मीरा
मीरा
वो एक पुजारिन थी !
जिस्म पर निशान होते हुए भी रूह से एकदम पवित्र, अपने अंदर सदैव भक्ति-भाव को समाए रखने वाली पुजारिन।
भले ही इस समाज में उसे एक वेश्या का दर्जा मिला था लेकिन उसका जमीर आज भी जिन्दा था। बहुत कोशिश की थी उसने खुद को इस दलदल से बचा कर रखने की लेकिन आज उसके भाग्य ने उसे धोखा दे ही दिया था।
8 साल की थी जब उसकी सौतेली माँ द्वारा उसे दलाल के हाथों बेच दिया गया था। दलाल ने उसे लाकर कोठे की मालकिन सुरैया के सामने पेश कर दिया। उस छोटी सी बच्ची की मासूमियत सुरैया को अंदर तक भेद गयी थी। उसने लड़की को अपने पास बुलाया।
"क्या नाम है तुम्हारा?"
"मीरा" उसने अपनी प्यारी-सी जुबान में कहा।
एक बार के लिए सुरैया की आँखे भी नम हो गईं थी। आखिर क्या मजबूरी रही होगी किसी कि जो इस मासूम को ऐसे नरक में भेज दिया।
"मीरा, अब से तुम यहीं रहोगी मेरे साथ, ठीक है ?"
मीरा ने हाँ में सर हिला दिया।
सुरैया के दिल में भी कम ममता न थी। उसने बाकि सब लड़कियों को आदेश दिया-
"मीरा का कमरा अलग होगा और तुम सब मीरा का ध्यान रखोगे, उसके बड़े होने तक उसे कुछ पता नहीं चलना चाहिए कि यहाँ क्या होता है और उसे यहाँ किसलिए लाया गया है। उसे किसी भी चीज़ की कमी नहीं होनी चाहिए। उसे कभी नहीं लगना चाहिए कि ये उसका घर नहीं है। समझे?"
"जी ताई" सबने एक साथ कहा।
जब सुरैया सबको समझाकर अंदर गयी तो उसने देखा की मीरा मंदिर में बैठकर कान्हा जी के सामने आरती की थाल सजा रही थी। उसे ऐसा करते देख सुरैया को उसपर और भी प्यार आ गया।
"मीरा तुम यहाँ क्या कर रही हो?, ये सब करना तुम्हें अच्छा लगता है?"
"हाँ, मेरी माँ मुझे बचपन में ही छोड़ चली गयी थी, तब से यही मेरे दोस्त है जो हमेशा मेरे साथ रहते
हैं। यही मेरे सब कुछ हैं।"
एक छोटी सी बच्ची के मन में कान्हा के लिए इतना प्रेम और श्रद्धा देखकर सुरैया को कान्हा-भक्त मीरा की याद आ गयी।
कितनी समानता थी दोनों में!, दोनों के नाम एक, आराध्य एक, विचार एक और दोनों ही उनके अपनों के सताये हुए थे।
मीरा की माँ उसके पैदा होते ही मर गयी थी। उसके पिता को उसकी सौतेली माँ ने दौलत के लालच में मार दिया था और मीरा को अपने रास्ते से हटाने के लिए उसने उसे बेच दिया।
कुछ ही दिनों में मीरा का मन वहां लग गया। वो सुबह शाम सुरैया के साथ कान्हा की आरती करती और बाकि दिन कान्हा के कपड़े, बांसुरी बनाने में लगी रहती। सुरैया उसे पढना लिखना भी सिखाती थी।
एक दिन मीरा ने पुछा-
"बड़ी माँ, आप मुझे कभी अपने से दूर नहीं करेंगी न?"
