मौसम बदले ना बदले नसीब
मौसम बदले ना बदले नसीब
"यह कैसी जिद है शारदा! अब छोड़ो भी! मैंने कहा ना तुम्हारी जो इच्छा हो, जैसा चाहोगी वैसा ही होगा। फिर भी तुम समझ क्यों नहीं रही? और तो और मुझे यह समझ में नहीं आ रहा कि तुमने इतने सालों में ऐसी जिद कभी नहीं पकड़ी फिर अब इस उम्र में आकर क्यों?
"हां मां, पापा बिल्कुल सही कह रहे हैं। क्या बच्चों सी जिद पकड़ कर बैठ गई हैं। आखिर किसी चीज की कमी है जो इस उम्र में आप नौकरी करेंगी?" बेटा ने कहा।
"देखो तुम्हें पिया का कन्यादान करना है तो कर लो जो खर्च लगेगा मैं देने को तैयार हूं लेकिन हां, यह नौकरी करने की जिद छोड़ दो। जानती हो समाज में लोग क्या कहेंगे? अरे कम-से-कम मेरी इज्जत के बारे में तो सोचो!"
"देखिए मैं अपना फैसला आप लोग को सुना चुकी हूं। चाहे कुछ भी हो जाए यह नौकरी तो मैं करूंगी ही। रही बात कन्यादान की तो उसके नाना नानी करेंगे।"
बोलकर शारदा जी कमरे में चली गईं। पर मन बहुत अशांत था, दिमाग में उथल-पुथल सी मची थी। काफी कोशिशों के बावजूद भी मन शांत नहीं हो रहा था। क्या करूं क्या नहीं समझ नहीं आ रहा था? आज उसे भगवान पर भी बहुत गुस्सा आ रहा था, उन्हें कोसने को जी कर रहा था। आखिर इतने मायाजाल और बंधनों में एक औरत को क्यों बांध देते हैं? उसका हृदय इतना कोमल क्यों कर देते हैं कि वह कोई निर्णय नहीं ले पाती। पूरा जीवन वह दूसरों के लिए समर्पित कर देती है, और बदले में बस ठगी जाती है। एक रिश्ते में नहीं हर रिश्ते में। आखिर लोगों को ऐसा क्यों लगता है कि एक औरत सब कुछ कर सकती है, बड़ी से बड़ी जिम्मेदारी उठा सकती है परंतु वो एक निर्णय खुद नहीं ले सकती? उसके जीवन का हर एक निर्णय कभी पिता, कभी भाई, कभी पति तो कभी बेटा लेता है क्यों? सच में औरत मायके से लेकर ससुराल तक हर रिश्तों में ठगी ही जाती है।
यही सब सोचते हुए मन अनायास पुरानी यादों में खो गया।
उसे याद है स्कूल की पढ़ाई पूरी होने पर जब उसने आगे की पढ़ाई अपने भाई की तरह विज्ञान विषय में करने की बात कही तब कैसे मम्मी नाराज हो गई थी? तुम्हें कौन सा डॉक्टर इंजीनियर बनना है। स्कूल पास कर लिया वही काफी है। जरूरी है भाई ने कॉलेज पढ़ा तो तुम भी पढ़ोगी। भाई पढ़ लिया उसे सफलता मिल गई तो क्या यह तुम्हारी सफलता नहीं है?
बार बार जिद करने के बाद पापा ने अपने ही शहर के कॉलेज में नाम लिखा दिया। नहीं मन होने के बावजूद संस्कृत विषय रखकर ग्रेजुएशन करवा दिया वह भी इसलिए की ताकि मेरी शादी एक अच्छे घर में हो जाए। मां से कितनी बार कहा थोड़ा मुझे भी सपोर्ट करो मां! मैं भी भैया के जैसे नौकरी कर सकती हूं, आगे बढ़ सकती हूं। मां ने तुरंत कहा, अब जो भी करना हो ससुराल जाकर करना। सही सलामत मेरे घर से विदा होकर चली जा फिर जो करना हो करती रहना।
शादी होकर जब ससुराल आई तो अपने ससुराल में मैं पहली बहू ग्रैजुएट बहू थी। आसपास में आग की तरह खबर फैल गई इतनी पढ़ी लिखी बहू है!
