मेरा बच्चा मन!
मेरा बच्चा मन!
कल ड्यूटी के दौरान लगभग ढाई तीन वर्ष की एक बड़ी प्यारी सी बच्ची ने मेरा रास्ता रोक लिया। नन्हे नन्हे पैर फैलाकर कहना चाह रही थी कि आगे नहीं जाने दूंगी। मैं रोने जैसा चेहरा बनाया तो हंसने लगी। सामने से जाने की कोशिश की पर उसने मेरे पांव पकड़ लिये। कहने लगी मेरे साथ खेलो तो जाने दूंगी। मैंने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा बेटा, मैं बिजी हूँ। आप बच्चों के साथ खेलो।
कहती हैं- नहीं काका आप खेलो मेरे साथ! मेरे मना करने के बाद भी उसने जिद्द मचा दी।बड़ी अजीब समस्या खड़ी हो गई मेरे साथ। और ये काका शब्द मुझे ऐसा लगा जैसे उसने मुझे खरीद लिया। उस बच्ची की मासुमियत और प्रेम में अंदर से मैं बिक चुका था। मानो एक बच्चे के प्रति पिता का भाव उत्पन्न हो गया हो। और मैं भावुक हो गया।
सच कहूं तो उस वक्त जो मेरी दशा थी उसका चौथा भाग भी वर्णन नहीं कर पा रहा हूँ।
न जाने मुझे क्या हो गया,ना ड्युटी का ख्याल रहा ना लोगों की परवाह। मैं सब कुछ भुलाकर उस बेटी के साथ एक बालक बनकर जमीन पर लोट-लोटकर खेलने लगा। और उसके इशारे पर वो सब करता गया जो उसे पसंद थे। खुद के कपड़े भी गंदे कर लिये। थोड़ी देर के लिए तो मैं ऐसे खो गया जैसे स्वर्ग की सारी खुशियां मिल गई।
