मेरे काव्य गुरू केदारनाथ सिंह
मेरे काव्य गुरू केदारनाथ सिंह
गोरखपुर में वर्षों बाद उन्हें देखा था, पर वे बिलकुल नहीं बदले थे। वही दमकता माथा, मुसकुराती आँखें, खिला हुआ गोरा मुखड़ा और उस पर चार चाँद लगातीं तराशी हुई धवल दंत पंक्तियाँ। यद्यपि केश थोड़े श्वेत हो गए थे और कमर जरा-सी झुक आयी थी, फिर भी उनके व्यक्तित्व का आकर्षण कम नहीं हुआ था। जब मैं उदित नारायण इंटरमीडिएट कालेज[पड़रौना ] में कक्षा छह में पढ़ती थी वे उदित नारायण स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्रिंसिपल थे और कालेज कैंपस के बाहर बने सरकारी आवास में रहते थे। उनकी पाँच पुत्रियों में तीसरे नंबर की पुत्री ऊषा मेरे साथ पढ़ती थी। उनका घर मेरे घर से ज्यादा दूर नहीं था, इसलिए अक्सर मैं उनके घर आ धमकती। सुबह -शाम का ख्याल नहीं करती। वे मुझे घर पर कभी नहीं दिखते थे। उनकी पत्नी मुझे बहुत प्यार करती थीं। वे गौर वर्ण की, भरे शरीर वाली हँसमुख महिला थीं। वे हमारे साथ अंताक्षरी भी खेलतीं थीं। एक दिन जब मैं कुछ ज्यादा ही सुबह उनके घर आई तो देखा वे बनियान और पाजामें में बाहर बारान्डे की नल के पास बैठे नीम का दातुन कर रहे हैं। उन्होंने कड़ी नजरों से मुझे देखा और बोले-सुबह-सुबह क्यों घूम रही हो !मैं तुरत वहाँ से भाग खड़ी हुई। बाद में उषा ने बताया कि उन्हें लड़कियों का इस तरह आजाद घूमना -फिरना पसंद नहीं है। उनकी लड़कियां घर से बाहर कम ही निकलतीं थीं। वैसे भी उन दिनों खास वर्ग की लड़कियों की यही पहचान थी। पर मैं तो आम लड़की थी, इसलिए तितली की तरह उड़ती फिरती। बाग-बागीचे में पेड़ों पर चढ़ना, पोखरे और गड़हियों से मछली पकड़ना, खो-खो, कबड्डी, गोली और गोटी जैसे खेल खेलना। कहीं कोई पाबंदी नहीं। माँ बाबूजी मना भी करते तो भी मैं नहीं मानती थीं, पर उस दिन की उनकी डांट के बाद मैं भी ज्यादातर घर में ही रहने लगी और पढ़ाई में मन लगाया। अब मैं उनके घर तब जाती, जब पूरा इतमीनान कर लेती कि वे घर पर नहीं हैं।
वे अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध थे। लड़कियों में उनकी सुंदरता की खूब चर्चा होती। वे कवि भी हैं, इसका पता मुझे बहुत बाद में चला क्योंकि तब कविता के बारे में मुझे अधिक पता नहीं था। वे कुछ ही वर्ष हमारे कालेज में रहे, फिर गोरखपुर शहर होते हुए दिल्ली जा बसे। और एक दिन देश के महान कवियों में शुमार हो गए। उन्होंने न केवल शैक्षणिक सफलता प्राप्त की बल्कि अंतर्राष्ट्रीय कवि भी बन गए थे। इसी बीच उनकी पत्नी का देहांत हो गया था और वे अकेले ही अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करते रहे थे।
मैं भी पी एच डी करके गोरखपुर में पढ़ाने लगी थी। अपनी नौकरी से मैं संतुष्ट नहीं थी, पर क्या करती ? बिना पैसे और सोर्स-सिफ़ारिश के अच्छी नौकरी मिलना आसान नहीं था। सिर्फ योग्यता से नौकरी नहीं मिलती थी। मैं लेक्चरर तो नहीं बन सकी थी, पर कवि जरूर बन गयी थी। बचपन में जो कच्चा-पक्का लिखना शुरू किया था, समय के साथ व्यवस्थित व परिपक्व होने लगा था।
मैं उनकी कविताएं पढ़ती और उनसे मिलने की योजनाएँ बनाती पर दिल्ली मेरे लिए बहुत दूर था, इसलिए इतने वर्षों तक उनसे मिलना संभव नहीं हुआ।
पर कहते हैं न जहां चाह वहाँ राह। संयोग से एक दिन उनसे मिलने का अवसर मिल गया।
