Padma Agrawal

Inspirational

4.3  

Padma Agrawal

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मेरा हौसला

मेरा हौसला

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ट्रि. ट्रि .ट्रि.

“ आप निशा जी बोल रही हैं ।‘’

“जी , बताइये मैं आपकी क्या सेवा कर सकती हूं । “

“आपके लिये एक बहुत शुभ समाचार है ... आपके नाम का चयन प्रतिष्ठित अर्जुन एवार्ड के लिये किया गया है । “

प्रसन्नता के अतिरेक से वह क्षण भर को संज्ञाशून्य हो गईं थी । उनके मुंह के शब्द तिरोहित हो गये थे ... मुश्किल से वह धन्यवाद कह पाईं थीं ।

फोन रखते ही यह शुभ सूचना उन्होंने अपने मां पापा को दी थी । उन्होंने उनके चरण स्पर्श कर उनके प्रति कृतज्ञता जाहिर की थी । उन दोनों ने प्यार से उन्हें अपने गले से लगा लिया था ।

“मां पापा आप लोगों की मेहनत , लगन और कर्मठता ने मुझे इस पुरुस्कार के योग्य बनाया नहीं तो मैं अपाहिज की तरह किसी कोने में पड़ी सिसकती रहती । मां ने उनके मुंह पर अपनी हथेली रख कर चुप रहने का इशारा किया ।

  क्षणांश में ही यह समाचार चारों ओर फैल गया था और बधाई संदेशों के लिये फोन की घंटी बजने लगी थी। घर के बाहर बधाई देने वालों का तांता लग गया था , उनमें अधिकतर वही पड़ोसी और रिश्तेदार थे , जो उनके मां पापा और उनको उपहास और व्यंग्य की दृष्टि से देखा करते थे । उनके व्यंग्य वाणों के कारण उनका कलेजा छलनी हो चुका था परंतु उन्हीं व्यंग वाणों और तानों के कारण सफलता प्राप्त करने की जिजीविषा पैदा हो गई और उनकी मेहनत के कारण एक के बाद एक सफलता उनके कदमों को चूमने लगी थी ।

वह अपने अतीत में खो गई ....

निशा जी की आंखों के सामने अपना जीवन चल चित्र की भांति सजीव हो उठा था ...

वह साधारण मध्यम परिवार की लाडली बेटी थीं वह लगभग तीन वर्ष की थीं , उन्हें जोर का बुखार आया और बुखार ने उनके शरीर को लकवा ग्रस्त कर दिया था । वह तो नासमझ और छोटी थी परंतु मां पापा की तो दुनिया ही उजड़ गई ...वह अपाहिज बनी हुई मां पापा को आंसू बहाते हुये देखा करती ... मां उन्हें अपनी गोद में उठाकर आज इस डॉक्टर और कल दूसरे डॉक्टर के पास चक्कर लगाया करतीं । पूरा परिवार उनकी बीमारी के कारण परेशान रहता था । न ही कोई दवा असर कर रही थी और न ही कोई दुआ । वह बड़ी होती जा रही थी परंतु जरा भी हिल डुल भी नहीं पाती थी फूरे परिवार के लिये बहुत कठिन समय था ।

 पापा की छोटी सी दुकान थी , मां घर संभाला करतीं थीं । डॉक्टर, दवा, इलाज के चक्कर में यहां वहां जाने के कारण दुकान अक्सर बंद रहती । पापा कर्जदार बन गये थे लेकिन उनका हौसला बरकरार था ....यदि कोई उनके सामने उन्हें बेचारी भी कह देता ,तो वह उस पर नाराज हो उठते थे ।

डॉक्टर ने इलेक्ट्रिक शॉक का ट्रीटमेंट देने के लिये बोला था । अब समस्या यह थी कि लुंज पुंज बेटी को तीन बसों को बदल कर इलेक्ट्रिक शॉक दिलवाने के लिये लेकर जाना और लौट कर लाना , कैसे किया जाये ...परंतु मां पापा ने हिम्मत नहीं हारी थी ... लगभग दो वर्षों तक उनको शॉक ट्रीटमेंट दिया गया , इसका असर भी दिखाई दिया , शरीर का ऊपरी भाग कफी हद तक क्रियाशील हो उठा था , उसमें हरकत होने लगी थी लेकिन लेकिन कमर का निचला हिस्सा वैसे ही निष्क्रिय रहा था । अब वहां के डॉक्टरों ने भी अपने हाथ खड़े कर दिये थे ।

