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अमित प्रेमशंकर

Tragedy Classics Inspirational

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अमित प्रेमशंकर

Tragedy Classics Inspirational

रामनवमी का दिन

रामनवमी का दिन

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  *रामनवमी का दिन*

 मुझे बचपन से ही गाड़ी सीखने और चलाने की बहुत इच्छा थी। गांव-घर में कोई रिश्तेदार जब मोटरसाइकिल लेकर आ जाता तो, "थोड़ा सा चलाने को दीजिए ना" कहकर गिड़गिड़ाता और जिद्द भी कर देता। इस तरह से धीरे-धीरे कर के मैंने किसी तरह से बाईक चलाना सीख लिया। पर मेरा सपना अब भी अधूरा था। मुझे बड़ी गाड़ियांँ भी चलानी थी। जब मैं बस में बैठकर अपने नानी के घर जाता तो देखता था, ड्राइवर कितने मजे से स्टेरिंग घूमाता है। चढ़ाई में हांय हांय की आवाज, एक्सलेटर देने पर जो होती थी सुनने में बड़ा मज़ा आता था। कुछ काम से जब कभी मुझे बस में बैठना होता तो,सीट खाली रहते हुए भी मैं ड्राइवर के पास केविन में बैठता था। सिर्फ यह देखने के लिए कि वह कैसे-कैसे और कितने मजे से गाड़ी चलाता है। मैं उसे हमेशा नोटिस करते रहता कि गीयर कैसे चेंज करता, सामने से कोई दूसरी गाड़ी आती तो कैसे कम से कम जगह में अपनी गाड़ी को निकाल लेता। मैं आनंदित होता और एक दृढ़ संकल्प और आत्मविश्वास के साथ,अपने सपनों की दुनिया में खोया रहता कि मैं भी एक दिन इसी तरह से गाड़ी को चलाकर रहूँगा। पर हमारे पास फोर व्हीलर सीखने का कोई ऑप्सन ही नहीं था। मैं ठहरा गांव का लड़का जहांँ न तो कोई मोटर ट्रेनिंग स्कूल है और ना ही उस समय किसी के पास फोर व्हीलर,जिससे मैं आसानी से सीख पाता। और किसी के पास था भी तो,बाईक तो है नहीं! कि जिद्दी करने पर मुझ जैसे बच्चे को दे दे। और ये मुमकिन नहीं था। बात 2013 की है। बी.ए. पार्ट वन की परीक्षा लिखने के बाद , रिजल्ट की प्रतीक्षा में था । एक दिन अचानक गांव के ही एक व्यक्ति ने कहा- अमित तुमको गाड़ी सीखना है? तो चलो मेरे साथ। मेरे तो खुशी का ठिकाना ही न रहा। और मैंने तुरंत हांँ भर दिया। मैंने सोचा ऐसे बैठा ही हूँ। जबतक रिजल्ट आएगा तबतक गाड़ी सीख लूंँगा। पिताजी को बताया तो उन्होंने भी कहा कि ठीक है जाओ लेकिन जिस काम को करने जा रहे हो उसमें सावधानी और सतर्कता बहुत ही आवश्यक होता है। और फिर दो जोड़ी कपड़े लेकर अगले ही दिन उसके साथ हो लिया। भोला अपने गाड़ी में मगध या आम्रपाली कोल माइन्स से कोयला लोड करता और बंगाल के अलग-अलग कारखानों में ले जाता। जब गाड़ी खाली रहता तो मुझे थोड़ा थोड़ा चलाने के लिए सीखाता। मुझे भोला के साथ बहुत ही अच्छा लग रहा था। गाड़ी में ही स्टोव पर खाना बनाते और गाड़ी में ही सोते। और जब कभी खाना बनाने का समय नहीं मिलता तो होटल में खा ले लेते। लगभग महीने भर हो चले थे और मैं खाली जगहों पर गाड़ी चलाने लग गया था। एक दिन की बात है -हर दिन की तरह हमने आज भी आम्रपाली कोल माइन्स से कोयला लोड किया और सुबह सुबह निकल पड़े बंगाल के लिए। दोपहर के लगभग 12 बजे तक हमलोग चीरकुंडा बार्डर पहुंँच गए।