अपने लिए मीरा के मुहं से माँ शब्द सुनकर सुरैया का दिल भर आया। ऐसा उसे पहले कभी किसी ने नहीं कहा था। भला उसके पास इस नर्क में कौन रहना चाहेगा? उसी वक्त सुरैया ने फैसला कर लिया कि मीरा की जिन्दगी वो खुद जैसी नहीं होने देगी, वो उसे इस दलदल में फंसने नहीं देगी। वो उसे हमेशा वेश्यावृति के इस काले साये से दूर रखेगी।
देखते ही देखते मीरा 8 साल से 18 की हो गयी। अब भी उसे घर में इन सब बातों का कुछ पता न था। उसका कमरा अलग था और उसका काम था सारा दिन भक्ति में डूबे रहना। मीरा को बचपन से कभी बाहर नहीं जाने दिया गया था। बचपन में वो मान जाती थी, अब भी वो उतनी ही शांत थी लेकिन कभी-कभी मन में बाहर की दुनिया को देखने की चाह होती थी लेकिन जब भी उसका मन विचलित होता था तभी वह कोई भजन गुनगुनाना शुरू कर देती थी और फिर से अपनी भक्ति में लीन हो जाती थी।
एक दिन मीरा अपने कमरे में तैयार हो रही थी, तभी उसे लगा कि कोई उसे देख रहा है। जब उसने नजर घुमाई तो कोई नहीं दिखाई दिया। उसे लगा की शायद ये उसका वहम था। लेकिन अब ये हर दिन का किस्सा हो गया था। लेकिन असल में ये कोई वहम नहीं था बल्कि मीरा का दुर्भाग्य था जो उसके सिर पर मंडरा रहा था। दरअसल कोठे पर गाँव के जमींदार का बेटा भी आता था। एक दिन उसने मीरा के गाने का स्वर सुना बस तभी से वह उस चेहरे को ढूंढ रहा था और एक दिन वह मौका पाकर हवेली के दुसरे हिस्से में चला गया जहाँ मीरा रहती थी। उसने मीरा को तैयार होते हुए देखा और वह समझ गया की यही है वो लड़की जिसे गांव वाले सुरैया की बेटी कहते हैं। तब से हर रोज़ वह मीरा को उसके कमरे में छिप-छिप कर देखता था। सुरैया को भी इस बात की कुछ भनक नहीं थी।
एक दिन अचानक सुरैया मीरा से मिलने उसके कमरे की तरफ जा रही थी तो कमरे के बाहर यूँ किसी पुरुष को देख वह घबरा गई। उसने पीछे से जाकर ऊँची आवाज में पूछा- "तुम यहाँ क्या कर रहे हो?"
"ओह! तो ये है वो खुबसूरत राज़ जिसे तुमने बरसों से दुनिया से छुपा कर रखा है" जमींदार के बेटे ने बेशर्मी से मुस्कुराते हुए कहा।
"कौन, कौन सा राज़? किस बारे में बात कर रहे हो तुम?" सुरैया ने घबराते हुए कहा।
"यही जिसे तुमने बड़े जतन से कैद कर के रखा है"
"वो कोई कैदी नहीं है, मेरी बेटी है वो और बेहतर होगा कि तुम उस से दूर रहो" सुरैया ने गुस्से में कहा।
जमींदार के बेटे ने जोर से हंसते हुए कहा-"एक कोठा चलाने वाली के घर कब से बेटी पैदा होने लगी?, हां?, और जहाँ तक बात है उस से दूर रहने की, तो मैं तुम्हे एक हफ्ते का वक्त देता हूँ या तो तुम खुद उसे मेरे हवाले करोगी या फिर तुम्हारा ये कोठा जिसे तुम्हारी मासूम बेटी घर समझती है, तुम्हारी बेटी के साथ ही मैं इसे बर्बाद कर दूंगा। इसलिए चुपचाप आज से सातवें दिन उसे मेरी हवेली पर भेज देना।" इतना कहकर जमींदार का बेटा पैर पटकते हुए चला गया।
सुरैया के तो जैसे पैरों तले से जमीन छिन गई। उसे एक पल के लिए लगा कि जैसे उसकी दुनिया उजड़ने वाली है। लेकिन उसने खुद को विश्वास दिलाया कि चाहे कुछ भी हो जाए वह मीरा की जिंदगी बर्बाद नहीं होने देगी, वह अपनी इतने सालों की तपस्या को यूं ही व्यर्थ नहीं जाने देगी, कतई नहीं!
