जहान्वी
जहान्वी


नगर में गंगा मईया को चूनर पहरावनी का आयोजन था।
एक के बाद एक अनेकों साड़ियों को बाँध कर बहुत बड़ी चूनर बनायी गयी थी। दुग्धाभिषेक,चन्दन आरती,प्रसाद वितरण का भव्य आयोजन था। बड़ा ही मनोहारी दृश्य था। मैं भी शामिल थी दर्शकों में ।
कितने ही विचार आये और गये , माँ गंगा की विवशता और निर्मल जल धारा को मनुष्य के द्वारा मल ,कचरा और अन्य प्रकार से गंदा किया जाना और दूसरी ओर ये आस्था का कार्यक्रम ? तभी एक कविता अनायास ही मुखरित होने लगी-----
कहते हैं क्या गंगा के धारे
कब तक चलोगे किनारे -किनारे ?
आयी मैं भू पर निमित्त तुम्हारे
तरे मुझसे सब जन मुझे कौन तारे ?
जब से मैं आयी लिया ही लिया है
पूछो स्वयं से मुझे क्या दिया है ?
मैंने दिया तुमको अमृत जीवन जल
तुमने दिए मल मुर्दों के अवशेष
नाले पनारे..
कब तक चलोगे किनारे किनारे----
हम सभी जानते हैं कि गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए भागीरथ ने कठोर तपस्या की थी तब गंगा पृथ्वी पर आने के लिए तैयार हुई थीं । चूंकि गंगा को भागीरथ धरती पर लाये ,जब वह उपलब्ध हो गयीं तो उनकी कद्र नहीं समझी गयी । जिन्हें लोगों को पाप मुक्त करने के लिए लाया गया था ।वह स्वयं ही इतनी दूषित हो गयीं हैं कि उन्हें इस गंदगी से मुक्त करने के लिए एक अन्य भागीरथ को पृथ्वी पर आना पड़ेगा । इन्सान यह भूल गया कि अमृत तुल्य जल के साथ हम ये क्या कर रहे है? जो जल हम पीते हैं उसी में मानव मल और शव डाल कर विवेकशून्य होने का परिचय भी दे रहे हैं । ऐसा ही दुख अधिकांश स्त्रियों को भी झेलना पड़ता है क्योंकि समाज ने उनके महत्व को कभी समझा ही नहीं और वे हमेशा उपेक्षा के दंश को अपनी नियति समझ कर समाज का जहर पीने के लिए विवश होती रही हैं ।
जाह्नवी जो घर-घर घरेलू कार्य करके अपनी जीविका चला रही है,सौम्य,सुन्दर,दूध के मानिन्द गोरा रंग,आँखे शान्त निर्दोष पंछी की भांति सुघड़ और भलीं ।कद काठी भी सामान्य नपी- तुली। चेहरे पर छायी उदासी और खिली मुस्कराहट से मन के भाव सहज ही प्रकट होते हैं ।
युवा अवस्था के पहले वसन्त में ही एक फ़ौजी उसकी माँ से उसका हाथ मांगने आ गया था।
' अभी हमारी सामर्थ्य नहीं है ब्याह करने की !माँ ने कहा।'
'हमें तो कुछ भी नहीं चाहिए बहन जी!फौज की नौकरी है। घर में खेती-बाड़ी है,किसी चीज की कमी नहीं है।एक जोड़ी कपड़े में ही विदा करा ले जायेंगे । आपकी बेटी गुणी ,गृहकाज में दक्ष है ,यही बहुत है हमारे लिए बहुत है ,फौजी के पिता ने अनुनय के साथ कहा।'
'हम आपकी स्थिति से वाकिफ हैं,लड़की के पिता होते तो बात कुछ और होती।"
चार बच्चों की माँ सुरसती,चालीस की उम्र में ही एक फौजी की विधवा हो गयी थीं,सरकार की ओर से मिलने वाली पैंशन और थोड़ी खेती तथा गाय का दूध बेच कर ही उनका घर ख़र्च चलाती थीं।अपनी बेटी की उम्र को देख कर वह चिन्तित तो थीं पर एक भरोसा भी था कि एक फौजी परिवार दूसरे फौजी
की स्थिति को भलीभांति समझ सकता है।अतः उन्होंने हामी भर दी.।
शुभ मुहूर्त देख कर जाह्नवी को फौजी के साथ सात पैरों के बन्धन में बाँध दिया गया।
सभी खुश थे कि घर बैठे ही बिटिया को अच्छा घर वर मिल गया।
इधर फौजी भी खुश था कि उसे घर प्रवास पर एक पत्नी उपलब्ध रहेगी और नौकरी पर तो एक पत्नी पहले से है ही और माँ-बाबूजी को भी शिकायत नहीं रहेगी कि घर का काम करने के लिए बहू को यहाँ छोड़ कर नहीं जाता है बेटा..।
घर में खुशी का माहौल था,घरवाले भी खुश और फ़ौजी भी खुश आखिर पत्नी से अच्छा और सस्ता मजदूर कहाँ मिलेगा ?