(झारखण्ड - बंगाल चेक पोस्ट) वहाँं गाड़ियों की काफी लम्बी लाईन लगी थी। हमने सोचा जब तक हमारा नंबर आएगा तब तक हमलोग कुछ खाना बना लेते हैं। मैं खाना बनाने लग गया और भोला गाड़ी का पेपर लेकर चेक पोस्ट पर चेक-इन के लिए चला गया। एक घंटे में मैंने भात और सब्जी बना लिया था। भोला अब भी नहीं आया, तो मैंने सोचा तब तक नहा धोकर फ्रेस हो जाता हूँ। और फिर भोला के आने के बाद दोनों एक साथ खाना खाएंगे। थोड़ी देर में देख रहा हूँ कि भोला हाथ में पेपर लिए दौड़ा दौड़ा आ रहा है बहुत ही जल्दबाजी करते हुए कहने लगा, तुमने खाना खाया? मैंने बोला कि नहीं अभी नहीं खाया। अभी-अभी नहाकर आया हूंँ। मैं अभी ठीक से कपड़े भी नहीं पहना था कि भोला कहने लगा चलो जल्दी चलो। गाड़ी का पासिंग मिल गया है। हमलोग पहले निकल लेते हैं। उसने गाड़ी स्टार्ट कर दिया। मैं भी फटाफट पानी का बाल्टी गाड़ी में रखा और वैसे ही सिर्फ बनियान और हाॅफ पैन्ट में चल दिया। हमें अभी मधुकुंडा जाना था।यह चीरकुंडा बार्डर से लगभग 15-17 किलोमीटर दूरी पर था जो पंचेत डैम से होते हुए जाना था। बड़ी तेजी से हार्न बजाते हुए भोला ने बार्डर पार कर लिया। अब हमलोग मधुकुंडा जाने वाले रास्ते के तरफ़ मूड़ चुके थे। भोला ने निश्चिंत भरे स्वर में कहा अमित तुम गाड़ी में ही खा लो हम मधुकुंडा पहुंँचकर बाद में खाएंगे। और चलती हुई गाड़ी में मैं खाना खाने लगा,हम कुछ ही देर हम मधुकुंडा पहुंँच गए। वहांँ बहुत सारे कारखाने थे। हमने पेपर निकाल कर एड्रेस देखा तो समझ नही आया, थोड़ा कन्फ्यूज था। एड्रेस के दिए गए नम्बर पर फोन किया तो बातचीत के दौरान पता चला कि हम थोड़े आगे निकल गए हैं। हमें जिस फैक्ट्री में कोयला अनलोड करता था वह पीछे ही छूट गई है। सिंगल सड़क थी उसमें भी इतनी संकरी कि बगल से एक साइकिल भी पार न हो सके। और ऊपर से समस्या यह कि उसी रास्ते से रामनवमी का जुलूस भी निकाला गया है काफ़ी भीड़ थी । हमारी गाड़ी धीरे धीरे आगे बढ़ रही थी। हमलोग एक ऐसी जगह की तलाश में थे, जहांँ से वापस गाड़ी मोड़ी जा सके। थोड़ी दूर आगे जाने पर दाएं तरफ एक गली दिखी। भोला ने कहा कि अमित, गाड़ी को यहीं से घुमा लेता हूंँ, आगे जुलूस है मुश्किल हो सकता है। तुम नीचे उतरकर मेरी मदद करो। भोला रिवर्स गियर लगा चुका था और जब तक मैं नीचे उतरकर पीछे की तरह जाता, उसके पहले ही भोला गाड़ी पीछे ले लिया। अचानक बहुत जोरों की आवाज हुई, खटाक...! उसने तुरंत ब्रेक लगाया। भोला ने घबराहट भरे शब्दों में कहा कि अरे क्या हुआ? जल्दी देख! मैं एक पल भी गंवाए बिना नीचे झुक कर देखा तो.. आवाक रह गया। लगभग 30 टन कोयला से लदा ट्रक, जिसके पिछले पहिये के नीचे एक लाल रंग की हीरो होंडा मोटरसाइकिल पूरी तरह से दब चुकी है। पेट्रोल बह रहा है। पीछे से किसी के रोने चिल्लाने की दर्दनाक आवाज आई। मैं बहुत घबरा गया, और