मौसी
मौसी


आज जब भी गुजरती हूँ उस सड़क से तो कितने ही किस्से कहानी स्मृति पटल पर गुजरने लगते हैं। मेरा सनातन जूनियर हाईस्कूल स्कूल, पांचवीं क्लास में उम्र में बड़ा शंकर जिसने इतिहास के पेपर में मेरी मदद की थी। प्रिंसिपल श्री भगवान जिन्होंने अनिल की झूठी कहानी पर स्याही की दवात के लिए मुर्गा बनवा दिया था। खलीफा की दुकान जहाँ कभी बैठ कर मलाई के लड्डू खाया करती थी। इमरजेंसी में रातोंरात बनी काली सड़कें, डिवाइडर, हेलोजन लाईट , फुटपाथ, जयपुर की तरह सभी की बाहरी दीवारों की गुलाबी पुताई । विधि का सामने का होटल, दो पीपल के पुराने पेड़ ,मंदिर और भी बहुत कुछ जो तब सौंदर्यीकरण के नाम पर बुलडोजर से जमींदोज कर दिए थे। 1978 की बाढ़ । घर से सामान निकालते समय पिताजी के ऊपर छत का गिर जाना। पार्क से मेरे नये सैंडल चोरी होना और पास के बड़े हनुमान जी के मंदिर के पुजारी से अपने सेंडल वापस मांगने के लिए याचना करना। मेरी पड़ोसन मौसी जिनके आंगन हमारे आंगन के साथ कनेक्ट थे।
माँ उन्हें बड़ी जिज्जी कहा करती थीं,क्यों कि वे उनके गांव के पास वाले गांव से थीं । चूंकि मौसी के कोई सन्तान नहीं थी,इसलिए भी हम सभी उनका अधिकांश समय अपना बना लेते थे। उनके सभी रिश्तेदार भी हमारे रिश्तेदारों की तरह ही मान्य थे।
एक बार उनके एक रिश्ते की बहिन उनके यहाँ आयी जिसका नाम शुभा था, मेरी ही हम उम्र की थी,उसका भी दाखिला उसी स्कूल में करवा दिया जिसमें मैं जाती थी।
मौसी सोचने लगीं कि क्यों न अपने पति के साथ उसकी शादी कर दी जाये जिससे परिवार को संतान प्राप्ति हो सके। साथ ही यह भी चाहती थीं कि किसी को पता भी न चले। अगर संतान न हो तो शुभा की पुनः शादी कहीं और कर देंगे । अतः वे अपने पति गिरधारी लाल जी को इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार करने में जुट गयीं ,लेकिन खुद को तैयार करने में असफल रहीं । अतः शुभा को वापस उसके माता-पिता के पास भेज दिया ।
चूँकि मौसी गिरधारी लाल जी के मन में दूसरी शादी का सपना सजा चुकी थीं ।
अतः वह भी गये और शुभा के संग शादी के फेरे लेकर अपने घर ले आये। हाथों में मेंहदी और पैरों में महावर देख मौसी का माथा ठनका । वे इसके लिए कतई तैयार नहीं थीं । उन्हें अभी यही लग रहा था कि उनके साथ मजाक किया जा रहा है और शुभा के साथ उनके विवाह को उन्हें परेशान करने का नाटक समझ रही थीं।
अतः वे शुभा को वापस भेजने के लिए अपने पति पर दबाव बनाने लगीं । लेकिन यह तो संभव नहीं था।
गिरधारी लाल जी दूसरा घर लेकर रात को वहाँ रहते और दिन मौसी के हिस्से में आया। लेकिन वे इस व्यवस्था से संतुष्ट नहीं थीं,अतः दिन -प्रतिदिन उनकी हालत विक्षिप्त जैसी होने लगी। कभी किसी ओझा तो कभी किसी फकीर के पास उनका आना-जाना लगा ही रहता। पहले वे दूसरों के यहाँ कम ही जाती थीं,लेकिन अब वे सभी पड़ोसियों से मिलने लगीं और इस समस्या का समाधान खोजने लगीं ।
भावावेश में वे एक दो बार कभी कुएं में गिरने तो कभी पुल से कूदने की बात कहकर सबसे आखिरी राम-राम कह कर घर से बाहर जाने लगीं । लोग उन्हें समझा बुझा कर वापस ले आते।एक दो बार पति के सामने मिट्टी का तेल डालकर आग लगाने का प्रयास भी कर चुकी थीं ।
बार -बार ऐसी घटनाओं से माँ भी उनके प्रति उपेक्षा का भाव रखने लगी थीं,पति- पत्नी का मामला है कह कर मूक- दर्शक बनी रहती थीं ।
गर्मियों की छुट्टियां चल रही थीं,सुबह दस या ग्यारह बजे होंगे । रसोई में खाना बनाने की तैयारी चल रही थीं,मैं भी अपनी सिलाई मशीन लेकर कुछ सिल रही थी। अचानक ही बगल से आवाज आने लगी,सुन्नी की अम्मा! सुन्नी की अम्मा!माँ दौड़ कर पहुँचीं। दरवाजे से देखा तो गिरधारी लाल जी मौसी के सामने खड़े थे! मौसी मिट्टी के तेल का पूरा डिब्बा अपने ऊपर उड़ेल चुकी थीं । वे माचिस की तीली जलाकर कह रहीं थीं कि अब तो मैं मर ही जाऊँगी,मौसा जी ने उनका हाथ पकड़ कर झटक दिया,मौसी ने एक के बाद एक कई तीलियाँ जलायीं और मौसा जी बुझाते रहे। माँ लौटने लगीं पर अचानक ही चीखने की आवाज आयी,बचाओ! बचाओ!
