मदद की चाहत
मदद की चाहत
सर्दियों का मौसम शुरु हो चुका था। संस्था की महिलाएँ प्रतिदिन कार्यक्रम बनाती लेकिन किसी कारणवस कार्यक्रम रद्द होजाता। आखिर एक शनिवार के दिन हम चार-पाँच महिलाएँ राज़ी हुई,प्रोग्राम बन गया पहले शनी मंदिर जाएँगे वहाँ पर भूखों कोखिला कर, रेलवे स्टेशन जाकर ज़रूरत मंदों को कंबंल बाँटेंगे।
लगभग साढ़े बारह बजे दिन मे हम सभी महिलाएँ मंदिर पहुँच गए।कोई पूड़ी,कोई सब्ज़ी, खीर आदि अपने -अपने हाँथों से बनाकर बड़े ही श्रद्धा से खिलाना शुरु किया, माँगने की होड़ लग गई।लेकिन ये क्या सभी खाने के बजाए बड़े -बड़े थैलों में भरने लगे, थैलोंमें पहले से ही काफ़ी भोजन सामग्री मौजूद था।अभी भूख नहीं है मैम बाद में खाएँगे। हम सभी उदास हो गए,इतनी मेहनत से बना करलाए परंतु इनको तो ज़रूरत ही नहीं।
अब हम सब दूसरे पड़ाव यानि स्टेशन पहुँच चुके थे।हम सब ने पहले ही तय कर लिया था “सिर्फ़ ज़रूरतमंदों को कंबल दियाजाएगा”इधर उधर नज़र दौड़ाया, कई थे वहाँ, जिन्हें ज़रूरत थी दूर से दो भिखमंगे एक अंधा था जो दूसरे के सहारे चल रहा था,दोनोंके तन पर गरम कपड़े भी नहीं थे।हम सब ने जाकर उन्हें दो कंबंल दिए।घर लौटने का समय भी हो चला था। हम सब अपनी गाड़ी मेंबैठने के लिए बाहर आ गए, तभी मुझे याद आया घर से कुछ पुराने कपड़े रख लिए थे। वो भी देती चलूँ, वापस गई तो वहाँ का नजारामुँह चिढ़ा रहा था,”दोनों भिखमंगे जो देख नहीं सकता था वो भी एक दूसरे से ताली मार कर ज़ोर ज़ोर से हँस रहे थे।कंबंल भी कहींनज़र नहीं आया।आशचर्यचकित, ठगी सी मैं गाड़ी में बैठकर सारा वृतांत सहेलियों को बता रही थी।
ड्राइवर जो हमलोगों की बातें सुन रहा था बोल पड़ा अरे !मेमसाहेब यहाँ शहर में कोई भूखा-नंगा नहीं है।इनको देने वालों कीकमी नहीं है मैंने देखा है इन्हे, नये कंबलों को जला कर रात में तापते हुए। देना ही है तो सुदूर गाँव में दिजीए।हमें भी ड्राइवर की बात में सच्चाई नज़र आ रही थी।