सन्न हो गया। इधर दूसरी तरफ देखा तो जुलूस वाले लगभग बीस पच्चीस आदमी दर्दनाक आवाज सुनकर लाठी डंडा लेकर हमारी तरफ गाली गलौज करते हुए तेज़ी से आ रहे थे। कोई जमीन से पत्थर उठा रहा था तो कोई चप्पल खोलकर हाथ में लेकर हमारी ओर बढ़ रहा था। मारो.. मारो.. ट्रक वाले ने जान ले ली मारो... मारो.... भीड़ पूरी आक्रोशित थी। मैं गाड़ी के नीचे और भोला अब भी स्टेरिंग पकड़कर ड्राइविंग सीट पर बैठा था। हमने सोचा आज हमारी भी जान नहीं बचेगी। बस पांँच-सात सेकण्ड में ही सभी गाड़ी तक पहुंँच गए। इतने ही समय में मैंने भोला से कहा भाग..भाग.. जल्दी भाग.! आज हमारी जान नहीं बचेगी। गाड़ी से उतरकर एक तरफ वो भागा। एक तरफ मैं। ज्यादा लोग उसकी तरफ भागे और कुछ लोग मेरी तरफ। वो देखो... एक इधर भागा, एक उधर। पकड़ो....पकड़ो... मारो ... मारो.. चारो तरह से यही आवाज आ रही थी। हम दोनों अपनी अपनी जान बचाने के लिए बिछड़ चुके थे। जय श्री राम...जय श्री राम.. मन में कहते हुए मैं आंधी तूफान के जैसा वही बनियान और हाॅफ पैन्ट में गिरते संभलते नंगे पांव बस भागे जा रहा था। कहाँ जा रहा हूँ, किधर जा रहा हूँ कुछ पता नहीं! कुछ लोग अब भी मेरे पीछे तेजी से दौड़े आ रहे थे। लगभग एक किलोमीटर भाग चुका था, सांसें भी फूलने लगी थी। पर जान बचाने के लिए झाड़ियों से होते हुए मैं जोर से जंगल की तरफ़ भागे ही जा रहा था। भागते भागते मुझे एक रास्ता जैसा दिखाई दिया।शायद जंगल के लोगों का इधर से आना-जाना होता होगा। पीछे मुड़कर देखा तो मेरे पीछे कोई नहीं था। शायद वे लोग लौट गए जो मुझे दौड़ा रहे थे। थोड़ी मेरी जान में जान आई। पर अब भी उतना ही डर था, पता नहीं लोग किधर से आकर पकड़ ले। मैं काफी थक चुका था, ऊपर से धूप और गर्मी का महीना। प्यास भी जोरों से लग चुकी थी। मैं अब दौड़ नहीं रहा था पर तेजी से चलते जा रहा था। इस खुसकी रास्ते का कुछ अता पता नहीं था कि कहाँ इसका अंत होगा या कहाँ किस गांव से जाकर मिलेगी। पर इतना ध्यान था कि मैं उत्तर दिशा की ओर जा रहा हूँ और कही ना कही यह जंगल से बाहर जरूर निकालेगी। उसी रास्ते में मुझे कुछ आदिवासी लोग मिलने लगे। छोटे छोटे खेत भी दिख रहे थे। आधे आधे कपड़ों में अजीब तरह के लोग एकदम तंदुरुस्त और काले काले। किसी ने मुझे कुछ नहीं कहा, पर वे लोग मुझे अलग नजरिए से देख रहे थे। शायद इसीलिए कि मैं उनलोगों को नया जान प्रतित हो रहा होगा। मैं चलते जा रहा था, अबतक मैं घटनास्थल से लगभग चार -पांँच किलोमीटर दूर जंगल में घुस चुका था। उन आदिवासियों की छोटी सी बस्ती के दूसरे छोर पर पहुँचा तो देखा कि कुछ लोग लकड़ियों का गट्ठर बनाकर उसी रास्ते से आगे जा रहे थे। मैं समझ गया ये लोग जंगल से बाहर निकल कर लकड़ी बेचने जा रहे हैं। मैं उन्हीं लोगों के पीछे चलने लगा। अब पूरा विश्वास हो गया था कि यह रास्ता मेन रोड तक जाएगा। पर मन में अब चिंता सताने लगी। वो यह, कि रोड पर निकल तो जाऊंँगा, लेकिन नंगे पांव, सिर्फ बनियान और हाॅफ पैन्ट में बिना पैसे के जाऊंँगा तो जाऊंँगा कहाँ? मेरा पर्स और मोबाइल फोन सब वहीं गाड़ी में ही रह गया था। दुर्भाग्य देखो कि किसी को फोन कर के मदद भी नही मांग सकता था। लेकिन प्रभु श्री राम के प्रति हृदय में दृढ़ विश्वास था कि उन्होंने जान बचा ली तो आगे भी,वह सब अच्छा ही करेंगे। चलते-चलते आखिरकार यह रास्ता एक पक्की सड़क पर मिल गई। जंगल की सुनसान सड़क एकदम साफ और सुंदर लग रही थी। एकाध टेंपू और मोटरसाइकिल आ- जा रहे थे। मैं थोड़ा ठहरा और फिर सोचने लगा कि जंगल से तो निकल गया लेकिन इस हालत में कहाँ और कैसे जाऊंँ। मन में अब भी थोड़ा डर था कि हो न हो जो लोग मुझे पकड़ने की कोशिश कर रहे थे,वे लोग इस रास्ते से आ जाएंँ। अचानक मन में एक उपाय सूझा और मैं एकदम सामान्य होकर रोड़ के किनारे चलने लगा,एकदम इस तरह से जैसे मुझे कोई देखे तो उसे ऐसा लगे जैसे मैं वहीं का हूँ, और यहीं आस-पास हमारा घर हो। अभी दस कदम ही चला था कि सड़क के बाईं ओर एक गन्ना जूस वाला दिखा। मैंने सोचा इसी से अपनी आपबीती सुनाई जाय,हो सकता है कुछ मदद करे। उसके निकट गया तो, उसने मुझे ग्राहक समझकर जूस के लिए पूछने लगा । मैंने बोला दादा मुझे जूस नहीं पीना आप थोड़ा पानी पिला दो। पानी से भरा प्लास्टिक का जग बढ़ाते हुए उसने कहा - ये लो। और बाल्टी का थोड़ा बचा हुआ पानी फेंकते हुए कहा कि -तुम थोड़ा यही ठेले के पास रूकना मैं अभी सामने के चापाकल से पानी लेकर आता हूँ। मैं वहीं लगे स्टूल पर बैठ गया। वह जैसे ही पानी लेकर आया मैं तुंरत उठकर कहा दादा.... उसने मेरी तरफ देखा...हांँ! मैंने कहा मैं एक मुसीबत में हूँ... और फिर अपनी पूरी कहानी उसे सुना दी। उसने आश्वासन देते हुए कहा कि ठीक है घबराओ नहीं। कुछ करते हैं। और फिर उसने किसी को फोन किया। दस पन्द्रह मिनट बाद एक आदमी मोटरसाइकिल से आकर हमलोग के पास रूका। उस गन्ने वाले दादा ने उस आदमी को मेरी पूरी कहानी बता दी। शायद गन्ने वाले दादा ने इसकी व्यक्ति को फोन किया था मुझे ऐसा लगा। ओह! उस व्यक्ति ने दुःख जताया। फिर मुझसे कहा कि तुम जाओगे कहाँ? मैंने अपना पूरा पता बताया और कहा कि अब मैं घर जाना चाहता हूंँ। और मेरे पास कपड़े भी नहीं है। वो थोड़ा सकुचाया और कहा कि मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं कि तुम्हें कपड़े दिलवा सकूँ और लगभग तीन सौ किलोमीटर घर जाने के लिए बस का किराया दे सकूंँ। मेरे पास ये दो तीन सौ रूपये हैं,इससे तुम्हारा जो काम बने। और उसने मेरे तरफ बढ़ाया। मैं उन पैसों को रख लिया। और एक प्रार्थना किया कि दादा दया करके आप मुझे अपने बाईक से चिरकुंडा बार्डर तक छोड़ दो। मैं वहांँ से किसी तरह अपना घर चला जाऊंँगा। उसने आधे मन से ही कहा ठीक है चलो। मैं झट से बाईक पर बैठ गया। आधे मन से ही सही लेकिन उस व्यक्ति ने मुझे चिरकुंडा बार्डर तक छोड़ दिया। मैंने उसका खूब धन्यवाद कहा। और फिर वह लौट गया। मैं बार्डर पर पहुंँच कर पैसे गिने तो दो सौ तीस रुपए थे। शाम