मां लक्ष्मी की आंखें भीग उठीं थीं । अब यह तो निश्चित हो गया था कि वह अब अपने पैरों पर कभी भी नहीं खड़ी हो सकेगी । उसकी दशा देख कर मां अवसाद से पीड़ित होती जा रही थी । अवसाद के लम्हों में मां के मन में आत्महत्या का विचार हावी होता रहता परंतु बेटी निशा की दुर्दशा और उसकी कठिनाइयों का ध्यान आते ही वह नये उत्साह से बेटी को आत्मनिर्भर बनाने के प्रयास में जुट जातीं थीं ।

 तभी एक डॉक्टर ने उसकी हालत देख कर , उन्हें चेन्नई के आर्थोपेडिक सेंटर ले जाने की सलाह दी । वहां पर दिव्यांग बच्चों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी । उसके साथ साथ बच्चों को खेल कूद के लिये भी ट्रेनिंग देकर प्रोत्साहित किया जाता था ।

पापा प्रशांत ने जरा भी विलंब नहीं किया और उसको लेकर चेन्नई पहुंच गये । उन्हें हॉस्टल में छोड़कर आते समय मां पापा दोनों ही फफक कर रोने लगे थे , परंतु उनके भविष्य के लिये अपने दिल को कड़ा कर लिया था ।

वहां पर उनके पैरों की हड्डियों की कई बार पर सर्जरी की गई । सर्जरी , दर्द , फीजियोथैरेपी और एक्सरसाइज का अंत हीन सिलसिला उनके जीवन का आवश्यक हिस्सा बन गया था । यहीं पर दूसरे बच्चों को खेलते देख कर उन्हें भी खेल में रुचि उत्पन्न हो गई । खेल का अभ्यास इनके लिये दवा से अधिक प्रभावी कारक बन गया ।

उनकी सर्जरी कामयाब न होने के कारण यह तो तय हो गया था कि अब उन्हें अपना जीवन व्हील चेयर के सहारे ही बिताना होगा । परंतु वहां पर दूसरे बच्चों को क्रिया शील देखने के बाद उनका आत्मविश्वास और जीवन जीने का हौसला बहुत ज्यादा बढ गया था ।

वह 15 वर्षों तक चेन्नई के सेंटर में रही थीं । वहां रहने से उनके मन में कुछ कर गुजरने का हौसला पैदा हो गया था । अब मां पापा उनको लेकर बंगलुरू लेकर आये और ग्रैजुएशन के लिये कॉलेज में एडमिशन करवा दिया था परंतु मुसीबतों से तो उनका आत्मीय रिश्ता रहा था , इसलिये यहां भी वह भला क्यों उनका साथ छोड़ती .... उनकी क्लास ऊपर के फ्लोर पर लगती थी लेकिन पापा के आग्रह को रहम दिल प्रिन्सिपल ने मान कर ग्राउँड फ्लोर में लगवाने का प्रबंध कर दिया । अब तक उनका आत्मविश्वास बहुत बढ चुका था ।

  यहीं पर उन्हें पैरा ओलंपिक के विषय में मालूम हुआ और यहीं पर उनकी शॉटपुट और चेयर रेसिंग की प्रैक्टिस शुरू हुई । उनकी लगन और कुछ कर गुजरने की भावना के कारण उनके खेल में निखार आता गया । कड़ी मेहनत और बुलंद हौसलों के कारण कामयाबी उनके कदम चूमने लगी ।

सर्वप्रथम स्थानीय स्तर पर उन्हें सफलता मिली फिर तो सिलसिला चल निकला था । प्रादेशिक स्तर पर मेडल मिलने के बाद राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं को जीतने के बाद ओलम्पिक का सपना देखना तो स्वाभाविक ही था । उनके कोच रवींद्र जी उन्हें उत्साहित करते रहते ।