कितने स्कूल से मुझे नौकरी के लिए ऑफर आया। एक बार मेरे पति तो तैयार भी हो गए लेकिन सास ने तुरंत कहा अब तू पढ़ी लिखी है तो बैग लेकर नौकरी करने जाएगी और तुम्हारा घर, तुम्हारे रिश्ते नाते मैं संभालूं? तुम्हारा पति काम पर जाता है, तुम्हारा देवर कॉलेज जाता है उस सब को बनाकर मैं दूंगी। बहू के आने के बाद भी मैं ही काम करती रहूं तो फिर बहू को घर में लाने का क्या फायदा?
उनकी बातों को घर वालों ने भी इस तरह हां में हां मिलाया कि मेरे दिमाग में यह बात बैठ गई कि सच में यह घर, रिश्ते तो मेरे ही हैं, अब मुझे ही संभालना है। नौकरी और अपने बारे में सोचना छोड़कर जी जान से सब रिश्ते और घर संभालने लगी। वही जब देवर को जब नौकरी लगी मैं कितनी खुश हुई। यूं ही हंसते हुए कह दिया, तब देवर जी पार्टी कब दे रहे हैं?
"देवर ने तुरंत ताना कसा, गांव बसा नहीं लुटेरे पहले आ गए। इतनी मेहनत के बाद सफलता मिली तो उसका फल पहले खुद चखूं या दूसरे को बांटता फिरूं!"
कितना बुरा लगा सुनकर। वहीं बैठी सास ने एक बार भी नहीं कहा कि हां, थोड़ा हक तो तुम्हारी भाभी का भी बनता है। आखिर तुम्हारी पढ़ाई के पीछे कितनी रातें जगी है। कभी देर रात को तुम्हें चाय बनाकर देने के लिए, कभी गरम पानी तो कभी जल्दी जाना है तो सुबह 4:00 बजे उठकर नाश्ता बनाने के लिए। पर मुंह से एक शब्द नहीं निकला। जब यह बातें इन्हें कहा तो ये तुरंत बोले, अरे! उसकी बातों का क्या बुरा मानना मैं हूं ना तुम्हारे लिए मेरा जो कुछ भी है वह तुम्हारा ही तो है।
मुझे भी इनकी बातें सच लगी। फिर यह सोचकर संतुष्ट हो गई कि चलो मैंने अपना कर्तव्य पूरा किया। मैं नौकरी नहीं की तो क्या हो गया अपना परिवार तो अच्छे से संभाल लिया।
अब मेरे दो बच्चे और पति इन तीनों के पीछे अपना सर्वस्व न्योछावर करना है ताकि यह अपने जिंदगी में सफल हो। मैं जी जान से जुट गई। और मैं कामयाब हो भी गई। आज भी याद है जब बेटे ने कहा, मां मैंने इंजीनियरिंग पास कर ली। सुनते ही मैं खुशी के मारे गिर गई। कई दिनों तक गले के नीचे खाना नहीं उतरा। तब लगा नहीं अब सब कुछ ठीक हो गया, अब मैं जीत गई।
लेकिन आज वही बेटा, पति मेरे एक निर्णय लेने पर सवाल करने लगे, इतना सुनाने लगे।
अभी पिछले महीने ही जब पिया की शादी ठीक हो गई तो कितनी खुशी से उसने कहा,
बुआ! मां के बाद यदि मैं किसी के सबसे ज्यादा करीब हूं तो वो आपके। इसलिए, आप ही मेरा कन्यादान करेंगी। मैंने भी खुशी-खुशी हां कह दिया। अरे बिटिया! तुमने मुझे अपनी मां का दर्जा दे दिया यह तो मेरे लिए सौभाग्य की बात है। फिर मेरी कोई बेटी भी नहीं मैं तो खुशी-खुशी तुम्हारा कन्यादान करूंगी।
हां दीदी, आप ही करेंगी। पिया की मां ने भी अंतिम समय में यही कहा था। पिया अपनी बुआ के बहुत करीब है अगर वह कन्यादान करें तो मना मत करिएगा। भाई ने भी कहा।
लेकिन यही बातें जब अपने पति के सामने की तो तुरंत नाराज हो गए।
