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Meera Parihar

Tragedy

4  

Meera Parihar

Tragedy

अन्नी का भाई

अन्नी का भाई

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*अन्नी रसोई में मिक्सी चला कर इकठ्ठी की हुई मलाई से मक्खन निकाल रही थी। कहीं दूर से 'सावन का महीना पवन करे शोर' गाने की आवाज आ रही थी। सावन का महीना आ गया क्या? अन्नी के दिल से आवाज आई। कितनी यादें ताजा होने लगीं। माँ, पिताजी,भाई, छोटी बहन और झूले । आस- पड़ोस और सहेलियाँ सब कुछ जैसे तन-मन को झंकृत करनेलगता है। रिमझिम बूंदें और मशीन पर बनती सिवईयां। एक चार पाई की पाटी से पीतल की सिवई बनाने वाली मशीन के स्क्रू कसने का उत्पात जैसे उत्सव में बदल जाता था। मैं कसूंगी, नहीं मैं कसूंगा और फिर लोई लगाने की होड़ तो कभी मशीन चलाने पर रार, कभी सिवईयां चारपाई के ऊपर बंधी रस्सी पर लटकाने का द्वंद्व, इन सभी के मध्य पड़ोसी चाची - ताई का अपने - अपने दिन हमारी मशीन को बुक करना और छत के स्लीपर पर झूला झूलते हुए गीत गाते हुए "अम्मा हमऊं चलेंगे मामन के करेला बेलन" कच्चे नीम की निवोरी सावन वेग अइयो रे",इधर मिक्सी की घर्र घर्र आवाज ने अन्नी की तन्द्रा तोड़ी। मक्खन छाछ से अलग हो चुका था। माँ के घर होते तो गिलास भर छाछ पीते और मक्खन से बनी अपनी मूंछें देखते। पर अब ना माँ ना पिताजी हैं। भैया भी अपने बचपन में जाकर हर बार जब भी मिलता तो याद दिलाता कि दीदी जो शर्ट का कपड़ा आप लाई थीं। जिस पर चिड़ियाँ बनीं थीं, वो मेरी सबसे अच्छी शर्ट थी।अन्नी कहती, हाँ याद है, मैं ही तो लायी थी मनकामेश्वर वाली गली से और मैंने ही घर पर सिली थी। सिलने का नया-नया शौक था । कितने ही कपड़े घर पर ही सिले थे। एक बार तो पिता जी की कमीज पैंट भी सिल दी थी। कितने खुश होकर बताते थे सबको कि ये कपड़े मेरी अन्नी ने सिले हैं। होली पर कितने गुझिया और सेव के लड्डू बनते थे घर में, भैया याद करते हुए कहता। कितनी भेली लाते थे पिताजी गुड़ की और हम पेचकश से तोड़-तोड़ कर खाते थे। एक मीठी मुस्कान और स्मृति उसके चेहरे पर साफ दिखाई दे जाती। अन्नी भी कहती कि पिताजी जो फ्राक दिल्ली से लाये थे, उसमें बड़ी अच्छी खुशबू आती थी। अब तो मैं हरेक कपड़ा सूंघ कर देख चुकी हूँ पर किसी में वह खुशबू नहींआती। खरगोश वाली रजाई याद है न जो मैंने ली थी और सीनरी वाली तुमने ले ली थी। वह डिजाइन तो अभी तक मेरी नज़र के सामने नहीं आया। अन्नी को लगा गैस पर कुछ जल रहा है। विचारों में इस तरह खो गयी कि ध्यान ही नहीं रहा, दूध जल चुका था। ऐसे ही उसका छोटा भाई भी कहीं उड़ गया है अनन्त आकाश में वापस न लौटने के लिए। कितने अरमानों से शादी करते हैं। कुछ दिन जैसे हवा में उड़ जाते हैं। फिर बच्चे आ जाते हैं, जिन्दगी ढर्रे पर चल पड़ती है। समय को पंख लग जाते हैं। कुछ पिता का कमाया धन कुछ घर, जमीन का अपने हाथ में आ जाना। कुछ दिन की बादशाहत और यार दोस्तों की ज़िन्दादिली घर को गुलजार करती रहती है। हर बार अपना काम खोलने के लिए कभी घर तो कभी खेत बेच दिए। अन्नी क्या करती कह देती, पहले अपने रहने खाने का ठिकाना कर लेना तभी बेचना। अन्नी को लगता कि आज नहीं तो कल अपना रोजगार चल जायेगा तो जीवन यापन का सहारा होगा। पर अपना काम जमाने के लिए तो जी तोड़ मेहनत और दूर दृष्टि भी जरूरी होती है। लेकिन जब बिना कमाया पैसा हाथ आता है तो मधुमक्खियों को भी साथ लाता है, मांगने वाले और ऐश के साधन जुटाने वाले भी साथ आ जाते हैं। जिस घरमें शराब का नाम लेना गुनाह था, वहाँ शराब पी जाने लगी। शराब की गन्ध छुपाने के लिए गुटखा खाया जाने लगा। साथ ही घरेलू झगड़े भी शुरू हो गये। बच्चे बड़े हो रहे थे, तनाव और आर्थिक तंगी ने सबको छोटी उम्र में ही काम पर लगा दिया। तभी सभी ने मिलकर अपने पिता को बाहर का रास्ता दिखा दिया। सालों तक किसी ने एक बक्त का भोजन भी नहीं दिया। सबका एक ही जबाव कि जब घर में पैसा नहीं ला सकते तो खाना किस बात का। संगी साथी कभी रुकने की व्यवस्था कर देते तो कभी छोटा-मोटा काम करने के लिए अपने यहाँ रख लेते। कभी रिश्तेदारी में जाकर अपना समय किसी तरह बसर करने की नौबत आ जाती। अन्नी के पास एक दिन फोन किया और बहुत ही कराह भरे स्वर में कहा, दीदी "अब खाना खाने में तकलीफ होने लगी है। कुछ रुपये थे वह भी खर्च हो गए। क्या करूं ?"

