मेरी शुभाँगी (लघुकथा)
मेरी शुभाँगी (लघुकथा)
सेल्फ़ी प्रथम -
बंद कमरे में मधुर संगीत की गूंज। ऐरोबिक्स या योग या मात्र आधुनिक नृत्य, पता नहीं क्या चल रहा था! दरवाज़े से झांका, तो पाया कि स्मार्ट फ़ोन पर सेल्फ़ी सम्पन्न हुई और सोशल मीडिया की भेंट चढ़ गई। सुंदर, सुडौल काया, होनहार शुभांगी जवाबी संदेशों को आँखें फाड़कर मुस्कुराकर पढ़ने लगी! दरवाज़ा हौले से बंद! अनचाही दस्तक से घबराहट!
सेल्फ़ी द्वितीय -
नाश्ते के बाद ट्यूशन का वक़्त। स्कूटी के आईने पर झुकी शुभांँगी ने अपनी बड़ी-बड़ी काली सुंदर आंखें फाड़ीं; दो-तीन मुख-मुद्रायें बनाईं। सेल्फ़ी सम्पन्न होते देखी गई बालकनी से। कुछ प्रतिक्रिया हो, उसके पहले ही स्कूटी स्टार्ट और शुभांगी फ़ुर्र। एक और दस्तक!
सेल्फ़ी तृतीय -
ट्यूशन से लौटने पर थका मुरझाया सा चेहरा। माथे पर तनाव की लकीरें। फिर भी एक और सेल्फ़ी लेने के बाद कमरे में शुभांँगी की चहलक़दमी और वीडियो चैट शुरु। उधर फ़ोन पर दोनों तरफ़ तनाव और इधर इनकी तरफ़ भी तनाव। अब इनसे रहा नहीं गया। प्यार से पूछ ही बैठे :
"बिटिया, कुछ परेशान सी दिख रही हो! अपने मम्मी-डैडी को नहीं बता सकतीं, तो अपनी परेशानी मुझे बता दो, किसी से न कहूंगा, ख़ुद मदद करने की कोशिश करूंगा।"
"आप परेशान न हो दादा जी! आप अपने काम से काम रखिये! मुझे कोई परेशानी नहीं! ... लीव मी अलोन, प्लीज़!" लाड़ली पोती का यह जवाब सुनकर वे अपने कक्ष में चले गए और पुराने फ़ोटो एलबम निकाल कर पोती के जन्म से लेकर किशोरावस्था और कुछ वर्षों पहले तक की सहेजकर रखी तस्वीरों को देखकर दादा-पोती और घर-संसार के अतीत के सुख में खो गये।
"समथिंग इज़ रोंग! शुभांँगी के मम्मी-डैडी अतिविश्वासी या लापरवाह या ग़लत हो सकते हैं, मैं नहीं! इसे मैंने और मेरी पत्नी ने भी पाला-पोसा है! मैं अपनी शुभांँगी का अब दादा ही नहीं, दादी भी हूं।... बल्कि असली माँ-बाप भी। उसके व्यस्त मम्मी-डैडी को असली पेरेंटशिप आती होती, तब न!" यह सोचते हुए वे कक्ष में ही चहलक़दमी करने लगे और लाड़ली पोती को 'पॉज़िटिव टाइम' देने की तरकीबें सोचने लगे। उधर शुभांँगी सोशल मीडिया पर व्यस्त थी।