3 दिन खत्म होने को आए थे लेकिन सुरैया ने मीरा से इस बारे में कोई बात न की थी। वह नहीं चाहती थी कि उसका ये कड़वा सच्च कभी भी मीरा को पता चले या यूं कहें कि वह मीरा को कभी खोना नहीं चाहती थी।
अगली शाम को मीरा जब कान्हा की आरती कर सुरैया को आरती देने के लिए जाने लगी तो उसे घर के अगले भाग में कुछ अजीब सी आवाजें सुनाई दी जैसे कि कोई बहुत चिल्ला कर बात कर रहा हो।
मीरा न चाहते हुए भी खुद को उस तरफ जाने से रोक नहीं पाई।
और उसने जो कुछ भी वहाँ जाकर देखा वह उसके लिए किसी सदमे से कम नहीं था-
'जमींदार का बेटा ज़ोर ज़ोर से सुरैया पर चिल्ला रहा था,
"क्या बोला तुमने? तुम उसे मेरे पास नहीं भेजोगी?, तुम्हारी इतनी हिम्मत!, मुझे तो लगा था कि अब तक तुमने उसे मना लिया होगा। शायद तुम ये भूल गई हो कि तुम्हारा ये कोठा मेरे दिए हुए पैसों की वजह से चलता है और जिसे तुम्हारी बेटी, तुम्हारी वो मुँहबोली बेटी अपना घर समझती है, सोचो जब उसे पता चलेगा कि ये उसका घर नहीं बल्कि वेश्याओं का एक कोठा है तो उसे कैसा लगेगा। क्या सोचेगी वो जब उसे पता चलेगा कि उसकी माँ एक कोठा चलाने वाली है।"
"बस करो तुम, एक शब्द भी आगे बोला तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।" सुरैया गुस्से से दहाड़ी।
"क्या करोगी तुम, बताओ? अब तुम नहीं, जो कुछ करूँगा मैं करूँगा, तुमने मुझे न कहा है इसलिए अब 3 दिन बाद अपनी बेटी और अपने इस घर के अंतिम संस्कार के लिए तैयार हो जाओ "
इतना कह कर जमींदार का बेटा चला गया।
यह सब सुनते ही मीरा को तो जैसे सांप सूंघ गया। आरती की थाल उसके हाथों से छूटकर गिर पड़ी।
सुरैया ने जब देखा कि मीरा ने सारी बातें सुन ली है तो उसके सर पर तो मानो आसमान गिर पड़ा।
"मीरा, मेरी बच्ची मेरी बात सुनो, देखो जो कुछ भी तुमने सुना वो वैसा नहीं है।"
"बस बड़ी माँ, आप कुछ मत कहिए, कुछ नहीं सुनना अब मुझे और कुछ कहने-सुनने की गुंजाइश ही कहां रह गयी है? मैंने कान्हा के बाद अपनी ज़िंदगी में सिर्फ आपको अपना भगवान माना था और इस घर को अपना मंदिर लेकिन उस भरोसे का आपने खून कर दिया। आपने इतने साल मुझे धोखे में रखा!, क्यों बड़ी माँ, क्यों किया आपने ऐसा, क्यों आपने मुझसे ये सच छिपाया कि मैं आपकी बेटी नहीं बल्कि एक वेश्या हूं।" कहते कहते मीरा रो पड़ी।
"नहीं मेरी बच्ची ऐसा कुछ नहीं है, तुम भरोसा करो मेरा, एक बार मेरी बात तो सुनो।"
"हमें कुछ नहीं सुनना है" इतना कहते हुए मीरा रोते-रोते बाहर की ओर भाग गई।
सुरैया ने उसे रोकना चाहा लेकिन रोक न पाई।