भी होने को थी, सूरज अब अस्त होने ही वाला था। ऐसे स्थिति में मैं इन पैसों को संभालकर रखना जरूरी समझा और फिर लाईन में लगे ट्रकों के नम्बर प्लेट एक एक करके देखने लगा, कि कौन सा ट्रक अपने इलाके का है। चतरा या हजारीबाग का कोई नम्बर मिल जाए तो उससे लिफ्ट लेकर चला जाऊंँगा। थोड़ा आगे बढ़ा तो एक JH02 की नंबर प्लेट दिखी। यह हजारीबाग का नम्बर था। मैं सीधा गेट खोलकर उसके ट्रक में चढ़ गया। उसका ड्राइवर और हेल्पर दोनों खाना खा रहे थे। मेरा हुलिया देखकर वो मुझे किसी गाड़ी का हेल्पर समझ के पूछने लगे कि तुम्हारी गाड़ी आगे है या पीछे? मैंने कहा उस्ताद... मैं मधुकुंडा से भागकर आया हूँ,मेरा गाड़ी एक्सीडेंट हो गया है। और फिर उसे भी अपनी पूरी कहानी सुनाई। ओह! उसने भी दुःख जताया, पर शाबाशी भी दी कि तुमने ठीक समय पर भागना उचित समझा नहीं तो तुम्हारे जान को खतरा था। उसने कहा कि ऐसे स्थिति में आक्रोशित लोग गाड़ी में भी आग लगा देते हैं। खैर भगवान का शुक्र है। पर अब चिंता मत करो। मेरी गाड़ी में चिन्नी मिट्टी लोड है इसे दूर्गापुर में खाली करके मुझे वापस हजारीबाग लौटना है। मैं तुम्हें वहाँ छोड़ दूंँगा। मैं सोचा यही ठीक आप्सन है।इसी के साथ हो लेते हैं। उस समय हमारे गांव के कुछ लोग हजारीबाग में पढ़ते थे। हजारीबाग पहुंँचकर किसी तरह अपने दोस्तों के रूम चला जाऊंँगा। और मैंने हांँ कर दिया। अब मैं सुरक्षित था और समस्या का सामाधान भी मिल चुका का। पर एकाएक मुझे भोला भाई की चिंता होने लगी कि वह कहाँ और किस हालत में होगा। उसका नंबर भी मुझे याद नहीं कि उसे फोन करता। और मेरा फोन तो गाड़ी में ही छूट गया था। वह भी मुझसे सम्पर्क नहीं कर सकता था। मन में ख्याल आया कि एक बार अपने नम्बर पर फोन करके देखता हूँ। अगर गाड़ी सुरक्षित होगी और फोन किसी के हाथ लग गया होगा तो... कुछ तो खबर मिले। पास बैठे उस्ताद को बोला कि मेरे नंबर पर थोड़ा काॅल कीजिए ना! काॅल किया और रिंग हुआ पर किसी ने रिसीव नहीं किया। फिर किया। फिर वही हाल, कोई रिस्पांस नहीं। मुझे एक बार लगा कि अपने पिताजी को फोन कर के सारी कहानी बता दूँ, फिर सोचा कि- नहीं ! ऐसा न्यूज घर में जाने के बाद माँ समेत सारे परिवार हड़बड़ा जाएंगे। और बेकार की चिंता करने लगेंगे।इसलिए मैंने सोच विचार कर फोन नहीं किया। और फोन उस्ताद को लौटा दिया। मछअंधार हो चुका था दुकानों में लाईटें जलने लगी थी। मैं उसी तरह बनियान और हाॅफ पैन्ट में रोड़ के किनारे बैठ गया। गर्मी का महीना था तो कोई खास फर्क नहीं पड़ रहा था, परन्तु ऐसे हालत में बहुत अजीब सा लग रहा था। अचानक उस्ताद ने आवाज लगाया.. अरे देखो तो किसी नंबर से फोन आया है, कहीं ये तुम्हारा ही नंबर तो नहीं? मैंने देखा तो, मेरा ही नंबर था। सकपकाते हुए उठाया। हैलो - वो एकदम धीमें स्वर में ऐसे बोला जैसे कई दिनों से बिमार हो। अरे! ये तो भोला की आवाज है। मैं अचरज में पड़ गया। मैं बोला -आप कहांँ हो भोला भाय। उसने जबाब में