आपने मुझसे बिना पूछे हां क्यों कहा? पता है कितना खर्च होगा! उसके और भी तो रिश्तेदार हैं उसे क्यों नहीं कहा? सिर्फ आपको ही क्यों कहा क्योंकि आप खर्चा करेंगी।
इसका बेटे ने भी समर्थन किया। हां मम्मी, पापा सही कह रहे हैं। हम दोनों दिन-रात इतनी मेहनत करके कमाए और आप इस तरह फालतू खर्च करें। आपको इस तरह हां नहीं कहना चाहिए था।
कहने को तो पति और बेटा दोनों कहता है। आपके पास किसी चीज की कमी नहीं। जो चाहो खर्च करो लेकिन आज तक अपने मन से ₹1 भी नहीं खर्च कर पाई।
घर में इसी बातों को लेकर तनाव चल रहा था। इसी बीच प्रिया का फिर फोन आया कि बुआ नाना नानी कह रहे हैं कि कन्यादान वे करेंगे तो आप रहने दीजिए लेकिन शादी में जरूर आइएगा।
खैर बात यह बात खत्म हो गई। इसी के कुछ दिनों बाद एक बार फिर स्कूल से ऑफर आया की स्कूल में संस्कृत टीचर की सख्त जरूरत है। तो कृपया आइए मना मत करिए। बहुत खुशामद किया।
शारदा जी ने इस बार हां कर दिया। बस इसी बात को लेकर बेटा और पति उन्हें समझाने पर लगे हैं कि आपने नौकरी के लिए क्यों हां कर दिया? अब नौकरी करने की क्या जरूरत है? क्या कमी है। हम लोग इतना कमा रहे हैं तो फिर इस उम्र में नौकरी करने की जरूरत नहीं। फिर 10 साल बाद रिटायर ही हो जाएंगी तब नौकरी करने का क्या मतलब?
लेकिन शारदा जी जिद पर अड़ गई।
पति ने तुरंत कहा मैं जानता हूं आपको भतीजी का कन्या दान करने से रोक दिया इसलिए, नौकरी करने पर अड़ी हैं। आपको भतीजी का कन्यादान करना है जो खर्च करना है कर लीजिए पर नौकरी मत करिए।
तब से बस यही सोच रही है कि कैसी सोच है इन आदमियों की? कभी औरत के दिल को समझ नहीं पाते। जब अपना पति, बेटा, मां-बाप नहीं समझे तो कल को बहू आएगी तो मैं उससे क्या उम्मीद करूंगी?
यही सब सोच रही थी की तभी पड़ोसी के घर से एक पुराना गाना बजा, "एक ऋतु आए एक ऋतु जाए मौसम बदले ना बदले नसीब! कौन जतन करूं कौन उपाय.... मौसम बदले ना, ना बदले नसीब..!
गाना सुनते ही शारदा जी सोचने लगी क्या सच में मेरा नसीब कभी नहीं बदलेगा? पूरा जीवन यूं ही गुजर जाएगा। नहीं, अब बस हो गया! अब मैं किसी को नहीं ठगने दूंगी। वो झटके में उठी। हां, मौसम बदलना तो मेरे हाथ में नहीं लेकिन अपना नसीब बदलना अपने हाथों में है और मैं बदलूंगी। शायद ईश्वर भी यही चाहते हैं तभी तो मुझे बार-बार मौका मिल रहा है। भले ही यह नौकरी 10 साल के लिए क्यों ना हो मैं जरूर करूंगी।
वह तुरंत कमरे से बाहर निकली।
क्या हुआ शारदा जी? आपने क्या सोचा?
यही कि मैं नौकरी करूंगी और 10 साल के लिए क्या अगर 10 दिन का भी रहता तो मैं अवश्य करती। और हां, इस बार मैं अपने निर्णय पर अडिग हूं। मुझे कोई नहीं रोक सकता।
शारदा जी का आत्मविश्वास से भरे बातों को सुनकर पति और बेटे की हिम्मत नहीं हुई उन्हें रोकने की।
तभी पिया के नाना नानी का भी कॉल आया।
बिटिया हमारी उम्र हो गई है, तबीयत ठीक नहीं रहती तो हम कन्यादान करने में असमर्थ हैं। इसलिए यह रस्म आप ही कर लीजिए। वैसे पिया की भी यही इच्छा है तो कन्यादान आप ही करेंगी।
शारदा जी ने खुशी-खुशी हां कर दिया।
