मेरे सपनों की उड़ान
मेरे सपनों की उड़ान
सरिता जल्दी उठ गई थी। बार बार बालकनी की ओर देखती। आज ये अखबार वाला कहां रह गया?
"अरे सात बजे तक आएगा वो, तू बैठ जा।"
पर उसे आज चैन कहां था। तभी अखबार का बंडल बालकनी में गिरा। सरिता जल्दी से उसे उठा कर पन्ने पलटने लगी। एक पेज पर आकर उसकी नज़रें व उंगली कुछ खोजने लगी और एक जगह पर दोनों ही ठहर गई। वह बार बार कुछ पढ़ती और मिलान करतीं। उसकी आंखों में आंसू आ गये।
"क्या हुआ कुछ तो बता सरिता।" पापा बोले।
"आप सब की मेहनत और आशीर्वाद सफल हो गया पापा। प्राइमरी स्कूल टीचर के लिए मेरा सेलेक्शन हो गया है।"
“सच। तूने हमारा जीवन धन्य कर दिया बेटी। ये सब तेरी दिन रात की मेहनत और लगन का फल है।"
“नहीं मां ये आप दोनों के सहयोग के बिना संभव न था। दूसरों की बातों में आकर कभी तुमने मुझे चूल्हे-चौंके में नहीं झोंका अपितु हमेशा पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। जब जब दुनिया ने मेरे रंग-रूप का मज़ाक उड़ाया। तुम सबसे लड़ बैठी। जब भी मैं टूट कर बिखरने लगी आप दोनों ने मुझे हौसला दिया।”
“बधाई हो बिटिया, बधाई हो। तुमने तो हमारी बस्ती का नाम रोशन कर दिया।"
सारा मोहल्ला सरिता को मुबारकबाद देने के लिए उमड़ पड़ा था।
सरिता हैरान थी कि कल तक जो लोग उसके बदसूरती पर तंज कसते थे, आज उसे सर आंखों पर बैठा रहे थे।
हां, यही तो 'शिक्षा की ताकत है' और सुदेश मैडम का दिया गुरुमंत्र।
आज भी सरिता को याद है। दादी और दूसरे लोग काले रंग और साधारण नैन नक्श के कारण उसे पास नहीं फटकने देते थे। कोई बच्चा उसके साथ नहीं खेलता था। बस मां ही उसे लाड़ करती थी। मां ने किसी तरह लड़ झगड़ कर उसे स्कूल भेज दिया था। स्कूल का माहौल भी कुछ अलग न था। सरिता के कोमल मन पर ठेस बहुत लगती थी पर पढ़ने में भी उसे बहुत मज़ा आता था। पढ़ाई में मन लगा ही था कि उसे टायफाइड हो गया। गांव के इलाज व झाड़-फूंक का कोई असर न हुआ। दादी ने पापा को खबर भिजवा दी कि इस बीमारी की पोटली को आकर ले जाए। देखभाल के लिए मां भी हमारे साथ आ गई। शहर में इलाज से वह सही तो हो गई थी। किंतु, अब अपनी पढ़ाई छूटने का बहुत अफसोस हो रहा था। उसने मां से दोबारा पढ़ाई शुरू करने के लिए कहा। तो मां उसे पास के सरकारी स्कूल ले गयी। उसकी उम्र को देखते हुए प्रधानाचार्य ने उसे तीसरी कक्षा की अध्यापिका के पास भेजा।
अध्यापिका ने उसे अजीब नज़रों से देखा और पूछा, “पहले पढ़ती थी।"
" हां", मां ने जवाब दिया।
"इसे बोलने दो।" उसने ऊंची आवाज में कहा।
"सात का पहाड़ा सुनाओ।"
डर के मारे, आते हुए भी सरिता उसके किसी भी सवाल का जवाब न दे सकी।
इसलिए उन्होंने उसे दाखिला देने से मना कर दिया।
मां कितना गिड़गिड़ाई थी, पर सब बेअसर रहा।
मां उसे रोते हुए वापस ले कर जाने लगी तो बरामदे में अपनी कक्षा के साथ बैठी सुदेश मैडम ने उसे पास बुलाया।
“अरे, बड़ी प्यारी लड़की है। पर यह गुड़िया रानी रो क्यों रही है।"
मैं रोना भूल कर उनके पास बैठ गई। मां के सिवा किसी दूसरे ने उसके साथ ऐसे प्यार से बात नहीं की थी।
मां ने उन्हें सारी बातें बताई और बोली, “सारी दुनिया इसके रंग-रूप का मज़ाक उड़ाती है। सोचा था पढ़ लेंगी तो कुछ किस्मत संवर जाएगी इसकी। आप लोग इसे मौका नहीं दोगे तो कहा जाएगी ये अभागी।"
"कैसी बात करती हो? क्या कमी है इसमें। आज से ये मेरी क्लास में पढेगी। लेकिन खूब मन लगा कर पढ़ना होगा। पढ़ोगी न।" सुदेश मैडम ने प्यार से पूछा। मैंने भी खुश हो कर सहमति में सिर हिला दिया।
"अरे, तुम्हारा नाम तो पूछा ही नहीं। लिखूंगी क्या?" वो हंसते हुए बोली।
“मेरा नाम सरिता है।”
“तो सरिता अब सब भूल कर तुम्हें सिर्फ पढ़ना है। फिर देखना शिक्षा की ताकत। ये लोग तुम्हें सर माथे पर बैठाएंगे।”
उस समय तो सरिता को कुछ समझ नहीं आया। हां एक बात उसे समझ आ गई थी कि उसे पढ़ना है और बस पढ़ना है। और उसने वही किया। वार्षिक परीक्षा में अपनी कक्षा में ही नहीं अपितु पूरे विद्यालय में वह प्रथम आई थी। मंच पर जब उसे पुरस्कार हेतु बुलाया गया तो सारा विद्यालय तालियों की गूंज से भर गया था। कैसे उस मैडम ने पास बुलाकर कहा था कि 'तुम तो बहुत होशियार निकली। मैं ही हीरे को न पहचान सकी।' और उसके सिर पर प्यार से हाथ रखा था।
उसके बाद उसने कभी पीछे मुडकर नहीं देखा। शिक्षा की ताकत के बल पर सफलता के नित नए सोपान चढ़ती रही।