गोरखपुर विश्वविद्यालय में तीन दिन का सेमिनार था। वे बतौर अध्यक्ष बुलाए गए थे। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। पहले ही दिन मौका देखकर मैंने उन्हें अपना परिचय दे डाला। वे अपने प्रिय कस्बे पड़रौना का नाम सुनकर बहुत खुश हुए। और जब मैंने उनकी पत्नी और बेटियों का जिक्र किया तो स्नेह से मेरे सिर पर अपना हाथ रख दिया। वहाँ उपस्थित बौद्धिक लोगों से कहने लगे--इसने मेरी पत्नी को देखा था और मेरी बेटी की क्लासमेट रही है। सबने मुझे ईर्ष्या से देखा क्योंकि एक बड़ा कवि मुझे महत्व दे रहा था।
मैंने उन्हें बताया कि मैं भी कविता लिखती हूँ तो वे बोले-अगली बार गोरखपुर आऊँगा तो तुम्हारी कविताएं सुनूंगा। जब वे दिल्ली वापसी के लिए अपनी गाड़ी में बैठे तो मैंने अपनी डायरी आटोग्राफ के लिए बढ़ा दी। उन्होंने उस पर लिखा--इस बार गोरखपुर आने की सबसे बड़ी उपलब्धि रंजना से मुलाक़ात रही ....। जब वे यह लिख रहे थे, उनके माथे से पसीना टपककर अक्षरों पर गिर पड़ा था। इस दृश्य पर मैंने एक कविता लिखी और उनको भेज दी। वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने मुझसे फोन पर बातें कीं और कहा--कभी दिल्ली आओ, तो मिलो।
वे नहीं जानते थे कि मेरे जैसे आम लोगों के लिए दिल्ली हमेशा दूर रही है। मैं दिल्ली न जा सकी, पर जब वे साल-छह महीने में गोरखपुर आते,तो साहित्यिक गोष्ठियों में उनसे मुलाक़ात जरूर हो जाती थी। उन्हें अपने गाँव से बहुत लगाव था। कहते -दिल्ली में रहते जब खाली हो जाता हूँ तो गाँव चला जाता हूँ और वहाँ से भरकर लौटता हूँ। यह भराव रचनात्मक होता है। गाँव रचना के लिए कच्चे माल का बेहतरीन श्रोत है। गोरखपुर से होकर ही उन्हें अपने गाँव जाना होता था। गोरखपुर की हर यात्रा में वे पड़रौना भी जरूर जाते थे। वहाँ उनके मधुर रिश्ते थे। गोरखपुर के कार्यक्रमों में जब भी वे आते, मुझे अपने पास बुलाते। मेरे कंधे थपथपाते और सबसे वही बात कहते -इसने मेरी पत्नी को देखा था ...पड़रौना की है ..।
मैं चाहती थी कि वे मेरी कविता के बारे मेँ बात करें। उसे देखे...सुने और मार्गदर्शन करें, पर वे हर बार 'अगली बार' कहकर टाल देते। बाद में कहने लगे कि तुम तो बिना मार्गदर्शन के ही प्रसिद्ध हो गयी हो। अच्छी कविताएं लिख रही हो। एक बार वे मेरे घर खाने पर आए। आने से पहले उन्होंने कहा था कि पड़रौना में बनने वाला स्वादिष्ट देहाती किस्म का खाना खाऊँगा।
गोरखपुर में वे अपने परम मित्र व समधी कहानीकार हरिहर सिंह के यहाँ रूकते थे। कई बार वे गोष्ठी से मेरे साथ रिक्शे में बैठकर धर्मशाला के नीचे से होकर असुरन स्थित हरिहर सिंह के घर आए और रास्ते में अमरूद खरीदा। अमरूद उन्हें बहुत पसंद थे। परमानन्द श्रीवास्तव के घर भी कई बार हम साथ गए। परमानन्द जी की बीमारी से वे बहुत चिंतित थे। उनकी मृत्यु की खबर सुनकर वे बहुत ही दुखी हुए थे।
आखिरी बार जब उनसे मुलाक़ात हुई थी तो मैंने उनसे पूछा था कि 'क्या आपको भी मृत्यु से डर लगता है ?'तो उन्होंने मुझे समझाया कि मृत्यु के बारे में नहीं सोचना चाहिए। जब उसे आना होगा, आएगी ही। उसके बारे में सोचने से आदमी मरने से पहले ही मर जाता है।