मौसी के सिंथेटिक कपड़े आग पकड़ चुके थे। मौसा जी बुझाने का प्रयास कर रहे थे। मौसी ने पूरे घर में दौड़ना शुरू कर दिया मई का महीना था,गरमी अपने शबाब पर थी। घर के फर्नीचर,पर्दे सभी जलने लगे,मौसी ने माँ को कस कर पकड़ लिया । संयोग से माँ सूती साड़ी पहनती थीं,अतः आग धीरे-धीरे उनके कपड़ों में भी जलने लगी। मौसी जी के कपड़े धूं-धूं करके जल रहे थे,वह कमरे से बाहर आ गयीं,पांव के नीचे जमीन तप रही थी और ऊपर उनके वस्त्र जल -जल कर टपक रहे थे। जो भी उनके कपड़े हटाने की कोशिश करता वे बुझाने वाले की हाथ से चिपक जाते । जब तक सब लोग जुट पाते मौसी की चमड़ी उधड़ चुकी थी,सफेद माँस दिखाई देने लगा था। घर के अन्दर फर्नीचर जल रहा था। हम सभी लोग पानी लाकर आग बुझाने में लगे थे। मौसी सीढ़ियों पर जाकर बैठ गयी थीं ।
मैंने उनके सामने जाकर कहा," मौसी! "और अपनी रुलाई रोकने का प्रयास किया ।
मौसी ने मेरी ओर देखा,कहने लगीं," मेरा चेहरा तो नहीं जला ?"
मैंने कहा,"नहीं"उनका चेहरा और करीने से बंधा जूड़ा आग से बिल्कुल अछूता था। उनका पूरा बदन बुरी तरह से जला हुआ था ,लेकिन गरदन से ऊपर के पूरे भाग पर जलने का कोई निशान नहीं था । वे जीने की जिजीविषा लिए अब भी बहुत खूबसूरत लग रहीं थीं । वह अस्सी प्रतिशत जल चुकी थीं । पूरे घर में लोगों का जमघट लगा हुआ था। घर से अस्पताल जाते हुए ही मैंने अन्तिम बार उन्हें देखा। वह वापस नहीं लौटीं । सब कुछ शान्त और वीरान हो गया था।
आंगन के बीच अब दीवार लग गयी थी। उसमें दरवाजा लगा था,लेकिन वह भी बन्द रहने लगा । हम बच्चों से भरा रहने वाला आँगन अब अकेला हो गया था। जो हुआ ,अच्छा या बुरा,मेरी समझ से परे था। पर आज सोचती हूँ कि अगर मैं उनकी हम उम्र होती तो उन्हें इस तरह प्राण नहीं त्यागने देती।वे भी कहाँ मरना चाहती थीं । वे तो सिर्फ अपने मित्रों और रिश्तेदारों से अपने लिए हमदर्दी और एकाधिकार ही चाहती थीं । उनका यूँ जाना मुझे एक सबक दे गया,कि कभी भी अपनी जिंदगी को इस तरह न मिटाना ।
यदि पति का प्रेम पाने के लिए स्त्री अपनी ऊर्जा को लगा सकती है तो उसी ऊर्जा को समाज,बिरादरी और समूची मानवता को भी तो दे सकती है। जरूरत है तो बस सोच बदलने की। एक स्त्री यदि उपेक्षिता हो सकती है तो अपेक्षित भी हो सकती है। यह ऊर्जा वह स्व प्रेरणा से प्राप्त कर सकती है या समग्र विचार क्रांति के द्वारा भी । विचारों की समग्रता हमारा समाज हममें संस्कारों से भरता है और वह समष्टि रूप ही इस अनमोल जीवन को सार्थक बनाने का प्रतिफल है।
मौसी यद्यपि अकूत धन दौलत की मालकिन थीं,वह ईश्वर में आस्था रखने वाली भी थीं,फिर कैसे वह इतनी कमजोर हो गयीं ?