मीरा अपने आँसुओ के बहाव में कब बहुत दूर निकल आई उसे पता ही न चला। उसे लगा कि सब उसे अजीब नज़रों से घूर रहे हैं। उसे ये बाहर की दुनिया बेहद डरावनी लगी। लेकिन वह वापिस नहीं जाना चाहती थी। जमींदार के एक आदमी ने मीरा को बाहर जाते देख लिया था, उसने तुरंत जाकर ये ख़बर जमींदार के बेटे को दे दी।
जमींदार के बेटे को किसी ऐसे ही मौके की तलाश थी। वह तुरंत ही उस दिशा में निकल पड़ा जिधर मीरा गई थी। मीरा वहीं एक पेड़ के नीचे बैठी रो रही थी। तभी जमीदार का बेटा वहां आया-
" अरे रे , बहुत दुख हुआ ये जानकर की तुम्हें अपनी जिन्दगी के सबसे बड़े सच का सामना करना पड़ रहा है, वैसे एक तरह से ये सही भी है आखिर कभी न कभी तो इंसान को उसकी असली औकात पता चलती ही है।"
" देखो मैं ये तो नहीं जानती कि तुम कौन हो, लेकिन मैं इतना जानती हूं कि तुम एक बुरे इंसान हो और इस वक़्त मेरा भला करने तो बिल्कुल नहीं आये हो। तुमने मुझे मेरी माँ से अलग करने की कोशिश की है जिसके लिए मैं कभी तुम्हें माफ नहीं कर सकती। इसलिए अच्छा होगा कि तुम अभी यहां से चले जाओ।"
" अरे कितनी भोली हो तुम!, तुम मुझे जाने के लिए कह रही हो, जबकि कुछ दिन के बाद तुम्हें ही मेरे पास आना होगा और ऐसा तुम्हारी माँ ने मुझसे वादा किया है।"
"नहीं, ये झूठ है। माँ ऐसा कभी नहीं करेंगी। मुझे उन पर पूरा विश्वास है।"
"विश्वास! कौनसा विश्वास? वो जो आज तुम्हारी आँखों के सामने चकनाचूर हो गया और जिसे तुम अपनी माँ समझती हो वो असल में एक कोठा चलाने वाली है, और तुम्हें यहाँ सिर्फ इसीलिए लाया गया था ताकि तुम भी और लड़कियों की तरह वही करो जो वहाँ होता है।"
"बस करो तुम, बस!" मीरा अपने कानों पर हाथ रखती हुई चिल्लाई।
"तुम एक और लफ्ज़ नहीं बोलोगे, वरना..."
"वरना, वरना क्या? मैंने तुम्हारी माँ को 7 दिन का वक़्त दिया था जिनमें 4 दिन तो बीत चुके हैं। अब बचे 3 दिन तो या तो तुम चुपचाप मेरी बात मानोगी वरना जिसे तुम आज तक अपना संसार मानती आई हो, उसे बर्बाद करने में मुझे दो पल नहीं लगेंगे, समझी।" इतना कहकर जमींदार का बेटा वहां से चला गया।
मीरा की परेशानी ख़त्म होने की बजाय और भी बढ़ गई। उसे कुछ नहीं सूझ रहा था कि वो क्या करे क्या नहीं। इस दुनिया में अपनी बड़ी मां के अलावा वह किसी और को जानती भी तो नहीं थी।
इस घड़ी उसके पास सिर्फ एक ही सहारा था, 'भगवान'।
मीरा चुपचाप घर आ गई और अंदर जाकर खुद को कमरे में बंद कर लिया।
सुरैया उस से बात करना चाहती थी, लेकिन मीरा का सामना करने की उसमें हिम्मत नहीं थी।
अगले 2 दिनों तक मीरा न अपने कमरे से बाहर निकली और न ही उसने कुछ खाया-पिया। बस उसके कमरे से लगातार भजन-कीर्तन की आवाज आती रही। तीसरे दिन शाम को म