वे बड़े रचनाकार तो थे ही बेहतर इंसान भी थे। बड़े होने का उन्हें जरा-सा भी गुमान था। अमीर -गरीब सबसे बराबरी का व्यवहार करते थे। जितने प्यार से वे बड़े अफसरों से मिलते थे उतने ही प्यार से चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों से भी। उनके सामने मेरा बचपन लौट आता था। बदमाशियाँ भी कर जाती थी। वे मारने की धमकी देते तो मैं भाग खड़ी होती।
एक बार मैं बहुत दुखी थी। साहित्य माफियाओं ने मेरा चरित्र हनन करते हुए पत्र लिखकर दिल्ली के सारे प्रकाशकों और संपादकों को भेज दिया था ताकि मैं साहित्य छोड़ दूँ। मैंने उन्हें ये बातें बताईं तो उन्होंने मुझे समझाया कि तुम बस लिखती रहो। इन बातों की ओर ध्यान मत दो। महादेवी वर्मा तक को इस तरह की बातों का सामना करना पड़ा था। पितृसत्तात्मक यह समाज आज भी स्त्री को पुरूष क्षेत्रों में बर्दाश्त नहीं कर पाता।
आज वे नहीं हैं। अपने पिता को तो मैंने बचपन में ही खो दिया था आज अपने धर्म पिता को भी खो दिया। उनकी कमी कौन पूरी करेगा ?
उन्हें ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी व्यास जैसे कई पुरस्कार मील थे, जिसके वे पूर्ण अधिकारी थे क्योंकि समकालीन हिंदी के सर्वाधिक जनप्रिय कवियों में से एक थे। उनकी कविताओं के मुहावरों का असर और प्रभाव हिंदी युवा कविता पर बखूबी देखा जा सकता है। अच्छी कविता की विशेषताओं में एक बात कही जाती है कि उसे पढ़ कर आपके अंदर भी कविता जन्म ले। केदार की कविताएँ इसी तरह की कविताएँ हैं। वे सबद सौंदर्य के सम्मोहन के कवि हैं। केदार जी अपने फन के जादूगर थे, जितनी सहजता से और बिना किसी आख्यान के उनके यहाँ शब्द आते थे, शब्दों के पार की दुनिया और उसकी संवेदनाएं आती थीं .......वह हमें कविता से ऐसे जोड़ देती थीं कि उसके बाहर का संसार लगभग अदृश्य हो उठता था। केदार जी की कविता में शब्द, बिम्ब और उनमे अटके मनोभाव बैठे नहीं दिखते .....बादलों की तरह तैरते हुए आते थे और छूकर निकल जाते थे .....। केदार जी का काव्य वैभव हर बार पढने पर नया सुख देता है ...,नयी ताज़गी देता है ..नई अनुभूति देता है। कवि की जनप्रियता ऐसे ही बनती है और ऐसे ही बची रहती है .........हिंदी में बहुत कम कवि है जिनके काव्य की अनुगूँज आगे की कई पीढ़ियों को एक साथ एक समान प्रेरित करती है।
उनकी दो छोटी कविताएँ देकर उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त करती हूँ। ।
१=
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए.
२=
मैं जा रही हूँ – उसने कहा
जाओ – मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है.
केदारनाथ सिंह
1934, चकिया, बलिया, उत्तर प्रदेश
अभी बिल्कुल अभी, ज़मीन पक रही है, यहाँ से देखो, बाघ, अकाल में सारस, उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ, तालस्ताय और साइकिल. (कविता संग्रह)
कल्पना और छायावाद, आधुनिक हिंदी कविता में बिंबविधान, मेरे समय के शब्द, कब्रिस्तान में पंचायत, मेरे साक्षात्कार (आलोचना और गद्य)
ताना-बाना (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन), समकालीन रूसी कविताएँ, कविता दशक, साखी (अनियतकालिक पत्रिका), शब्द(अनियतकालिक पत्रिका)
मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, कुमारन आशान पुरस्कार, जीवन भारती सम्मान, दिनकर पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान
कविताओं के अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी,स्पेनिश, रूसी, जर्मन और हंगेरियन आदि विदेशी भाषाओं में भी हुए हैं.