मज़दूर
मज़दूर
जबसे लॉक डाउन हुआ है तो एक मजदूर काफी समय बाद मिला। आजकल तो सामाजिक दूरी का ख्याल रखना पड़ता है तो दूर से पूछा -कैसे हो ?
वो बोला-ठीक हैं मास्टर जी, कईसे चल रहा है ? मैने कहा-बस, सब ठीक ही है। कहाँ जा रहे हो ? आजकल तो काम क्या हो रहा होगा। वह यह सुनकर उतरे चेहरे से बोला-काम ही तो न है ये ही तो परेशानी है, हमहुँ डेली काम पर जाके कमाने वाले लोग, काम नाही है मास्टर जी।
"फिर कहाँ जा रहे हो ? " मैंने पूछा, ये पुलिस वाले पकड़ लिए तो सुतिया देंगे। वो बोला - मास्टर जी, सुना है उधर चौक पे थोड़ा राशन मिल रहा है तो देख रहे हैं जाके, क्या पता हमका भी मिल जाई। मैंने कहा - अच्छा, हाँ जाओ। मैंने जाने के लिए इशारा किया, वो फिर भी रुका रहा और बोला -अभी उधर को एकही दिन पहिले कोई खाना बाँटे थे, पहिले नाम लिखते थे फिर लाइन में लगकर हम खाना लेते थे, पर क्या दिए मास्टर जी-चार पुड़ी, एक दोना सब्जी, थोड़ी सी दाल। वो भी एकहुँ टाइम। पेट नहीं भरता, मास्टर जी।
अब आप आप ही बताई कि ये मेहनती शरीर एक ही टैम की चार पुड़ी खावेगा ? सुना है सूखा राशन मिलेगा, खुद ही बना लेवेंगे भर पेट तो खावेंगे।
मैंने उसकी बात में हामी भरी, कहता भी क्या -हम भी तो प्राइवेट में काम करने वाले मजदूरों जैसे ही हैं , मामूली से पारिश्रमिक में गुजारा कहाँ होता है भला, वो भी पता नहीं कब मिले। परन्तु इस समय स्थिति उन मजदूरों से तो अच्छी ही थी तो राशन के लिए भागे जा रहे थे। तो ईश्वर को मन ही मन धन्यवाद भी दिया। "बाबू जी! " अचानक उसके संबोधन ने मेरी तंद्रा तोड़ी और बोला - "पर ये लोग सुना है एक किलो आलू, दो किलो चावल और कुछेक सामान देके दसों आदिम फोटू खिंचावत हैं। जाऊँ कि नहीं, कहीं हमरा ही फोटू खींच लेई ! काम हो तो बहुतै कमाई साहब, पर ई बेशर्मी आएगी न सोचे थे। क्या करें मास्टर जी, मजदूर हैं कि मज़बूर ?"