ओलम्पिक में भाग लेने के लिये रेसिंग व्हील चेयर की जरूरत थी लेकिन उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि वह रेसिंग व्हील चेयर खरीद सकती, उन्होंने किराये की व्हील चेयर से अपना काम चलाया था ।

 जीवन का अविस्मरणीय पल ओलम्पिक पदक जीतने का क्षण था , उनके जीवन के लिये अविश्वसनीय पल था ...उनके जीवन की दिशा बदल गई थी .... उनको खेल कोटे से बैंक में डिप्टी मैनेजर की नौकरी मिल गई । अब उनके घर की आर्थिक दशा सुधरने लगी थी ।

ओलम्पिक मेडल पाने के साथ – साथ वह कुशल वक्ता बन गईं थीं क्योंकि उन्हें विभिन्न मंचों से बार बार अपनी सफलता के लिये किये गये संघर्ष की कहानियों को बताना पड़ता था ।

 उन्होंने बंगलुरू में एक फाउंडेशन की शुरुआत की है , जहां पर गरीब दिव्यांग बच्चों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती है और उसके साथ - साथ उनके अंदर के हुनर को पहचान कर उसे निखार कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास किया जाता है ।

मां की आवाज से उनकी तंद्रा भंग हुई और वह वर्तमान में लौटी थीं ।

“अरे , आप तैयार नहीं हुई हैं ? आप भूल गईं । आज आपके पुराने कॉलेज में वहां के बच्चों के लिये संबोधन और साथ में आपको सम्मानित भी किया जायेगा ।‘’

“ओह, मैं 10 मिनट में तैयार होकर आती हूं ।‘’

“आराम से कर लो , वहां 2 बजे लेक्चर है ।‘’

जब उन्हें सम्मानित किया गया तो उन्होंने कहा कि इस सम्मान की असली हकदार तो मेरे माता पिता हैं , जिन्होंने अपना हौसला नहीं छोड़ा और अपनी दिव्यांग बेटी के मन में विश्वास जगाया और उन्हीं के प्रयास के कारण आज उनकी दिव्यांग बेटी ने विश्व में अपनी पहचान बनाई है । ये व्हील चेयर नहीं , वरन् मेरी रेसिंग कार है । इसी के सहारे मैंने गोल्ड, सिल्वर और ब्रांज मेडल जीतने में कामयाब हुई हूं ।

 हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है , हमारे मन के अंदर की हीन भावना घर कर लेती है कि हम दूसरों से कमजोर हैं , कमतर हैं , तो आप मानसिक रूप से दिव्यांग बन जाते हैं । वह शरीर से दिव्यांग अवश्य थी , लेकिन दिल से कभी भी दिव्यांग नहीं थी । जीवन में कुछ कर गुजरने का हौसला था । उसी हौसले के कारण वह तमाम कठिनाइयों को झेलती हुई आगे बढती रही ।

मैं सोचती हूं कि मैं दुनिया की सबसे खुशनसीब महिला हूं ... हम सब हर समय इस समाज से या दूसरों से बहुत सारी शिकायतें करते रहते हैं लेकिन कभी यह नहीं सोचते कि हम अपनी ओर से समाज को क्या दे सकते हैं या कि दूसरों की भलाई , अच्छाई के लिये क्या सहयोग कर सकते हैं ।

 यदि दूसरों से लेने और छीनने के स्थान पर कुछ देने की प्रवृत्ति मन में रखें तो अवश्य मेव यह दुनिया बहुत खूबसूरत और सुंदर हो जायेगी ।

हॉल तालियों से गूंज उठा था ।

प्रिंसिपल ने धन्यवाद देते हुये कहा कि निशा जी का जीवन हम सबको जीवन में आगे बढने और मुश्किल घड़ी में हौसला रखने की प्रेरणा देने की मिसाल कायम करता है । हमें कभी भी हिम्मत नहीं हारना चाहिये और न ही मन को कमजोर करना चाहिये ।

वह बहुत खुश थी ....जीवन का एक सफल दिन बीत गया था, उनके मन में अपार संतोष था ।



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