ीरा के कमरे से आवाज़ आनी बन्द हो गई। सुरैया को लगा कि कुछ न कुछ गड़बड़ है उसने जाकर कमरे का दरवाज़ा खटखटाया किन्तु दरवाज़ा अंदर से बंद था। उसने बहुत प्रयास किया किन्तु दरवाजा नहीं खुला, अंत में उसने दरवाज़ा तुड़वा दिया। अंदर मीरा कान्हा की मूर्ति के सामने बेहोश पड़ी थी। मीरा को ऐसे देखकर सुरैया घबरा गई। उसने दौड़कर मीरा को होश में लाने की कोशिश की, लेकिन कमजोरी की वजह से मीरा को ज्वर हो चुका था। उसने तुरंत डॉक्टर को बुलवाया। डॉक्टर ने बताया कि मीरा को दिमागी सदमा लगा है इसी वजह से उसने अपनी फ़िक्र करना छोड़ दिया है। उसने सुरैया को मीरा का ध्यान रखने की सलाह दी और कहा कि हो सके तो उसे यहां से दूर भेज दे।
पूरे गांव में ये ख़बर फैल चुकी थी कि सुरैया की मुँहबोली बेटी को जमींदार के बेटे ने बुलाया है। पवित्र होने के बावजूद सबकी नजर में अब मीरा भी एक वेश्या थी क्योंकि वह एक कोठे का हिस्सा बन चुकी थी।
रात भर सुरैया इसी चिंता में जागती रही कि कैसे मीरा को इस ग्रहण से बचाए?
तभी मीरा को होश आया-
"बड़ी मां" उसने पुकारा
"हां मेरी बच्ची, मैं यहीं हूं" सुरैया उसके पास जाकर बोली।
"मां क्या मैं आपकी बेटी नहीं हूं?, क्या आप भी सबकी तरह मेरा साथ छोड़ देंगी?" इतना कहकर मीरा सुरैया से लिपटकर रो पड़ी।
"नहीं मीरा, ऐसा कुछ नहीं होगा। मैं कभी तुझे खुद से अलग नहीं होने दूंगी" सुरैया ने उसे चुप कराते हुए कहा।
उसके बाद सुरैया ने उसे सारी कहानी बतला दी कि मीरा की सौतेली मां ने उसे यहां क्यों बेचा था और किस तरह सुरैया ने उसे इस नरक से दूर रखने की कसम ली थी। उसने उसे बताया कि जमींदार के बेटे ने उसे धमकी दी है लेकिन वह कभी ऐसा कुछ नहीं करेगी।
"मैं तुझे कुछ नहीं होने दूंगी और इसलिए मैंने फैसला किया है कि मैं तुझे आज रात ही यहां से दूर भेज दूंगी, बहुत दूर।"
"नहीं माँ, मैं आपको छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी। और अगर मैं चली गई तो वो आदमी आपको और इस घर को बर्बाद कर देगा। मैं ये सब नहीं देख पाऊंगी, मुझे कहीं नहीं जाना है।"
"मीरा जिद्द नहीं करते, यहां मैं सब सम्भाल लूंगी लेकिन इस वक़्त जरूरी है तेरा इस मुसीबत से निकलना। इसलिए मेरी बात मान और यहां से चली जा। मन तो मेरा भी नहीं करता तुझे अपनी आंखों से दूर करने का लेकिन इस वक्त ये सब करना जरूरी है।"
"अगर आप इसे मेरी जिद्द समझती हैं तो यही सही, आज तक आपने मुझे दुनिया की हर बुरी नज़र से बचाए रखा है इसलिए अब मेरा फ़र्ज़ है कि आपको और अपने इस घर को मैं बुरी नज़र से बचाऊं।"
"लेकिन...."