अपनी बेटी को सुहाग पिछोरे में देख कर माँ फूली नहीं समा रही थीं,एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है बिटिया के हाथ पीले करना।इतनी आसानी से अच्छा वर मिलना भाग्य वालों के ही भाग में होता है ।ः
पर जाह्नवी के सुहाग पिछोरे में चैन ओ सुकून के पल कहाँ बाँधे गये थे,उसमें थी खेत खलिहान और घर की जिम्मेदारी ।
खेतों से मक्का काट कर लाने का काम हो या गाय के लिए घास-पतेल लाने का काम,मकान के लिए गारा बनाने का काम हो या जंगल से लठ्ठे लाने का ।रात-दिन एक हो जाते काम करते -करते।रोटी बनाना हो या नोले से पानी लाना,सब कुछ करती वह घर के वास्ते।पर सास तो सास ही थी ,खूब ताने मारती-----
'दरिद्र घर की है,हमारे सीने पर ही मूंग दलेगी' ,जब -तब वह पूरी कैकयी बन कोप भवन में सांझ होते ही पड़ जाती,ससुर को भड़काती,लांछन लगाती,मक्के के ठूँठ गोबर में छिपा देती और अपने पति को दिखाती ,'देखो ! दरिद्रनी की करतूत ! जन्म की भूखी ने भुट्टे खाकर कहाँ छिपा रखे हैं ।'और तब शुरू होता पिटाई का सिलसिला!!!देवर हरी डंडी तोड़ लाता,ननद उसमें तेल लगाती और तड़ाक-तड़ाक से बस्ती गूंजने लगती। किसी की क्या मजाल कि कोई कुछ कहे,,,,
पिटने की पीड़ा ले माँ के पास पहुँचती और जब खेतों में काम करने का वक्त आता,मरद फिर पहुँच जाता । माँ को दिलासा देता,हाथ पैर पकड़ता,गलती की माफी मांगता और आगे से ऐसा नहीं होगा कहता...
माँ पसीज जाती,और भेज देती उसके साथ,,,,
जब तक खेतों में काम रहता ,सब ठीक चलता,जैसे ही काम नहीं रहता,फिर वही जलील करने के बहाने ढूँढ़ लिए जाते।
क्या करे ?कहाँ जाए??जिसके साथ फेरे लिए हैं,वह भी तो कुछ नहीं कहता,बर्दाश्त न करे तो क्या करे ?कितना सहे ?इन्हीं सवालों से जूझते हुए और ऐसी ही पुनरावृत्ति होते हुए उसके आठ साल उस घर में निकल गये।
ऐसे ही एक दिन देवता की पूजा थी,उपवास था उसका..वह चूल्हे पर रोटी बना रही थी,एक रोटी तबे पर तो दूसरी घाए(चूल्हे के अन्दर) में थी ,कि तभी देवरानी जो कि बाहर से पानी भर कर ला रही थी,ने दरवाजे से ही कहा,, 'भागो!भागो!दीदी!वे लोग डन्डा लेकर आ रहे हैं और इतना कह कर वह तो खेतों की ओर भाग गयी,जबकि जाह्नवी को मौका ही न मिल सका।
सास,ससुर,देवर,नन्द सबने पीटा और वह अधमरी सी होकर एक कौने में पड़ी थी।सबने समझा कि अब तो यह मर गयी!!!!अब भूत बन कर सबको परेशान करेगी।मानव मल खिलाकर ही इस बला से बच सकते हैं ।।।।।सबने एक मत से कहा!!!!!!!
छोटा देवर दौड़ कर बाहर गया और एक लौकी का पत्ता तोड़ कर उस पर मल रख लाया तथा ससुर को पकड़ा दिया ।ससुर ने जैसे ही मल खिलाने के लिए हाथ बढ़ाया,जाह्नवी ने सोचा मरना तो है ही पर मल खा कर नहीं मरूंगी।
उसने पूरी ताक़त से ससुर के हाथ को पकड़ा और उसी के मुँह पर दे मारा।
इस अप्रत्याशित वार के लिए कोई भी तैयार नहीं था।
न जाने जाह्नवी में कहाँ से इतनी ताकत आ गयी कि वह सबको धकियाते हुए भागती गयी,,,,,भागती गयी,, रात भर पतेल के नीचे पड़ी रही और भगवान की मेहरवानी रही कि किसी जंगली जानवर का शिकार नहीं बनी।सुबह की पहली किरन के साथ अपने घर को चल पड़ी ,ससुराल में कभी न लौटने के लिए ।
शरीर पर पिटाई के बेइन्तहा जख्म अब भले ही भर चुके हैं लेकिन उनके निशां आज भी उसे चन्द बरसों के भोगे हुए नारकीय जीवन की याद ताजा करा देते हैं और वह सोचती रहती है कि क्या मनुष्य सभ्य प्राणी की श्रेणी में रखा जा सकता है ?
