मेरा दु:ख

मेरा दु:ख

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मैं नदी हूं। मेरे उद्गम के कई स्थान हैं। मैं कभी हिमालय से बहती हूं तो कभी पहाड़ों से तो कभी झरनो से, कभी मेरा अस्तित्व बरसात के कारण भी प्रकट होता है। मेरे अनेकों नाम हैं। मैं भी मनुष्य की भांति शुरू में आकार में छोटी होती हूं पर जैसे-जैसे आगे बढ़ती हूं मेरे पानी का स्तर बढ़ जाता है और मैं चौड़ी भी होती जाती हूं। मेरे रास्ते में अनेकों कठिनाईयाँ आती है पर मैं कभी हार नहीं मानती हूं और निरंतर बहती रहती हूं। रास्ते में आने वाली बाधाओं को भी अपने साथ बहा ले जाती हूं। कई बार मैं अपना रास्ता भी बदल लेती हूं पर ऐसा कम ही होता है। मुझ में कहीं जल अधिक होता है कहीं कम। वर्षा के मौसम में मुझ में सबसे अधिक जल होता है।

मैं बहती हुई जिस भी क्षेत्र से गुज़रती हूं वहां की भूमि को हरा भरा कर देती हूं। बंजर भूमि को भी उपजाऊ बना देती हूं। मेरे जल से ना केवल मानव बल्कि पशु-पक्षी, वन्य प्राणी, पेड़ पौधे सभी तृप्त होते हैं। खेती के लिए तो मैं वरदान हूं। मेरे जल से बिजली भी बनाई जाती है जो सभी के लिए उपयोगी है। कुछ लोग मुझे देवी की तरह भी पूजते हैं यह देख कर मुझे बहुत अच्छा लगता है, लेकिन जब मानव मुझ में गंदगी फेंक देता है ,गंदे नालों का पानी मुझ में छोड़ देता है तो मैं दुःखी हो जाती हूं क्योंकि गंदगी के कारण मेरा जल प्रदूषित हो जाता है, जिसके कारण उस पानी को पीने से मानव का तो स्वास्थ्य खराब होता ही है इसके साथ-साथ मुझ में समाये प्राणी के जीवन पर भी संकट मंडराने लगता है। मैं अपने को असहाय पाती हूं। मेरा मानव जाति से निवेदन है कि वह मुझे साफ सुथरा रखें ताकि मैं खुश रह सकूँ और निरंतर बहती रहूं और सभी को जीवन देती रहूं और अंत में समुद्र में समा जाऊँ।


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