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Puja Guru

Drama

4.5  

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विस्तृत है प्रेम

विस्तृत है प्रेम

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धरती की कोख में पनपता संसार प्रेम का प्रतीक है। प्रेम जो सभी को अपने में बराबर संजोए है। प्रेम जो जीवन की उत्पत्ति करता है, विस्तार करता है। जीवन-जीवनी और संजीवनी गढ़ता है। वो प्रेम जो मनुष्य, पशु और पौधों को जोड़कर रखता है। किसी भी भाषा और माध्यम के परे, भावमात्र के गांठ से। हमारी उत्पत्ति प्रेम से हुई है और पोषण भी, और स्वार्थ हमारे अंत का कारण होगा । प्रेम विस्तृत है और स्वार्थ संकुचित ।

"स्वार्थ" यानी "मैं", जो मतलबी है। स्वार्थ हमें भ्रष्ट बनता है। एक डिब्बे में बंद कर देता है, जहाँ बस हम "मैं" में सिमट जाते है । स्वयं के आगे किसी को तवज्जो नहीं देते। स्वार्थ कठोर और क्रूर है। व्यक्तिगत-व्यक्तिविशेष के समावेश संग निर्दय और नकारात्मक है। प्रेम के असीम जहाँ में स्वार्थ का एक संकुचित विचार और अशांत सा व्यक्तित्व है। पन्ने उलट के देखोगे तो पाओगे की हर जंग, हर नकारात्मकता की जड़ है स्वार्थ है । मैं हित के पक्ष में अटल है स्वार्थ। भावहीन, स्वयं प्रेमी और तम भी है। वही प्रेम जीवांत है, रौशनी-सकारात्मकता की ऊर्जा से भरपूर। स्वार्थ का चकाचौंध आँखों से सब धूमिल कर देता है, अस्थायी सुख की पूर्ति के लिए ।

उस नवजात शिशु सा है प्रेम जो शीतल है और बेहद खूबसूरत है, जो अपनी खुशबू और स्नेह से प्रसन्नता और बेहतरी लाता है। वही शिशु जब पुरुष बन स्वार्थ का रस चख ले तो घर बिखर जातें हैं । क्रोध और आत्मसम्मान के मत्थे मढ़ वह मैं के आगे अहम के वहम में लुप्त हो जाता है।स्वार्थी व्यक्ति को अपने जीवन में अपने सिवाय कुछ नहीं दिखता ना सूझता है। वह अपने जीवन में हर चीज हर पहलू का आंकलन स्वार्थी मनोस्थिति से करता है। खुद से प्रेम करना और स्वार्थी होना दो अलग चीजे है। अक्सर स्वयं प्रेम और स्वार्थ भाव को एक समान तोल दिया जाता है। किंतु असल में दोनों में भेद है। स्वयं प्रेम दूसरों से भी प्रेम करना सिखाता है किंतु स्वार्थ स्वयं हित के आगे दूसरों के प्रति हीन भावना का भाव भी पैदा करता है।

हमें समझना होगा कि प्रेम सभी को गले लगाता है और स्वार्थ जंग-ऐ-मैदान ले जाता है। स्वार्थ की भूख असीम है। अपनी लालसा के आगे हर किसी को तबाह कर देता है।स्वार्थ के भार का आभास स्वार्थी को नहीं होता, लेकिन उसके कोप से ग्रसित हर किसी को। इतिहास के पन्ने उलट कर देखें तो पाएंगे कि स्वार्थ ने हमेशा ही तांडव मचाया है और आखिर हमने प्रेम का ही पाठ पढ़ा है । जमीनी बढ़ोतरी की लालसा ने ना जाने कितने देश की सभ्यताओं को दूषित कर एक विचारधारा में संकुचित कर दिया। जंग हुए, मानवता का कत्लेआम हुआ और असमानता के पैगाम संग स्वामी और गुलाम हुए। आखिर सत्य और प्रेम की पुकार ने ही शांति स्थापित की। भारत के विभिन्नता में भी एकता का भाव देश प्रेम है जिसने हमें विकासशीलता और मजबूती दी है। हमारी गुलामी के काले दिन सत्ता स्वार्थ का प्रमाण पत्र है। अंग्रेजी शासन के काले बादल देशभक्ति के पैगाम से ही छटे। देश प्रेम ने ही आजादी का गान गुनगुनाया और हम आजाद हुए। प्रेम का व्यवहार ही आजादी है और आजाद आबाद है।संकुचित विचार जो प्रेम हीन और भाव हीन हैं। स्वार्थी विचार की आयु उसके भाव से ही कमजोर होती है। स्वार्थ स्वार्थ के बढ़ते प्रकोप का भार धरती भोग रही है। प्रकृति की प्रताड़ना छुपी नहीं है। घटती हरियाली, लहूलुहान समंदर, पिघलता बर्फीला रेगिस्तान और तपती जहां की आग को घी स्वार्थ ने ही दिया है। तेज़ी से गिरती धरती की सेहत किसी से छुपी नहीं है । इस प्रक्रिया में नकारात्मक विस्तार और जीवन का सिमटाव जग-जाहिर है । हालांकि आज भी प्रेम ने प्रकृति का हाथ थाम रखा है । प्राकृतिक प्रेमी हर बार मशीनी हथियारों और जंगलों के बीच खड़े हो जाते हैं । बेजुबां पशु -पक्षी और ज़ुबानी मानव के प्रेम के किस्से की भी कमी नहीं । कोई पेड़ों से लिपट जाता है उसकी जान की खातिर, तो कोसों समंदर तैर आता है दोस्ती अदा करने। यह सभी धरती के जीवन शैली की खूबसूरती है।

समाज की असमानता के जहर से पूरा विश्व पीड़ित है। प्रचंड गरीबी जो मृत्यु के द्वार पर हर बार खड़ा कर देती है। अमानवीय व्यवहार जो स्वार्थी है। अपनी जय के आगे हर पहलू को पैरों तले कुचल चलता है स्वार्थ। इतने तम में भी प्रेम की रोशनी उजाला फैलाए हैं। जो हर रंग, ढंग और धन के मोह से परे है। प्रेम विकासशील है हर पहलू हर तबके को सामान समझता है। पढ़ने के प्रेम के आगे गोलियों की गूंज फीकी पड़ जाती है वन प्रेम के आगे कुल्हाड़ी की धार नहीं दिखती। धर्म-जाति के परे एकजुट मानवीय बंधन में बांध देता है प्रेम। वहीं स्वार्थ अपनी काया की माया संग भागता रहता है और असंतोष का मृदंग लिए।


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