दिया कि - तुम कहांँ हो? मैं बोला, भैया मैं तो चिरकुंडा बार्डर पहुंँच गया हूँ। अरे! उतना दूर कैसे पहुंँच गया? उसने आश्चर्य से कहा। मैंने उसको शार्ट में सब बताया और पूछा कि आप कहांँ हो और मेरा फोन आपके पास कैसे? उसने कुछ नहीं बताया बस इतना कहा कि मैं ठीक हूँ और कोई खतरा नहीं है, तुम जल्दी से किसी तरह पंचेत डैम के चेक नाके पर पहुँचो। रात हो चुकी थी, और मुझे लगभग पांँच छः किलोमीटर पुनः रिटर्न आना था। खैर रामनवमी का मेला होने के कारण ऑटो का आवागमन अभी जारी था। मैंने उस्ताद से कहा कि मेरा ड्राईवर ही फोन किया है पंचेत डैम के पास बुलाया है। मैं जाता हूँ। और इतना कहकर वहाँ से चल दिया। मैं उस रास्ते की तरफ मुड़ा जो पंचेत डैम की तरफ जाता है । एक ऑटो वाला कुछ जगहों का नाम लेकर सवारियों को बुला रहा था। मैं नजदीक जाकर कहा पंचेत डैम..? उसने बैठने का इशारा किया। मैं झट से बैठ गया। चार पांँच लोग पहले से ही बैठे थे, मेरे बैठते ही उसने तुरंत ऑटो स्टार्ट किया और चल दिया। मैं पंचेत डैम पहुंँचा तो देख रहा हूँ हमारी गाड़ी यहांँ पहुँची है। भोला,गाड़ी में सोया है और दिन का बना हुआ खाना वैसे ही पड़ा है। डैशबोर्ड पर देखा तो कुछ दवाइयांँ पड़ी थी। एक ओर भोला का फटा हुआ शर्ट टंगा है। मैं समझ गया कि भोला भाई उनलोगों के चंगुल में फंस गए और उन्होंने ,इन्हें बुरी तरह पिट दिया है। साथ में चलने वाले दूसरे गाड़ी के ड्राइवर लोग मुझे पूछे तो मैंने पूरा वृतांत सुना दिया। कहने लगे कि, बाबू आज तेरी किस्मत अच्छी थी। भगवान तुम्हारे साथ थे, इसलिए बच गए। ये देखो भोला की हालत। तुम्हारी भी यही हालात होती। अच्छा हुआ कि भगवान तुम्हें दूसरी तरफ भगा ले गए। और तुम शुक्र मनाओ ईश्वर का कि एक्सिडेंट में सिर्फ मोटरसाइकिल ही गयी, यदि उसके साथ उस आदमी का कुछ होता, तो न ये गाड़ी रहती और ना ये भोला। भगवान ने आज तुझे बचा लिया। बस भोला को थोड़ी लप्पड़ थप्पड़ मिली हैं। ईश्वरीय शक्ति की गाथा सुनकर मेरे रोंगटे खड़े होने लगे। मैं एकदम से भावुक हो गया और गाड़ी में रखे बाल्टी के पानी से हाथ पैर धोकर सबसे पहले श्रद्धा पूर्वक भगवान के चरणों में अगरबत्ती जलाकर नतमस्तक हो,हृदय से उन्हें खूब धन्यवाद दिया। मेरा पूरा शरीर गनगनाहट से भर गया। रोने का दिल करने लगा और फिर सचमुच आंँखें भर आई... इतनी बड़ी विपत्ति में भी ईश्वर ने मुझे कहाँ से कहाँ ले जाकर और कैसे करके मेरी जान बचाई। रात के लगभग दस बज चुके थे।भोला ने कहा मुझे ठीक नहीं लग रहा है, और भूख भी नहीं है। तुम दिन का बचा हुआ खाना खा लो, और चलो। मैं वही दिन का बचा हुआ खाना खाकर ईश्वर का नाम लेकर गाड़ी स्टार्ट किया और चला। और इस तरह से उस दिन ईश्वर ने हम दोनों को सुबह तक सुरक्षित आम्रपाली कोल माइंस में पहुँचा दिया। और फिर हम अपने घर आ गए।


 कवि, लेखक व गीतकार
श्री अमित प्रेमशंकर ✍️                                     


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