अन्नी ने डांटते हुए कहा, "कितना समझाया तुम्हें कि गुटखा मत खाओ, छोड़ दो। खाने के लिए बहुत सी चीजें दी हैं भगवान् ने। अब भुगतो, हो गया होगा वही। अन्नी ने झल्ला कर कहा। "

" घर के पेपर हैं मेरे पास आप कहें तो ले आऊं। "

अन्नी ने कहा, "इसी लिए नहीं चाहती कि तुम यहाँ आओ, एक घर ही तो है बच्चों के लिए वह भी इधर- उधर कर दिया तो क्या करेंगे वे ? बुराई मुझे मिलेगी कि बहिन -भाईने मिलकर हमारा घर उजाड़ दिया। मैं घर पर फोन कर देती हूँ, तुम्हारा इस स्थिति में घर जाना ही उचित रहेगा।"

"नहीं, मैं घर नहीं जाना चाहता। किसी को कुछ मत बताना। मैं ठीक हो जाऊंगा, घर में सब फिक्र करेंगे। अन्नी की चेतना जबाव देने लगी। अपने परिवार की और रिश्तेदारों की नजर में वह एक लापरवाह और गैरजिम्मेदार इन्सान था लेकिन दुनिया की नजर में एक सीधा सरल अन्नी का भाई था, जिसकी माँ बचपन में ही चल बसी थीं और पिता को पत्नी के सदमे और बाढ़ की तबाही ने शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर कर दिया था। इस लिए मोहल्ले वालों की सहानुभूति सह्रदयता का पात्र भी था अन्नी का भाई। मुहल्ले की बड़ी बूड़िया कहतीं, कितने देवता मनाये तब कही ये पैदा भये और भगवान् की मर्जी देखो, ना मैया-बाप बेटा का सुख देख पाये और ना बेटा ने कोई सुख देखौ। फिर एक कहावत कहतीं, "जाकूं सुख घनेरे ताकूं दुख बहुतेरे" और अन्नी का भाई मन्द-मन्द मुस्काता यह सब सुनकर। भगवान की लीला है सब, कहकर ठन्डी आह भरते सब।खबर मिलते ही घर के लोग अपने साथ ले गये और जल्द ही सभी जांच करवायी गयीं। जिसका डर था वही हुआ। जांच में भोजन नली का कैंसर पता चला, पर होनी को कौन रोक सका है। सभी सकते में थे, भाई का पार्थिव शरीर सड़क पर रखा था। आसमान में सूरज डूब रहा था, लाली बिखरी हुई थी पर आज अन्नी को प्रकृति का यह सौन्दर्य कोई सुकून नहीं दे पा रहा था। चारों ओर रुदन मचा था, कुछ शांत बैठे थे। किसी को आना था, कोई आ चुका था, कोई सड़क पर लगे जाम में फंसा था। सभी को जल्दी थी, शाम के बाद अधिक रात्रि होने पर अन्तिम संस्कार की रस्म नहीं हो सकती थी। अन्नी ने भाई की कलाई पकड़ ली, नब्ज देखने लगी। सफेद कपड़े के अन्दर ऐसा लग रहा था जैसे भाई ने गहरी साँस भरी हो। वह बहुत देर तक कलाई पकड़ बैठी रही,पर, सब कुछ जैसे स्वप्न ही था। पत्नी लगातार रोये जा रही थीं। बेटे को सम्बोधित कर के कह रही थीं, " लाला रे! कीमो थैरेपी नहीं करवाते तो शायद तेरे पापा और चल जाते।"