"बस मां अब आप मेरी बात मानेंगी और ये मेरा आखिरी फैसला है कि मैं यहां से कहीं नहीं जाऊंगी।"
अगली सुबह सुरैया का बुरा हाल था। न जाने मीरा अपने मन में क्या सोच कर बैठी थी। उसने इस तरह की जिद्द अपने जीवन मे कभी न की थी। न जाने कौनसी अनहोनी उसके दरवाजे पर दस्तक देने वाली थी। इन सब ख्यालों ने सुरैया को बैचेन कर रखा था। उसे इन सब से निकलने का कोई और रास्ता नहीं सूझ रहा था। इसी सोच में कब सुबह से शाम हो गयी पता ही नहीं चला।
किसी गाड़ी की आवाज़ ने सुरैया की तन्द्रा को भंग किया। और वही हुआ जिसका डर था, यह किसी और की नहीं बल्कि जमींदार के बेटे की गाड़ी थी। सुरैया डर से कांप उठी।
"तो कहाँ है तुम्हारी लाडली राजकुमारी?, ज़रा बुलाओ तो उसे, मेरे पास वक्त बहुत कम है।"
"देखो तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे। मैं तुम्हें मीरा को नहीं ले जाने दूंगी। तुम चाहो तो किसी और को अपने साथ ले जा सकते हो। लेकिन मीरा कहीं नहीं जाएगी।"
"क्यों? मैं क्या तुम्हें पागल लगता हूँ? और फिर जो चीज़ आसानी से हाथ लग जाए उसका मज़ा ही नहीं आता, इसलिए अपना और मेरा वक़्त बर्बाद मत करो और चुपचाप उसे मेरे हवाले कर दो।"
"देखो भगवान के लिए तुम मीरा को छोड़ दो मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ती हूं। तुम्हें जो चाहिए वो ले लो मगर मेरी बेटी को बख्श दो।" सुरैया के पास अब गिड़गिड़ाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था।
"ठीक है मैं तुम्हारी बेटी को नहीं ले जाऊंगा.....तो फिर अपनी बेटी और इस घर का जनाजा उठते हुए तुम अपनी आंखों से देखो।" जमींदार का बेटा ग़ुस्से में बोला। उसने बाहर खड़े अपने आदमियों को कोठे के चारों तरफ आग लगाने का आदेश दिया।
"सुनो तुम सब इस कोठे को आग लगा दो, एक भी कोना न बचे और जो कोई भी रोकने की कोशिश करे तो उसे भी भस्म कर दो।"
लेकिन तभी आवाज आई- "रुको !"
सबने देखा तो मीरा घर के द्वार पर खड़ी थी।
"तुम लोग ऐसा कुछ करने की सोचना भी मत, मेरे रहते हुए तुम इस घर को हाथ नहीं लगाओगे। तुम मुझे अपने साथ ले जाना चाहते हो न, तो ठीक है मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूं।"
"मीरा तू ये क्या कह रही है?" सुरैया घबरा कर बोली।
"हां माँ, मैं सही कह रहीं हूं। एक मेरे लिए बाकी सब कुछ दांव पर लगाना क्या सही है? अगर मेरे जाने से सबकी जान बच जाती है तो मुझे कोई एतराज़ नहीं। और वैसे भी अब तो ये समाज भी मुझे एक वेश्या के रूप में ही जानता है ना। इसलिए आप मुझे जाने दीजिए।"
ये सब सुनकर सुरैया सदमे में आ गई। उस से कुछ बोलते न बना।
जमींदार के बेटे के चेहरे पे एक शैतानी मुस्कान फैल गई।
मीरा जाकर उसकी गाड़ी में बैठ गयी। सुरैया को लगा कि जैसे उसकी दुनिया ही वीरान हो गई। जिस बच्ची को उसने हर बुरी नज़र से बचाने की कोशिश की थी, आज उसी ने सबके लिए अपने सम्मान की बलि दे दी। उसे आज एक मां की बेबसी का एहसास हो रहा था।
