मिट्टी का चूल्हा
मिट्टी का चूल्हा


“और कितनी देर मां, भूख लगी है।”
बस दो मिनट सब्र रखो सिटी लग जाए, फिर चावल बनते ही परोस दूँगी।
लाईटर की चिंगारी से गैस- स्टोभ पर जो ज्वाला सुलघती है,एक समय तक वो मेरे लिए किसी जादु से कम नहीं था। पर आज उसका इस्तमाल मैं बड़ी आसानी से कर लेती हूँ।
मां से कभी कभार मैं पूछती – “ मां बिना गैस के खाना बनाया है, कभी ? दिक्कत होगी ना ? "
तो मां मुस्काते कहती- ‘जिन्हे नही आता उनके लिए मुश्किल है।और ऐसे भी पहले लकड़ी पर ही तो खाना बनता था।‘
ऐसा नही था की मैने लकड़ी और कोयले वाले चुल्हे नही देखे।मेरी नानी को मैंने मिट्टी के चूल्हे पर पकाते देखा है। उस चूल्हे से उठे धुएँ की खुशबु आज भी मेरे सांसो में जिन्दा है। गाँव का माहौल ही कुछ अलग सा होता है।किसी को हड़बड़ी नही होती, दौड़-भाग भी। एक अजब सा सुकुन होता उस खेत-खलिहानों के देश में। माटी के इत्र से डुबा और बगीचों के श्रृगांर से सजित मानो वक्त भी नंगे पांव खेलता हो वहां।शायद इसलिए मेरी नानी ने “मिट्टी के चूल्हों” को किसी विरासत के समान खुद से कभी अलग ही नही किया।
मुझे आज भी याद है,तब मैं 8-9 वर्ष की रहीं होंगी। कैसे वे बर्तनों पर गिल्ली मिट्टी लगाती और फिर उन्हे दो मुखी चूल्हे पर रखती। जलती लकड़ीयों से उठती निरंतर वो ध्वनि जो अपने ही सूर में चली थी।उस आग को काबु करने के लिए कोई कनट्रोलर नही था।पर फिर भी खाना बिलकुल सही तरह से पकता। मैं सिखने की चाह में बहुत सी लकड़ीयाँ डाल देती और वे मुस्काती मुझे देखती और कहती- “रहे द बनी (रहने दो बाबु अब हो गया) ”। मैं उत्सुकता से भरपुर वही बैठी रहती।चुल्हे को छु कर उसकी गरमाहट नापती।सवालों के ढेर संग मैं उनका मन लगा कर रखती थी।
भले तकनीकी विकास संग बेहतरी की ओर चले है हम। लेकिन मुझे आज भी मिट्टी के चुल्हे की वो राख और कालिख की निशानी अपने हथेलियों पर दिखती है।उस चुल्हे पर बनी रोटियों का स्वाद जाने क्यों अधिक लजिज़ लगता था मुझे।आज जब कभी नानीघर जाती हूँ,उस बचपन के किस्से का कोई निशान भी नहीं मिलता। नानी माँ की थपकी, चुड़ियों की खनखनाहट और जलते लकड़ियों की तान,आज भी कान में गुनगनाते है लेकिन महज़ यादों में।