बच्चे अलग रुदन मचाये थे। "पापा हमको क्या पता था कि आप इतनी जल्दी हमें छोड़ जायेंगे। "


दूसरी ओर खड़ी भीड़ जल्दी करने की आवाज़ लगा रही थी। सभी क्रिया कर्म सम्पन्न किये जा रहे थे। पत्नी की चूड़ियाँ उतारी जा रही थीं। अन्नी भारी मन से यह सब देख रही थी या ये समझिए कि वह उस जगह से हट कर अलग खड़ी हो गयी। अनन्त की यात्रा के राम-नाम सत्य है शब्द भीड़ के रुदन के मध्य आहिस्ता-आहिस्ता पार्श्व में विलीन होते रहे। भीड़ छंट गयी, स्त्रियाँ बैठी रहीं और तरह की चर्चा में मशगूल हो गयीं। बड़ी खराब बीमारी है, भगवान् दुश्मन को भी न दे, आदि-आदि। सभी कार्य हुए, गरुड़ पुराण का पाठ हुआ। पंडित जी की आज्ञानुसार ठन्डे गरम वस्त्र, जूते, चप्पल , छतरी, चारपाई, विस्तर, इत्यादि सामान स्वर्ग में सुख से रहने के लिए दान में दिए गये। आज वही रिश्तेदार मृतक की प्रशंसा कर रहे थे जो कभी कहते थे कि भाई की पत्नी ने अपने बल पर सब बच्चे बड़े किए हैं। अन्नी का भाई तो कब का मर गया था , बच्चे अनाथों की तरह से पले हैं। बाप तो पागल हो गया था। हमने तो कभी घर में नहीं देखा। अन्नी नम आंखों से राखी के उन धागों को देख रही थी जो कभी नेग नहीं दे पाने की बेवशी में नहीं बंध पाये होंगे और सोच रही थी कि क्या करे इनका? बांध दे घर की चौखट पर या रखे रहे अपने पास ही स्मृतियों के रूप में। वह आवाज अब सुनाई नहीं पड़ेगी, " दीदी मैं आ जाऊं ? देर हो जायेगी, आप खाना खा लेना।"

लौटते समय पीछे मुड़कर देखने वाली वे आंखें जो दूर तक निहारती जाती थीं और कहती थीं। दीदी ! अन्दर जाओ मैं चला जाऊँगा, चिंता मत करना। अन्नी भी अब भाई को दूर तक जाते नहीं देख सकेगी, सम्भल के जाना कहते- कहते वहअपने दरवाजे पर बहुत देर तक खड़ी रही। इस कामना के साथ कि ईश्वर की उस दुनिया में अवश्य ही उसे सुकून मिलेगा। आसमान में दूर-दूर छिंटकी काली बदलियां टप टप टप टप की आवाज के साथ बरसने लगीं। सावन का महीना जो है ......


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