हवेली पहुंचकर जमींदार का बेटा मीरा को घर के पीछे बने अपने कमरे में ले गया। हवेली में लगभग सभी सो चुके थे।
"मुझे बहुत हैरानी हो रही है कि तुम इतनी जल्दी मेरे साथ आने को तैयार हो गई। मुझे तो लगा था कि तुम्हारे घर को मुझे स्वाहा करना ही पड़ेगा।" उसने कमरा बन्द करते हुए कहा।
"तुम्हें हैरान होने की जरूरत नहीं है क्योंकि मेरे रहते हुए मेरे घर और मेरी माँ पर कोई भी बुरा साया नहीं मंडरा सकता। और अब मैं तुम्हारी शर्त के मुताबिक तुम्हारे साथ आ गई हूं, लेकिन तुम मुझे हासिल कर पाओगे ये बात तुम भूल जाओ।"
"क्यों तुम क्या यहां से भागने की तरकीब सोच कर आई हो?" जमींदार के बेटे ने हंसते हुए कहा।
"भागने की तो नहीं लेकिन हां तुम्हें इस दुनिया से रुखसत करने की तरकीब जरूर सोच कर आई हूं। क्योंकि तुम्हारे जैसे राक्षस को इस दुनिया में रहने का कोई हक नहीं है, तुम जैसे लोगों की वजह से ही मेरी माँ जैसी औरतों को कोठा चलाना पड़ता है और हज़ारों लड़कियां वेश्या बनने पर मजबूर हो जाती हैं। लेकिन अब बस। अब तुम इन सबका भुगतान करोगे।" ये कहते हुए मीरा ने अपने पीछे छिपाया हुआ चाकू निकाल लिया।
"ओह तो अब तुम मुझ पर हमला करोगी, मुझे मारोगी।" इतना कहकर जमींदार का बेटा मीरा पर झपट पड़।
मीरा ने बड़ी ही फुर्ती से अपना बचाव करते हुए उसके हाथ पर चाकू से वार कर दिया।
जमींदार का बेटा अपनी इस चूक से तिलमिला उठा।
उसने एक तमाचा मीरा के मुंह पर जड़ दिया जिससे मीरा सामने रखी अलमारी से जा टकराई। उसके सिर से खून बहने लगा और आंखों के आगे अंधेरा छा गया, लेकिन फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। मीरा ने जमीन से उठने की कोशिश की लेकिन उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था। जमींदार का बेटा उसकी तरफ़ बढ़ा। लेकिन इस से पहले की वो मीरा को अपनी गिरफ्त में लेता, मीरा ने अपनी सारी ताकत लगाकर चाकू से उसके सीने पर जोरदार वार किया। जमींदार का बेटा उस वार को सहन नहीं कर पाया और जमीन पर गिर पड़ा। किन्तु उसमें शैतानियत अब भी बाकी थी उसने मीरा के पैरों को कस कर जकड़ लिया। मीरा दर्द से चिल्ला उठी, वह खुद को छुड़ाने के प्रयास कर रही थी लेकिन घाव की वजह से उसे कमजोरी महसूस होने लगी थी। अंत में कोई चारा न पाकर मीरा ने पास पड़े गमले को उसके सिर पर दे मारा और वो उससे खुद को छुड़ाने में कामयाब हो गई। उसने सोचा कि जमींदार का बेटा मर चुका है।
मीरा की सांसे तेज़ चल रही थी लेकिन दूसरी तरफ उसे सुकून भी महसूस हो रहा था कि वह उस शैतान की हैवानियत का शिकार बनने से बच गई। लेकिन शायद किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। मीरा खुद को किसी तरह सम्भाल कर दरवाजे की तऱफ बढ़ी।
वह कमरे से निकलती इससे पहले ही पीछे से चाकू का वार उसकी कमर को भेद गया।
"अगर मैं मरूँगा तो इस दुनिया मे तुझे भी नहीं रहने दूंगा।" जमींदार का बेटा ये आखिरी शब्द बोलकर मर गया।