लम्बे अन्तराल के बाद भी मौसी का वह घर मेरी आँखों से ओझल नहीं होता था। रात स्वप्न में मैं उनके बन्द दरवाजों को खोलकर अन्दर जाती हूँ । नितान्त अकेले उस घर में सफील पर रखे बेतरतीब बर्तनों का ढेर,चूहों के द्वारा गंदा और उलट -पलट किया हुआ।
सामने काले किवाड़ों की अलमारी में सजे अचारों के चीनी मिट्टी के मर्तबान और एक कौने में रखा पैसों का गुल्लक,बक्से और न जाने क्या-क्या ,दूसरे कमरे में दीवार से लगा दीवान और उससे सटा हुआ टेलीफोन,कूलर ,सोफ़ा और अलमारी,जिसमें शीशा जड़ा हुआ है,सब कुछ यथावत पर धूल धूसरित। मैं कभी पानी से घर साफ करती हूँ तो कभी आँगन और उस खाली घर में रखे सामान को खोल कर देखना चाहती हूँ कि तभी चोर होने के अहसास से नींद खुल जाती है और कुछ भी नहीं दिखायी पड़ता,सिवाय एक छलावे के। क्यों होता है ऐसा बार -बार ?क्या विदेह मौसी अभी भी उस घर में हैं? जो मुझसे कहना चाहती हैं सुन्नी लिख दे कहानी और पूछ ले अपने प्रगतिशील समाज से कि जगत जननी जानकी का आर्तनाद सुनकर ममता मयी माँ धरती ने अपना आँचल फैला दिया था और मुझे वह सौभाग्य क्यों नहीं मिला ?
क्या मेरे सतीत्व में कमी थी या मेरा करुण क्रन्दन झूठा था।आखिर किस कारण हम हजारों हजार स्त्रियों की व्यथा को वैदेही जैसा आश्रय नहीं मिलता ?
कि उनके संताप को महानता का आवरण मिल सके और लोग उनके सतीत्व और त्याग को हजारों साल तक याद रखें । हम जैसों के हिस्से में आत्मबलिदान के पीछे तिरस्कार,दया ,आत्मघाती दोष के अलावा कुछ नहीं रहता ।आखिर क्यों?
क्या इसलिए कि हम सामान्य जन के पास राजमहल जैसी स्वर्ण भित्तियाँ नहीं,जहाँ पर देवत्व का निर्माण होता है और वेदना पर पड़ने वाला लोक कल्याण रूपी द्वार भी नहीं खुलता ,,,,,,नीति ,अनीत और समस्त दोषों का भार वहन करने वाली प्रजा रूपी वैतरणी भी हमारे पास नहीं होती । हाँ नहीं होती।
सामान्य जन के पास क्या है ? अपना ही नैतिक बल,समस्त नीति ,अनीति का स्व पर ही भार!! ... उनका दायित्व लेने वाला कोई नहीं! कोई नहीं! आत्मीय कहे जाने वाले स्वजन भी नहीं!... नीतियाँ गढ़ने वाली भित्तियाँ भी नहीं और संवेदना की चादर बुनने वाले जनता जनार्दन के हाथ भी नहीं । इसी लिए अपनी रक्षा और भलाई का भार भी स्वयं पर ही है। कब तक चलेगा ये सब ?
कभी मौसी कभी दुल्हिन । कैसे रुकेंगे ये आत्मघाती सम्मोहन ?
कभी संतान न होने के कारण । कभी बेटियाँ ही बेटियाँ होने के कारण । कभी शराबी पतियों के कारण । कभी दहेज पूर्ति हेतु और कभी गरीबी के कारण।
किसी की माँ।.....किसी की बेटी.....किसी की बहिन......तो किसी की पत्नी.....माँ की बड़ी जिज्जी......की आहुतियाँ झकझोर देती हैं संवेदनशील मनुष्यों को.....
ओहहहहह,,,,,,काश,,,,,,कि हम किसी को उस क्षण से बचा पायें जब वह अपनी ज़िन्दगी का अहम फैसला लेने में असमर्थ हो.....।