गंगा मईया की तरह जाह्नवी का सुहाग पिछौरा भी उसके जीवन में मिलने वाले दुखों को उसकी नियति को नहीं बदल सका,ठीक गंगा मैया की चूनर उत्सव की भांति,जाह्नवी भी तो गाजे-बाजे,दावत,द्वाराचार ,सिन्दूर,बिछुओं की रस्म अदायगी के बाद ही अपना सुखी संसार बसाने आयी थी,पर मनुष्य कही जाने वाली सभ्य जाति ने उसे क्या दिया ?
घरों में झाड़ू -पौछा और अन्य काम करने वाली भागीरथी यही सवाल करती है सभी से।
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कहते हैं कि बारह वर्ष बाद घूरे के दिन भी फिरते हैं। गंगा निर्मल हो रही है,आचमन योग्य। ऐसा ही जह्नावी के साथ भी हुआ।फौज की पंद्रह साल की नौकरी के बाद उसके पति को सेवानिवृत्त कर दिया गया,और इसी दौरान पत्नी की भी अज्ञात कारणों से मृत्यु हो गयी । जह्नावी फिर याद आ गयी । दो बच्चों के पिता से कौन शादी करता?
जह्नावी के घर फिर संदेश भेजा गया कि वह अपनी पत्नी को बापस ले जाना चाहता है।
बेटी की माँ फिर से हुलसने लगी ,एक उम्मीद की किरन ने उसके दरवाजे पर दस्तक दी थी। लेकिन पूर्व की घटनाओं से मन सशंकित था। उसने अपनी बेटी से बात की कि वह क्या चाहती है?
'माँ ! आप तो जानती ही हैं कि मैं वापस नहीं जाने का फैसला ले चुकी हूँ,फिर क्यों मुझे उस नर्क में भेजना चाहती हैं? मैं अपनी जिंदगी में खुश हूँ।'
'पर बिटिया जिंदगी बड़ी लम्बी होती है,मेरा क्या है ,आज हूँ,कल रहूँ न रहूँ । बहुत सोचा है मैंने । कुछ पुख्ता इंतजाम कर के ही भेजूंगी।'
' जैसा आप निर्णय लें,पर उन्हें अपने लिए एक अलग घर बना लेना चाहिए।'
'अब वहाँ है ही कौन ? ससुर अधिक शराब की लत से स्वर्ग सिधार गए,देवर शादी करके नौकरी पर जा चुका है,एक लड़का अलग रह रहा है और सास खटिया पकड़ चुकी है। एक बार जा के देख ले। मुझे मालूम है कि सुहाग पिछौरे का कोई सुख तुम्हें नहीं मिला। भगवान ने अब कोई सुख सोच रखा हो तो अब मौका आया है,आजमा ले अपना भाग्य मेरी बच्ची !'
'ठीक है मां!आप खबर कर दें कि पांच लाख मेरे नाम से बैंक में जमा करवा दें और अदालत में विवाह रजिस्टर करवा के ये शपथ-पत्र जमा करें कि मेरे साथ मार-पीट और दुर्व्यवहार नहीं होगा। तभी मैं जाऊंगी।'
अक्षय तृतीया का दिन जह्नावी के जीवन में आशा की किरण लेकर आया,उसके पति ने उसकी शर्तें स्वीकार कर ली थीं और अदालत में हलफनामा देने को तैयार था।
जह्नावी ने एक बार फिर से अपना सुहाग पिछौरा ओढ़ा था।
माँ खुश थीं कि उनकी बेटी के जीवन में एक बार फिर से खुशी आ रही है,और वे गाने लगीं,
'अंगन लिपाओ,चौक पुराओ,बेटी मेरी लाख की रे।'
'सजन सलौने पिया घर आये,थाल सजाओ आरती रे।'
' बारह बरस में दिन फिर बहुरे,पूरन मेरी आस
की रे।'
'जुग -जुग जीवे मोरी लाड़ली,धन-धन मेरे राम जी रे।'