मीरा घायल होकर गिर पड़ी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह यहां से कैसे निकले। उसे एहसास हो गया था कि उसका आखिरी समय आ चुका है किंतु मरने से पहले अपनी बड़ी मां से मिलना चाहती थी। वह उन्हें बताना चाहती थी कि उनकी बेटी ने किस तरह उस शैतान का बहादुरी से सामना किया और उसे उसके बुरे इरादों में नाकामयाब कर दिया।
उसे इस वक़्त एक ही नाम ध्यान आया, कान्हा।
उसने हाथ जोड़कर आसमान की तरफ देखते हुए कहा-"कान्हा आज आपकी मीरा ने अपनी माँ की कसम का मान भंग होने नहीं दिया। अच्छाई और बुराई की जंग में आज भी अच्छाई की ही विजय हुई। लेकिन मैं इस आखिरी समय में अपनी बड़ी मां से मिलना चाहती हूं। आप मुझे ताकत दीजिये ताकि मैं अपनी माँ की गोद में सिर रख कर आपके मंदिर के सामने चैन से सदा के लिए सो सकूँ।"
मीरा ने अपनी माँ के लिए एक आखिरी कोशिश की और भगवान ने भी उसकी पूरी मदद की। मीरा सारी रुकावटें पर करती हुई आखिरकार अपने घर के द्वार तक आ पहुंची। मीरा के घावों से बहुत खून बह चुका था।
सुरैया सारी रात से घर के बाहर ही बैठी थी। मीरा को इस हालत में देख उसके मुंह से चीख निकल गई। उसने तुरंत जाकर मीरा को पकड़ा। उसकी आँखों से आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। मीरा ने उसे कान्हा के मंदिर की तरफ इशारा कर वहाँ ले जाने को कहा। कान्हा की मूर्ति के सामने मीरा सुरैया की गोद में सिर रखकर लेट गई। सुरैया ने डॉक्टर को बुलाने के लिए कहा लेकिन मीरा ने मना कर दिया और बोली-
"रहने दीजिए बड़ी माँ, मैं जानती हूं कि अब इन सब का कोई फायदा नहीं, अब बहुत देर हो चुकी है। लेकिन बड़ी मां मैं आपको बताना चाहती हूं कि जो कसम आपने अपनी बेटी के लिए ली थी, उसे मैंने टूटने नहीं दिया माँ। हां मां, मैंने उस भेड़िये के सामने अपने घुटने नहीं टेके बल्कि डटकर उसका सामना किया और उसे उसकी जगह दिला दी, मैंने उस राक्षस का अंत कर दिया मां। वो अब आपको कभी परेशान नहीं करेगा। बस अब आप मुझसे वायदा कीजिये कि जो भी आजतक इस घर में होता आया है अब वो नहीं होगा। अब आप सिर्फ एक मां बनकर रहेगीं, मीरा की मां। कीजिए वादा।"
सुरैया ने हां में अपना सिर हिला दिया।
" बस मां अब मैं बहुत थक गई हूं, अब मैं हमेशा के लिए अपने कान्हा के पास जाना चाहती हूं और सुकून से आपकी गोद में सोना चाहती हूं।" इतना कहकर मीरा ने अपनी आंखें हमेशा के लिए बंद करली।
"मीरा तू मुझे ऐसे छोड़ कर नहीं जा सकती, मेरी बच्ची तू ऐसा नहीं कर सकती मेरे साथ। आंखे खोल मीरा, देख तेरी बड़ी मां बुला रही है तुझे। एक बार तो आंखे खोल न बेटी।" सुरैया की चीखें पूरे घर में गूंज रही थी।
आज मीरा भले ही मर चुकी थी लेकिन उसका ज़मीर आज भी जिंदा था।
आज सुरैया की तपस्या सफल हो गयी थी, लेकिन...लेकिन उसकी तपस्विनी हमेशा के लिए अपनी भक्ति में लीन हो चुकी थी।