाल कर चला गया, जिसने गोदी उठाने की उम्र मे लिथड़ने के लिये छोड़ दिया था। सारी जवानी खा जाने के बाद भी जब दूसरी वाली औलाद पैदा नहीं कर पायी तो छीन ले गया उसका पाला पोसा बेटा। लेकिन उससे क्या शिकवा क्या गिला , जो कभी उसका था ही नहीं ,जब अपना अंश ,अपना हिस्सा ही ठोकर मार कर चला गया। क्या कह रहा था उसे घिन आती है यह सोच कर कि वह उसका बेटा है, कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता उस औरत से जो सारी उम्र पराये मर्दो के साथ रंगरेलिया मनाती रही है। रंगरेलिया……हां ,सोयी ना मैं दूसरों के साथ, तो क्या करती उस दिन तुम दोनो को ले किसी कुएँ में कूद जाती। कितना मुश्किल है यह, इसे मह्सूसने के लिये मां होना पड़ता है और फ़िर मैं तो तमाम जिन्दगी में यही एक रिश्ता जी पायी थी, कैसे कैसे खत्म कर देती सब। सुना था लोग दूध का कर्ज चुकाने को ना जाने क्या क्या कर गुजरते हैं तेरे को मैने अपने दूध के साथ साथ खून से भी पोसा था और तू उस रिश्ते को गाली दे कर चला गया। तू काहे को समझेगा मेरा दर्द तू तो बेटा रहा ही नहीं मर्द हो गया है। हां एक बात तू बिल्कुल सच बोला वह सब करते हुए मेरे को शर्म बिल्कुल नहीं आयी। काहे को आती ..? मेरे नज़दीक तो वह भी बस एक काम था, अपने बच्चों को बड़ा करने के लिये। उनके मुंह में निवाला डालने के लिये मैंने किया।’ यही और ऐसा ही बहुत कुछ कहना चाहती थी वह अपने बेटे से पर दुख जब अपने पर बहुत भारी पड़े तो उसके मुँह से बोल निकलते ही कब थे। वह तो बस पत्थर सी हो जाती थी, अब भी बस बुत सी बैठी थी वह।

अचानक उसे अपने हाथों पर दबाव महसूस हुआ। उसका बड़ा बेटा ना जाने कब कोठरी के दूसरे कोने से घिसटता हुआ उस तक आ पहुंचा था। हां उसका बड़ा बेटा पंगु था और बेजुबान भी। बेटे ने उसका चेहरा अपनी दोनो हथेलियों में लिया और धीरे से मां का सर अपने कांधे पर टिका लिया। बेटे की सनेहिल हथेलियां मां के सर और पीठ पर आहिस्ता आहिस्ता फ़िर रही थी और उसके अंदर कहीं कुछ करवटें ले रहा था , कुछ पिघलने लगा था और फ़िर बांध टूट गया। वह अपने बेटे को दोनो हाथों से कस कर लपेट हिलक हिलक रो उठी, बेटे के हाथ उसे सहलाते रहे, समेटते रहे और उसके अंदर जमी चुप पिघलती रही पिघलती रही …


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